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मानसून की विदाई, सूखे का आगमन

33 फीसदी कम वर्षा के साथ चार महीनों वाले मानसून- 2019 सीजन ने अपना एक-तिहाई समय पूरा कर लिया है. लेकिन इस सीजन का सबसे महत्वपूर्ण महीना जुलाई है, जो कि सर्वाधिक वर्षा यानी कुल सीजन की एक-तिहाई वर्षा की हिस्सेदारी अकेले करता है. जुलाई में होने वली वर्षा के इतिहास का पीछा करने पर यह पता चलता है कि जुलाई में कम वर्षा का मतलब न सिर्फ कुल मानसून की कमी बल्कि यह गंभीर सूखे से भी जुड़ा है.

भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) ने सीजन के अपने मानसून पूर्वानुमान में पहले से ही जुलाई में सामान्य से कम वर्षा का संकेत दिया है. सामान्य तौर पर मानसून ब्रेक या तो जुलाई मध्य में या कभी-कभी अगस्त में होता है. लेकिन जुलाई महीने में मानसून में कमी कृषि और मौसम गतिविधियों के लिए हमेशा चिंता का कारण बनती है. पहला भारतीय फसल चक्र, खास तौर से धान, के लिए इस महीने में वर्षा बेहद ही अहम होती है. जुलाई में किसान धान की रोपाई करता है और उसे निश्चित अंतराल पर लगातार बारिश की जरूरत होती है.

इस वर्ष किसानों की चिंता के लिए एक और कारण है. वह है मानसून का देर आगमन और उसकी मंथर प्रगति. राज्यों ने किसानों को देर से बुआई की सलाह दी है. 28, जून तक 27 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में धान की बुआई हुई है, बीते वर्ष के मुकाबले 8.45 हेक्टेयर की गिरावट हुई है.

इस का मतलब है, किसानों ने बुआई ही सामान्य समय से करीब एक महीने बाद की है. जुलाई में वे पूरी तरह रोपाई कर चुके होंगे. जुलाई में होने वाली वर्षा पर उनकी निर्भरता बेहद परेशान करने वाली है. फसल चक्र में हो रही देरी से इतर किसान अनियमित वर्षा और अतिशय मौसमी घटनाओं को भी देखेंगे. यह फसलों के परिपक्व होने से पहले नुकसान का कारण भी बनेगी.

पुणे स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेटेरोलॉजी के जरिए किए गए आईएमडी के वर्षा आंकड़ों का विश्लेषण बताता है कि जुलाई में कमजोर मानसून भारत में छठवां सबसे भयानक सूखा (1877 से 2005 के बीच) का कारण बन सकता है.

2013 में इंडियन इस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेटरोलॉजी के वैज्ञानिक ने कुल मानसून नतीजों पर अध्ययन किया था. इसमें देखा गया था कि जून और जुलाई के महीने में कब वर्षा सामान्य से कम और सामान्य से ज्यादा हुई. इस अध्ययन के लिए 1871 के आंकड़ों तक का पीछा करना पड़ा था. अध्ययन में पाया गया था कि यदि जुलाई में कम बारिश हुई तो मानसून के कमजोर होने की 90 फीसदी संभावना बढ़ जाती है.

देश के दो सबसे भयानक सूखों को देखिए. पहला 1987, जब जुलाई महीने में के अंत में 26 फीसदी कम बारिश हुई और 18 फीसदी मानसून सामान्य से कम रहा. वहीं, 1972 में भी जुलाई महीने में 30 फीसदी कम बारिश हुई और कुल मानसून सामान्य से औसत 25 फीसदी कम रहा. इस अध्ययन में जून में मानसून की कमी का अध्ययन भी किया गया था. इस सीजन की तरह, उन्होंने पाया जून में कम वर्षा का मतलब कुल मानसून में 77 फीसदी गिरावट हो सकती है.

28 जून तक मानसून की कमी 36 फीसदी रही. आईएमडी के मानसून नक्शे के मुताबिक 27 जून तक मानसून की प्रगति और वास्तविक वर्षा की तस्वीर बहुत ही डराने वाली है. कुल 36 में से केवल पांच हाइड्रोमेट सब डिवीजन में सामान्य या सामान्य से अधिक वर्षा दर्ज की गई है. जबकि समूचे देश में 30 जून तक 33 फीसदी कम वर्षा दर्ज की गई है. 27 जून तक सामान्य 135.6 मिलीमीटर वर्षा के मुकाबले वास्तविक वर्षा 86.3 मिलीमीटर हुई है.

30 जून को कुल बारिश 112 मिलीमीटर दर्ज की गई. यह 100 मिलीमीटर आंकड़े के बेहद करीब है. यह बात भी गौर करने लायक है कि जून तक 100 मिलीमीटर का आंकड़ा इसलिए भी पार कर गया क्योंकि महाराष्ट्र के मुंबई में दो दिन लगातार जमकर बारिश हुई. लेकिन देश के ज्यादातर हिस्से सूखे रहे. इसने समूचे मानसून के आंकड़े को प्रभावित किया है. बीते 118 वर्षों में यानी 1901 सेतीनबारऐसाहुआहैजब 30 जूनतक 100 मिलीमीटर से भी कम वर्षा हुई है. 1905 में जून महीने में 88.7 एमएम, 1926 में 97.6 एमएम, 2009 में 85.7 एमएम बारिश हुई है. यह देश के सबसे भयंकर सूखे वाले वर्ष रहे हैं. 146 वर्षोंमें 1923, 1924 और 1926 को छोड़ दें तो जब भी जून महीने में  30 फीसदी से कम वर्षा हुई है तो या तो सामान्य से कम मानसून रहा है या फिर सूखा रहा है. इस बार भी स्थिति सूखे जैसी बन रही है.

जून में वर्षा की कमी इस तथ्य के साथ भी जुड़ी है कि देश के 44 फीसदी क्षेत्र विभिन्न तरह के सूखे वाली स्थितियों की मार झेल रहे हैं. पृथ्वी मंत्रालय के अधीन अर्थ सिस्टम साइंस ऑर्गेनाइजेशन का सूखे पर आधारित 1901 से 2010 तक का अध्ययन विश्लेषण यह बताता है कि हाल के दशकों में बहुवर्षीय सूखे की तीव्रता काफी बढ़ी है. 12 बहुवर्षीय सूखा 1951 से 2010 के बीच दर्ज हो चुका है. वहीं, 1901 से 1950 के बीच तीन सूखे की स्थितियां सिर्फ हुई हैं. खास तौर से 1977 से 2010 के बीच सूखे की तीव्रता मध्य और प्रायद्वीपीय भारत में बढ़ी है.

(यह लेख डाउन टू अर्थ पत्रिका से साभार है)