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‘हिंसा और गाली दिखाते तो हमारा मकसद असफल हो जाता’
आर्टिकल 15 बड़ी गंभीरता से एक बड़ी समस्या को हमारे सामने लाती है. हमारा संविधान, समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व की खूबसूरत अवधारणा की बात करता हैं. लेकिन समाज हमारा कुछ ऐसे नियम-कानूनों पर अमल करता है, जो संविधान की इन धारणाओं के सर्वथा विपरीत खड़ी हैं. इन्हीं विपरीत स्थितियों को एक दूसरे के सामने खड़ाकर जातिवादी श्रेष्ठता की निरर्थकता का संदेश देने की कोशिश ये फिल्म करती है. हमारा समाज जातिवादी संतुलन का आदी हो गया है. जो लोग इस संतुलन के लाभार्थी हैं, वे इसे बनाये रखने के हिमायती हैं. लेकिन फिल्म कहती है कि इस संतुलन में भारी गड़बड़ी है और इसे सही करने के लिए एकदम नये तरीके से सोचना होगा. जाति पर वार की कोशिशें बुद्ध से लेकर कबीर और रैदास से लेकर पेरियार तक हुई हैं, लेकिन वो तरीका अभी तक ईजाद नहीं हुआ जो अलग तरीके से इस संतुलन को चुनौती देकर तोड़ सके. आर्टिकल 15 वो तरीका तो नहीं बताती, लेकिन जाति पर एक मज़बूत हथौड़ा ज़रूर चलाती है. फिल्म के पटकथा लेखक गौरव सोलंकी ने फिल्म की निर्माण प्रक्रिया, फिल्म माध्यम की सीमाओं और साथ ही इसकी आलोचनाओं पर न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत की.
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