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अपने पार्टनर की रिहाई की लड़ाई में अद्भुत संघर्ष दिखाया है साथिनों ने
बीते दिनों फ्रीलांस प्रशांत कनौजिया को यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ख़िलाफ़ कथित आपत्तिजनक ट्वीट के मामले में गिरफ़्तार किया गया. उनकी गिरफ़्तारी का ज़बरदस्त विरोध हुआ. राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियां बनी. प्रशांत की रिहाई के बाद उनकी पत्नी जगिशा की तुलना केरल की हादिया से की जाने लगी. उनकी हिम्मत व अचानक से सार्वजनिक स्पेस में सक्रिय होने की तारीफ़ की गयी. हालांकि सिर्फ जगिशा ही नहीं बल्कि ऐसी तमाम पार्टनर हैं जिनका अपने पति के पेशेवर काम में कोई हस्तक्षेप नहीं होता, लेकिन ज़रूरत पड़ने पर उनकी सक्रियता बढ़ जाती है. इस संघर्ष और राजनीतिक सक्रियता को उन्होंने खुद नहीं चुना होता है. न्यूज़लॉन्ड्री यह कतई दावा नहीं करता कि जगिशा की लड़ाई अप्रत्याशित और अतुल्य थी. बल्कि हमारी कोशिश जगिशा के मार्फ़त उस संघर्ष को रेखांकित करने की है जो अमूमन हमारा ध्यान नहीं खींचती और सारी चर्चा कथित सज़ायाफ्ता के इर्द-गिर्द घूमती रह जाती है.
प्रशांत का म्यूचुअल फ्रेंड सर्कल काम आया
जगिशा कहती हैं, “जिस रोज़ प्रशांत को पुलिस उठाकर ले गयी, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं. मेरे पास उनके कुछ करीबी दोस्तों का नंबर है, मैंने उन्हें कॉल किया”. प्रशांत यूनाइटेड अगेंस्ट हेट नाम के संगठन के साथ जुड़े हुए हैं. उमर खालिद, नदीम खाम आदि भी इसी संगठन से जुड़े हैं. अक्सर प्रशांत से इनकी मुलाकात हुआ करती थी, इसलिए जगिशा भी इन लोगों को जानने लगी थीं. हालांकि जगिशा द वायर में काम करने वाले बहुत ही कम लोगों को जानती थी. जिन्हें जानती भी थी बहुत ही औपचारिक तरीके से. “मैं कभी सोच नहीं सकती थी वायर के सिद्धार्थ वरदराजन और एमके वेणु मुझे कॉल करेंगें और हिम्मत देंगे. मैंने हमेशा उन्हें आदर्श की तरह देखा,” जगिशा ने कहा.
जगिशा बताती हैं कि वे कानूनी मामलों में ज़्यादातर लोगों की तरह शून्य जानकारी रखती थी. उनकी कभी दिलचस्पी भी नहीं रही. वह याद करते हुए कहती हैं, “प्रशांत की वकील नित्या रामाकृष्णन ने मुझसे कुछ जानकारियां मांगी और मैं दे नहीं सकी. उन्होंने मुझे डांटा भी कि अगर मैं खुद की मदद नहीं करूंगी तो कोई मेरी मदद नहीं करेगा.” वो बताती हैं कि उसी दौरान उन्हें स्वतंत्र पत्रकार नेहा दीक्षित के व्हाट्सएप संदेश ने प्रेरित किया.
प्रेस क्लब के बाहर वरिष्ठ पत्रकारों के साथ आगे-आगे चल रहीं जगिशा की तस्वीर सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बनी. लोगों ने उन्हें हिम्मती और जुझारू बताया. खुद प्रशांत ने जगिशा और युवा नेत्री पूजा शुक्ला को धन्यवाद दिया. जगिशा कहती हैं, “मुझे नहीं मालूम यह हिम्मत कहां से आयी. मेरे दिमाग में सिर्फ एक बात थी कि अपने पार्टनर को जेल से बाहर लाना है. मुझे लगता है मैंने वही किया है, जो किसी की भी पार्टनर या पत्नी करेगी.”
जगिशा को इस बात का दुख है कि उन्हें अपने परिवार का इस संकट की घड़ी में भी साथ नहीं मिल सका. चूंकि जगिशा और प्रशांत की शादी इंटर-कास्ट और अपने पसंद की हुई थी, परिवार ने जगिशा से दूरी बना ली है. जगिशा बताती हैं कि जब वे प्रशांत को जेल से लाने लखनऊ जा रही थी, उनके दिमाग में लखनऊ का पिछला अनुभव चल रहा था, “पिछली बार लखनऊ शादी के लिए आयी थी. तब भी बवाल मचा हुआ था. अब प्रशांत को लाने जा रही हूं, बवाल मचा हुआ है.”
प्रशांत के पुराने ट्वीट की भाषा और कोर्ट के आदेश पर जगिशा का मानना है कि प्रशांत की भाषा को उसकी परवरिश और जातिगत भेदभाव को झेलने के अनुभव ने रची है. “हमलोग प्रिविलेज्ड लोग रहे हैं. हमारे लिए सभ्य और शिष्ट के मायने अलग हैं. प्रशांत ने जाति के दंश को झेला है. उसके भीतर एक गुस्सा है. हमें उसकी भाषा को उसके बैकग्राउंड से अलग कर नहीं देखना चाहिए,” जगिशा ने जोड़ा. जगिशा ने यह भी कहा कि उन्होंने प्रशांत के काम में या वह किस तरह की स्टोरी करें, इसमें हस्तक्षेप नहीं किया है और न आगे करेंगी. “हां, अब मेरी चिंता दोगुनी ज़रूर रहेगी,” जगिशा ने कहा.
रूपेश से मज़ाक करती थी, “अब तुझे भी पुलिस उठा ले जायेगी”
जगिशा के संघर्ष का केंद्र दिल्ली था. प्रशांत यूनाइटेड अगेंस्ट हेट नाम के संगठन के करीब थे. भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) के पत्रकार साथियों का ग्रुप और दिल्ली में होने की वजह से सोशल कैपिटल और खुद प्रशांत की सोशल मीडिया पर अच्छी पकड़ ने उनके मुद्दे को मीडिया की नज़र में प्रमुखता से लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. लेकिन इन सब का अभाव स्वतंत्र पत्रकार रूपेश के मामले में दिखता है. यह बात ईप्सा समझती हैं.
वह यह भी मानती हैं कि रूपेश का मामला प्रशांत के मामले से ज़्यादा गंभीर है. पुलिस के आरोपों की वजह से भी लोग रूपेश की रिहाई की मांग के साथ जुड़ने से बचते दिखते हैं.
ईप्सा कहती हैं, “मैं रूपेश के करीबियों में मिथिलेश को जानती थी. मैं कभी-कभार उनसे ही फोन पर बात करती थी. आज मिथिलेश खुद भी जेल में बंद हैं.”
छोटे बच्चे को लेकर रामगढ़ से गया और बोकारो आना-जाना ईप्सा के लिए आसान नहीं है. ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क नाम की संस्था ने रूपेश के मामले में मदद की पेशकश की है. हालांकि वकीलों को सारी जानकारियां देना और कानून की भाषा समझने में उन्हें दिक्कत आती हैं.
वह बताती हैं, “रूपेश के पास कोई दफ़्तर तो था नहीं. वह आदिवासियों के लिए जो भी लिखते थे, अमूमन मुझे मालूम रहता था.” ईप्सा रूपेश के काम में हस्तक्षेप नहीं करती थी, न ही वे रूपेश को मना करती थी कि ये मत लिखो या ऐसे मत लिखो.
याद करते हुए ईप्सा बताती हैं, “जून 2017 में वह आदिवासी मजदूर मोतीलाल बास्के की हत्या की रिपोर्टिंग कर रहे थे. उन्होंने द वायर के लिए भी एक रिपोर्ट लिखी, जिसमें उसने मोतीलाल बास्के की हत्या के संदर्भ में एक आदिवासी की हत्या पर झारखंड पुलिस के जश्न मनाने पर सवाल खड़े किये थे. तब मैं उनसे मज़ाक में ही कहा करती, थोड़ा संभलकर ही रहना, कहीं पुलिस तुम्हें न उठा ले.”
ईप्सा की मज़ाक में कही गयी बात, आने वाले वक़्त में सच होने वाली थी, इसका उन्हें ज़रा भी अंदाजा नहीं था. “वह कहता था कि व्यवस्था की खामियों को उजागर करने वालों को सत्ता परेशान करती है. मुझे यह कभी नहीं लगा था कि पुलिस ऐसे आरोप लगाकर गिरफ़्तार करेगी,” ईप्सा कहती हैं.
जेल में रूपेश से मिलकर आने के बाद ईप्सा ने ही फेसबुक के ज़रिये बताया कि रूपेश की गाड़ी में पुलिस ने उनके सामने विस्फोटक रखे थे. उन्होंने सोशल मीडिया पर यह भी बताया कि पुलिस ने उनके आदिवासियों के संबंध में लिखने पर टिप्पणी की.
ईप्सा जगिशा के संपर्क में भी हैं. चूंकि जगिशा और प्रशांत को मीडिया में जगह मिली, ईप्सा को उम्मीद है कि प्रशांत और जगिशा उनके पति की गिरफ़्तारी का भी मामला प्रमुखता से उठायेंगे. बीते सोमवार को यूनाइटेड अगेंस्ट हेट की ओर से आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में ईप्सा हरतोष सिंह बल और अपूर्वानंद के साथ प्रेस क्लब में मंच साझा करती दिखी थीं. उन्हें उम्मीद है कि दिल्ली की प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद रूपेश के मामले को मीडिया में तवज्जो मिलेगी.
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