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कुली बाज़ार 6: मैं-मैं से भरी शोकसभाएं
गये शुक्रवार राजकमल प्रकाशन समूह की मार्फ़त आयोजित गिरीश कर्नाड (19 मई 1938-10 जून 2019) की शोकसभा में जाना हुआ. हिंदी में स्तरीय शोकसभाओं का अभाव संभवतः तब से ही जान पड़ता है, जब से इस भाषा में लोग मरना शुरू हुए. वैसे गिरीश कर्नाड मूलतः कन्नड़ भाषा के साहित्यकार हैं, जिनका लगभग सारा लेखन अंग्रेज़ी और हिंदी में भी उपलब्ध है. कन्नड़ और अंग्रेज़ी की तरह हिंदी में भी उनका साहित्य एक ही प्रकाशन से प्रकाशित है- राजकमल प्रकाशन समूह के सहयोगी संस्थान राधाकृष्ण प्रकाशन से.
हिंदी में शोकसभाओं की जो दुर्गति हुई है, इसे देखते हुए ही समझदार समूह, संस्थान और व्यक्ति इन्हें अब शोकसभा नहीं स्मृतिसभा पुकारते हैं, वैसे ही जैसे इलाहाबाद को प्रयागराज. लेकिन नाम बदलने से चरित्र नहीं बदलता, धूल और धूप उस पर पूर्ववत् गिरती रहती है.
हिंदी में शोकसभाएं इसके लिए विवश कर दी गयी हैं कि उनमें संस्मरण ही संस्मरण हों और मृतक को दूसरों के शब्दों में ही याद किया जाये, जबकि मृतक पर्याप्त शब्द छोड़ गया है. संस्मरण में सबसे मुश्किल होता है—‘मैं’ को साधना. इस अनुपात को इससे समझिए कि अगर एक शोकसभा में दस वक्ता हैं तो उनमें से कोई एक ही ‘मैं’ को साध पायेगा. बाक़ी के नौ यों लगेंगे जैसे मृतक की नहीं स्वयं की ही शोकसभा में खड़े हों. इनमें से कोई एक संचालन और धन्यवाद-ज्ञापन भी करेगा और कोई एक, एक न एक, ऐसी हरकत ज़रूर करेगा जो मृतक और उसकी स्मृति में आयोजित शोकसभा को ही नहीं बल्कि पूरी मानवता को शर्मसार कर दे. गिरीश कर्नाड की शोकसभा में ऐसी हरकत अरविंद गौड़ नाम के एक रंगकर्मी ने की. अरविंद के प्रवेश से पहले शोकसभागार बहुत ख़ाली-ख़ाली था, उनके आते ही वह भर गया, क्योंकि वह जहां भी जाते हैं अपने रंगसमूह के साथ जाते हैं. इस समूह के कुछ सदस्य पूरी तरह काले परिधान में होते हैं, तो कुछ ‘सिविल ड्रेस’ में. इन सदस्यों का मूल काम मंच से अपनी प्रस्तुति दे रहे अरविंद गौड़ के शब्दों पर तालियों और शोर की शक्ल में प्रतिक्रिया देना है. इस प्रकार के लोग नाटक के बाहर भी सब कुछ को नाटक में बदल देते हैं. इनका यक़ीन लोकतंत्र में नहीं नाटकतंत्र में होता है. यह दूसरों को सुनने में रुचि नहीं रखते, क्योंकि इनके नाटक का समय हो रहा होता है.
शोकसभा में तालियों को मायूब माना जाता है, इस तथ्य से अपरिचित अरविंद गौड़ इस शोकसभा के संचालक संजीव कुमार तक यह सिफ़ारिश पहुंचवाते हैं कि उनसे पहले बुलवा लिया जाये, क्योंकि उनके नाटक का समय हो रहा है. उनसे पहले बुलवा लिया जाता है. उनके बोलने में गिरीश कर्नाड का महत्व कम; उनकी अपनी योग्यता, समझ, कर्म और दूसरे संस्कृतिकर्मियों को क्या करना चाहिए, इसकी नसीहत अधिक नज़र आती है. उनका स्वर गिरीश कर्नाड कृत ‘तुग़लक़’ के मुख्य पात्र सरीखा गूंजता है. त्रिवेणी सभागार पुराना क़िला में बदल जाता है, जबकि वक्ता को श्रीराम सेंटर का बेसमेंट पसंद है. बहरहाल, इस शोकसभा को पर्याप्त मनोरंजक और अपने ही समूह-सदस्यों की मार्फ़त भरपूर तालीपूर्ण बनाने के बाद अरविंद गौड़ अपने नाटक के लिए निकल लेते हैं और उनके पीछे-पीछे उनके समूह-सदस्य भी. बाद इसके इस शोकसभा को तालियों और शोर की वैसी ही गंभीर क्षति पहुंचती है, जैसी साहित्य-संसार को गिरीश कर्नाड के न रहने से पहुंची है.
अरविंद गौड़ के अतिरिक्त इस शोकसभा में डीपी त्रिपाठी, देवेंद्र राज अंकुर, एमके रैना, त्रिपुरारी शर्मा, भारत कारनाड, अनवर जमाल, जयदेव तनेजा और अशोक माहेश्वरी ने भी मंच से गिरीश कर्नाड को श्रद्धांजलि दी. इस शोकसभा की शुरुआत गिरीश कर्नाड पर केंद्रित केएम चैतन्य निर्देशित वृत्तचित्र से हुई.
डीपी त्रिपाठी ने गिरीश कर्नाड के संग हुई अपनी कुछ मुलाक़ातों का ज़िक्र करते हुए अपने मार्क्सवादी होने और गिरीश कर्नाड की भाषा में मौजूद आभ्यंतरिक संगीत की बात की. उन्होंने माना कि इस संगीत का स्रोत प्रतिरोध है जो गिरीश कर्नाड के भीतर अंत तक अक्षुण्ण रहा.
भारत कर्नाड ने गिरीश कर्नाड को मूलतः नाटककार मानते हुए कुछ पारिवारिक संस्मरण साझा किये. वहीं देवेंद्र राज अंकुर एक संस्मरण के बहाने यह बताने में कामयाब रहे कि हिंदी भाषा पाठकों-श्रोताओं की संख्या के लिहाज़ से दूसरी भारतीय भाषाओं के मुक़ाबले एक दरिद्र भाषा है.
एमके रैना ने ख़ुद को ‘सहमत’ से संबद्ध बताते हुए ‘तुग़लक़’ से संबद्ध एक बेहद स्वीकृत तथ्य से असहमति जतायी और इस नये तथ्य को रेखांकित किया जिसकी तरफ़ कभी कोई ध्यान नहीं देता है- गिरीश कर्नाड तक नहीं. वह तथ्य यह है कि ‘तुग़लक़’ इब्राहिम अलकाज़ी ने नहीं, ओम शिवपुरी ने पहले किया था.
त्रिपुरारी शर्मा ने माना कि गिरीश कर्नाड उनकी दृष्टि में सदैव अर्थपूर्ण रहेंगे.
अनवर जमाल और जयदेव तनेजा ने क्रमशः गिरीश कर्नाड की ध्वन्यात्मकता और प्रतिरोध को रेखांकित किया. जयदेव तनेजा ने कहा कि वह कभी समझौता न करने वाले एक सत्ताविरोधी व्यक्तित्व थे. उन्होंने यह जोड़ा कि वह जाते-जाते मौजूदा सत्ता को यह कहकर झुकाकर चले गये कि उनकी मृत्यु के बाद उनका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ न हो.
अंत में संजीव कुमार के द्वारा पढ़े गये दो शोक-संदेशों के साथ इस शोकसभा का समापन हुआ. इनमें से एक नटरंग प्रतिष्ठान का था और दूसरा नवसभा सांस्कृतिक मंच का.
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