Newslaundry Hindi
फ़िलीस्तीन से नाता तोड़ने का संकेत
संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक एवं सामाजिक परिषद में इज़रायल के पक्ष में भारत का मतदान करना एक असाधारण घटना है. फ़िलीस्तीन के एक मानवाधिकार संगठन ‘शहीद’ ने इस विश्व संस्था में बतौर पर्यवेक्षक शामिल होने के लिए निवेदन किया था. इज़रायल का आरोप है कि यह संगठन हमास से जुड़ा हुआ है तथा इसके संबंध लेबनॉन के हिज़्बुल्लाह और फ़िलीस्तीनी इस्लामिक जिहाद से भी हैं. ‘शहीद’ के निवेदन को रद्द करने के लिए आर्थिक एवं सामाजिक परिषद में इज़रायल पहली बार प्रस्ताव लेकर आया था.
फ़िलीस्तीन के ख़िलाफ़ और इज़रायल के पक्ष में भारत ने भी पहली बार मतदान किया है. इससे पहले या तो वह फ़िलीस्तीन के पक्ष में खड़ा होता था या मतदान में हिस्सा नहीं लेता था. ठीक एक साल पहले जून के महीने में ही संयुक्त राष्ट्र महासभा में इज़रायली सेना द्वारा फ़िलीस्तीनियों पर, ख़ासकर ग़ाज़ा में, बहुत ज़्यादा ताक़त के इस्तेमाल की भर्त्सना करने के प्रस्ताव के समर्थन में भारत ने वोट डाला था. इसके तुरंत बाद अमेरिका-समर्थित एक प्रस्ताव पर भारत ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया था. उसमें हमास के हिंसा की भी निंदा करने की बात कही गयी थी. दिसंबर, 2017 में सुरक्षा परिषद की अवहेलना करते हुए अमेरिकी दूतावास को जेरूसलम ले जाने के राष्ट्रपति ट्रंप के फ़ैसले के ख़िलाफ़ भी भारत ने मतदान किया था. पिछले साल मई में दूतावास लाने का जो समारोह हुआ था, उसमें भी भारत ने हिस्सा नहीं लिया था.
साल भर बाद ही आख़िर भारत के रवैये में 180 डिग्री बदलाव कैसे हो गया- इस सवाल पर विचार किया जाना चाहिए. साल 2009 में इज़रायली विदेश मंत्रालय ने 13 देशों में इज़रायल के प्रति सहानुभूति के स्तर का पता करने के लिए एक सर्वे कराया था, जिसमें भारत के अलावा अमेरिका, चीन, रूस, ब्रिटेन, कनाडा और फ़्रांस जैसे देश थे. इन सभी देशों में सबसे ज़्यादा भारत में इज़रायल के लिए सहानुभूति पायी गयी, जो कि 58 फ़ीसदी थी. इस सहानुभूति की एक पृष्ठभूमि है. हिंदुत्व की वैचारिकी का इज़रायल से लगाव उन्नीसवीं सदी के शुरू से ही शुरू हो जाता है, जब यह देश अस्तित्व में भी नहीं आया था. इस पर बात करने से पहले यह रेखांकित करना ज़रूरी है कि फ़िलीस्तीन को नज़रअन्दाज़ कर इज़रायल के साथ अनैतिक निकटता में हथियारों की ख़रीद-बिक्री का बहुत बड़ा हाथ है.
नरसिंहा राव सरकार के दौर में 1992 में दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंध स्थापित होने के बाद से जिस क्षेत्र में सबसे अधिक परस्पर सहयोग बढ़ा है, वह है हथियार ख़रीदने-बेचने का कारोबार. साल 2018 में दुनिया में भारत ने सर्वाधिक हथियारों का आयात किया था. रूस के बाद इज़रायल से ही हथियारों की सबसे ज़्यादा ख़रीद होती है. इज़रायल अपने हथियार उत्पादन का लगभग 50 फ़ीसदी भारत को बेचता है. दुनिया भर में हथियारों की ख़रीद-बिक्री कैसे राजनीति और कूटनीति पर असर डालती है तथा किस तरह के भ्रष्टाचार का माहौल बनाती है, यह कोई छुपी हुई बात नहीं है.
इस संदर्भ में एक घटना का उल्लेख करना पर्याप्त होगा- इज़रायल से बराक मिसाइल सिस्टम ख़रीद घोटाला. इस मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो द्वारा दायर मामले के मुताबिक 1995 में इस सिस्टम की ख़रीद की प्रक्रिया शुरू हुई थी. इस पर अंतिम मंज़ूरी वाजपेयी सरकार के समय तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नांडिस ने 1999 में दी थी. ऐसा करते हुए रक्षामंत्री के तत्कालीन वैज्ञानिक सलाहकार एपीजे अब्दुल कलाम के एतराज़ को भी किनारे रख दिया गया. उल्लेखनीय है कि कलाम पूर्ववर्ती रक्षामंत्री मुलायम सिंह यादव के भी सलाहकार थे. यह भी संयोग की ही बात है कि जब वे देश के राष्ट्रपति थे, तब इस ख़रीद में घोटाले का मामला दायर हुआ था. ख़ैर, 2000 में सात बराक सिस्टमों और 200 राफ़ायल मिसाइलों की ख़रीद के दस्तावेज़ों पर दस्तख़त कर दिए गए. यह राफ़ायल इज़रायल की कंपनी है और फ़्रांस के विवादित लड़ाकू विमान ब्रांड से इसका कोई लेना-देना नहीं. इस पर ज़्यादा लिखने का कोई मतलब नहीं है है. तहलका टेप्स और रिपोर्ट में तथा जांच और अदालती कार्रवाई में क़रीब 15 साल पहले बहुत कहा, सुना, लिखा और पढ़ा जा चुका है. बराक प्रकरण के बावजूद इज़रायल से हथियारों की ख़रीद बढ़ती ही गयी.
हथियार बाज़ार का एक पहलू रक्षा उद्योग में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से जुड़ा हुआ है. पिछले कुछ सालों में निजी क्षेत्र के बड़े नाम इस क्षेत्र में आए हैं और वे अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों के सहयोगी बनकर अपने उत्पादों को सेना को बेचने में लगे हुए हैं. रक्षा क्षेत्र से जुड़े या सेवानिवृत हो चुके लोग इज़रायल और कुछ अन्य देशों से ख़रीद के पक्ष में जनमत बनाने में लगातार लगे हुए हैं. कारपोरेट और मीडिया का एक हिस्सा तो इस काम में लगा ही हुआ है.
इज़रायल से बढ़ती निकटता का सबसे ठोस आधार हिंदुत्व की विचारधारा है. क़रीब सौ साल पहले विनायक दामोदर सावरकर कह चुके थे कि फ़िलीस्तीन में यहूदी राष्ट्र का ज़ायनिस्टों का सपना अगर पूरा होता है, तो उन्हें भी उनके यहूदी बंधुओं की तरह ख़ुशी होगी. संयुक्त राष्ट्र महासभा में 1947 में फ़िलीस्तीन में अरब और यहूदी समुदाय के लिए द्विराष्ट्रीयता का देश बनाने के पक्ष में भारत ने दलील दी, तो सावरकर क्षुब्ध हो गए थे. माधव सदाशिव गोलवलकर भी पहले लिख चुके थे कि अपनी नस्ल, अपने धर्म, अपनी संस्कृति और अपनी भाषा को सहेजकर रखे हुए यहूदियों को बस एक स्थान की चाहत है, जहां वे अपनी राष्ट्रीयता को पूरा कर सकें. लंदन स्कूल ऑफ़ इकनॉमिक्स के प्रोफ़ेसर सुमंत्रा बोस की पिछले साल छपी किताब ‘सेक्यूलर स्टेट्स, रिलीजियस पॉलिटिक्स: इंडिया, टर्की एंड फ़्यूचर ऑफ़ सेक्यूलरिज़्म’ में इस बाबत विस्तार से विश्लेषण है.
सोशल मीडिया से लेकर सार्वजनिक जीवन में हिंदुत्व की राजनीति से जुड़े लोगों में इज़रायल को लेकर आकर्षण को आसानी से देखा जा सकता है. यह भी देखा जा सकता है कि उनके मन में भारत को इज़रायल की तरह गढ़ने की एक अधपकी फ़ंतासी भी पलती रहती है.
इस मसले में प्रधानमंत्री मोदी और विदेश मंत्री एस जयशंकर की सोच की जुगलबंदी भी एक कारक है. जयशंकर हमेशा से अमेरिका से क़रीबी के हामी रहे हैं. इसका एक उदाहरण मनमोहन सिंह सरकार के दौरान हुआ भारत-अमेरिकी परमाणु क़रार है, जिसमें पूरा फ़ायदा अमेरिका ही उठा ले गया. प्रधानमंत्री की भी सोच यही है कि अमेरिका से गहरे रिश्तों के बिना भारत असरदार भूमिका नहीं निभा सकता है. कूटनीति विशेषज्ञ भरत कर्नाड ने एक लेख में इन बातों पर ज़ोर देते हुए कहा है कि भले ही सरकार कोई और चुनावी वादा पूरा न कर सके, परंतु यह जोड़ी भारत को अमेरिका का ‘संगी’ बनाने के अपने इरादे को ज़रूरी हासिल करेगी. इस संबंध में चीन के आयाम को ध्यान में रखने की ज़रूरत है. कर्नाड लिखते हैं कि संभवतः प्रधानमंत्री चीन के मामले में जयशंकर के उस विचार से भी प्रभावित हैं कि मतभेदों को विवाद का रूप नहीं दिया जाना चाहिए. जबकि, सच यह है कि हर मामले में चीन भारत का प्रतिद्वंद्वी है.
यह बड़ा अजीब लगता है कि हमारी सरकार और मीडिया अक्सर चीन को चुनौती के तौर पर पेश तो करते रहते हैं, लेकिन उस चुनौती का सामना करने के लिए कोई तैयारी कहीं नहीं दिखती. इसका एक उदाहरण दोनों देशों के बीच व्यापार संतुलन का पलड़ा लगातार चीन की तरफ़ झुकते जाना है.
निष्कर्ष के तौर पर, कम-से-कम अभी की स्थिति में, कहा जा सकता है कि भले ही राष्ट्रीय हितों, सामरिक आवश्यकताओं तथा भारत को विकास की राह पर बढ़ाने की बातें कहीं जा रही हों, पर इज़रायल के पक्ष में मतदान कर भारत ने यह संकेत दे दिया है कि वर्तमान सरकार अपनी राजनीतिक विचारधारा के रास्ते पर चलने को प्राथमिकता देगी.
चूंकि संयुक्त राष्ट्र में यह मत एक फ़िलीस्तीनी मानवाधिकार संगठन की भागीदारी के विरुद्ध दिया गया है, तो इज़रायल द्वारा मानवाधिकार हनन के बारे में कुछ तथ्यों को देखना प्रासंगिक होगा. ह्यूमन राइट्स वाच के अनुसार, 2018 में 30 मार्च और 19 नवंबर के बीच इज़रायली सुरक्षा बलों ने ग़ाज़ा में 189 फ़िलीस्तीनियों की हत्या की है. इसमें 31 बच्चे और तीन चिकित्साकर्मी थे. घायलों की तादाद 58 सौ से अधिक रही थी. फ़िलीस्तीन के केंद्रीय सांख्यिकी ब्यूरो के अनुसार, ग़ाज़ा में पिछले साल की तीसरी तिमाही में बेरोज़गारी की दर 55 फ़ीसदी थी. वहां की क़रीब 20 लाख की आबादी में 80 फ़ीसदी हिस्सा मानवीय सहायता पर निर्भर है. अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों और समझौतों को ठेंगा दिखाते हुए इज़रायल वेस्ट बैंक में हज़ारों नए घर बना रहा है. इसी के साथ फ़िलीस्तीनियों के सैकड़ों घर उजाड़े गए हैं. यह सिर्फ़ बीते दो साल का हिसाब है.
पूर्वी जेरूसलम में तथा वेस्ट बैंक के 60 फ़ीसदी हिस्से में घर बनाने की मंज़ूरी पाना तक़रीबन नामुमकिन है. ग़ाज़ा को चारों तरफ़ से घेरेबंदी में रखा गया है. वह हिस्सा एक भयावह जेल बना दिया गया है. वर्ष 2014 में ग़ाज़ा में इज़रायली सेना की कार्रवाई में अपना घर खो चुके 17,700 फ़िलीस्तीनी अभी तक विस्थापित हैं. घर बनाने के सामान पर कड़ी पाबंदी है. इसी के साथ पानी, बिजली और दवाओं की आपूर्ति भी बहुत कम है. वेस्ट बैंक और पूर्वी जेरूसलम में भी बड़ी संख्या में लोग मारे गए हैं और घायल हुए हैं. इन क्षेत्रों में अवैध रूप से सवा छह लाख से अधिक इज़रायली बसाए गए हैं, तमाम सुविधाओं के साथ. इनकी देखभाल इज़रायल करता है. सैकड़ों बच्चों समेत हज़ारों फ़िलीस्तीनी इज़रायली क़ैद में हैं. इसी बीच इज़रायल को आधिकारिक रूप से यहूदी राज्य भी घोषित कर दिया गया है.
आज फ़िलीस्तीनी अधिकारों का सवाल अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए एक नैतिक प्रश्न है. डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति निर्वाचित होने के बाद पूर्व राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखा था कि द्वि-राज्य सिद्धांत के तहत इज़रायल और फ़िलीस्तीन के शांति से रहने के लक्ष्य की ओर बढ़ने का प्रयास किया जाना चाहिए. उन्होंने सलाह दी थी कि इज़रायल अपने ऊपर और फ़िलीस्तीनीयों पर एक राज्य की व्यवस्था को थोप रहा है, जिसे रोकने के लिए फ़िलीस्तीन को मान्यता दी जानी चाहिए तथा सुरक्षा परिषद में एक नया प्रस्ताव पारित किया जाना चाहिए.
पूर्व राष्ट्रपति कार्टर की बात इसलिए सुनी जानी चाहिए कि विश्व शांति के मजबूत पैरोकार होने के साथ उनकी उपलब्धियों में बतौर राष्ट्रपति अरबों और इज़रायलियों में शांति समझौता कराना भी शामिल है. अगर हमारी सरकार पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति की बात नहीं सुने या पूर्व प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की नीतियों पर ध्यान न भी दे, तो कम-से-कम महात्मा गांधी के नवंबर, 1938 के उस लेख को एक बार तो पढ़ ही ले, जो उन्होंने ‘हरिजन’ में लिखा था.
Also Read
-
TV Newsance 253: A meeting with News18’s Bhaiyaji, News24’s Rajeev Ranjan in Lucknow
-
Uttarakhand: Forests across 1,500 hectares burned in a year. Were fire lines drawn to prevent it?
-
Know Your Turncoats, Part 15: NDA has 53% defectors in phase 5; 2 in Shinde camp after ED whip
-
Grand rallies at Mumbai: What are Mahayuti and MVA supporters saying?
-
Reporters Without Orders Ep 322: Bansuri Swaraj’s debut, Sambhal violence