Newslaundry Hindi
ये पहला मौका नहीं है जब हिंदी को गैर हिंदी भाषियों पर थोपे जाने की बात उठी है
नरेंद्र मोदी का दूसरा कार्यकाल शुरू ही हुआ है कि देश के कई ग़ैर हिंदी भाषी राज्यों का कहना है कि उन पर हिंदी थोपी जा रही है. दरअसल, बात ये है कि नयी शिक्षा नीति के तहत 3 भाषाओं के फ़ॉर्मूले को आगे बढ़ाया जा रहा है. इसके तहत ग़ैर हिंदी भाषी राज्यों में बच्चों को अब हिंदी सीखना अनिवार्य होगा. हिंदी को अन्य भाषाओं पर तरजीह देने पर मचे बवाल का भी एक दिलचस्प इतिहास है.
सबसे पहला हिंदी बनाम उर्दू संघर्ष
उन्नीसवीं शताब्दी में हिंदी और उर्दू के बीच राजकाज की भाषा बनने की जंग छिड़ी थी. तब एक तरफ़ कई हिंदीदां, जैसे भारतेंदु हरिश्चंद्र, मदनमोहन मालवीय थे. तो दूसरी तरफ़, उर्दू के पैरोकारों में सैयद अहमद खान सबसे आगे थे.
दोनों गुटों ने भाषाओं को धर्म से जोड़कर सबसे पहली ग़लती की, और अपनी भाषा को श्रेष्ठ बताते हुए एक दूसरे पर हल्की बयानबाज़ी की. उर्दू वालों ने हिंदी को गंवारों की भाषा कहा, तो हिंदी वालों ने उर्दू को कोठे की ज़बान कहा. वहीं कुछ ऐसे भी थे जो ये मानते थे कि हिंदी और उर्दू एक दूसरे के पेट से ही जन्मी हैं. इस पहली लड़ाई में हिंदी जीती, पर उसने देश में सबसे प्रचलित लिपि कैथी को भी ख़त्म कर दिया.
आज़ादी के बाद
तक़सीम के बाद ग़ैरआधिकारिक रूप से हिंदी यहां की भाषा मानी गयी और आधिकारिक तौर पर पाकिस्तान में उर्दू को ये दर्जा मिला. इधर गैर हिंदी भाषियों को बड़ी दिक्कत हुई, तो वहीं पाकिस्तान के कुछ प्रांत जहां उर्दू नहीं बोली जाती थी, उनके निवासियों पर उर्दू थोप दी गयी. इन सबके बीच गांधी का नज़रिया सबसे मुकम्मल कहा जा सकता है, वो मानते थे सीखने के हिसाब से मातृभाषा से बेहतर कोई माध्यम नहीं हो सकता.
संविधान बनने के बाद
1949 में संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ और साथ ही 15 साल के लिए अंग्रेज़ी को राजकाज की भाषा बने रहने की बात भी मंज़ूर की गयी. अब चूंकि हिंदुस्तान में प्रांतीयता अपने चरम पर है, इसी प्रकार यहां कई भाषाएं और बोलियां हैं और उनमें से कईयों का आधार हिंदी नहीं है, तो ज़ाहिर था कि इस पर विवाद होना ही था.
सबसे ज़्यादा बवाल उत्तर और दक्षिण में उठा. साल 1956 में दक्षिण भारत के राजनेताओं ने अंग्रेज़ी को सरकारी भाषा और राज्य तथा केंद्र के बीच संवाद का माध्यम बने रहने के लिए रेसोल्यूशन पास करते हुए ग़ज़ब की एकजुटता दिखायी. दस्तख़त करने वालों में सी अन्नादुरई, रामास्वामी पेरियार और राजागोपालाचारी जी जैसे विद्वान शामिल थे.
राजाजी वही व्यक्ति थे जिन्होंने पहले हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की मुहिम में कांग्रेस का साथ दिया था. उन्होंने तो, दक्षिण के लोगों के विपरीत जाकर, हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने में नेहरू का साथ दिया था. साल 1937 में जब राजाजी मद्रास प्रेसिडेंसी के अध्यक्ष थे, तब उन्होंने कई सारे दक्षिण के स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य किया. उन पर लिखी गयी जीवनी में राममोहन गांधी बताते हैं कि राजाजी हिंदी को केले के पत्ते पर चटनी के माफ़िक मानते थे- चखो या छोड़ दो, कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ेगा. पर अब उनके विचार बदल गये थे.
अन्नादुरई सबसे मुखर थे. उनकी नज़र में हिंदी सिर्फ़ किसी स्थानीय भाषा से ज़्यादा कुछ नहीं थी और अन्य भाषाओं से कम विकसित भी थी. जब उनसे कहा गया कि हिंदी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है, तो उन्होंने तुरंत कहा कि फिर कौवे को राष्ट्रीय पक्षी बना देना चाहिए क्योंकि वो मोर से ज़्यादा संख्या में है.
जवाहरलाल नेहरू इस मामले पर अलग राय रखते थे. 1963 में उनकी सरपरस्ती में ऑफिशियल लैंग्वेज एक्ट पारित हुआ, जिसके तहत 1965 के बाद हिंदी के अलावा अंग्रेज़ी राजकाज की भाषा रह सकती है, इस केंदीय बिंदु को उठाया गया. पर हिन्दीदां नहीं माने. उनकी नज़र में हिंदी का विरोध करने वाले देशद्रोही थे.
26 जनवरी 1965 को 15 साल पूरे हो रहे थे. यानी संविधान के तहत हिंदी को अब अन्य भाषाओं के ऊपर का दर्ज़ा दिया जाना था. पर उससे कुछ ही दिन पहले दक्षिण में आंदोलन खड़े हो गये. सबसे ज़्यादा उग्रता तमिलनाडु में देखी गयी. यहां कई लोगों ने आत्मदाह किया, हड़तालें कीं और राष्ट्रीय संपत्ति को नुकसान पहुंचाया. कई सरकारी कर्मचारियों ने तो छुट्टी लेकर हिंदी के विरोध में उठे आंदोलनों में हिस्सा लिया.
दक्षिण में विरोध
गणतंत्र दिवस के दिन मद्रास (चेन्नई) में दो लोगों ने आग लगाकर आत्मदाह कर लिया. कुछ दिनों बाद एक व्यक्ति ने ज़हर खा लिया. डीएमके पार्टी ने कई प्रांतों में हिंदी का विरोध करते हुए संविधान के उन पन्नों को जलाया, जिनमें हिंदी को राष्ट्रभाषा के दर्जे का ज़िक्र था. रेलवे स्टेशन और बस अड्डों पर हिंदी के साइनपोस्ट हटा दिये और कई जगहों पर पुलिस और छात्रों के बीच गुत्थमगुत्था हुई और कई पुलिस स्टेशन तक जला दिये गये.
कुल मिलाकर, यह सबकुछ इसी तरह हो रहा था जैसे 1952 में पोट्टी श्रीरामुलु ने तेलगु भाषा के आधार पर आंध्रप्रदेश बनाने की मांग पर 50 दिन की भूख हड़ताल कर अपनी जान दे दी थी.
शास्त्री का पशोपेश
भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन नेहरू के लिए सिरदर्द बना था. दोबारा वही हाल होता, लेकिन 1964 में नेहरू नहीं रहे और लाल बहादुर शास्त्री अगले प्रधानमंत्री बने. ये उनके सामने सबसे पहला ज्वलंत मुद्दा था और समस्या इस बात की भी थी कि कांग्रेस के भीतर इस बात को लेकर एक राय नहीं थी. यहां ये कहना ज़रूरी है कि चाहे नेहरू अपने काल में सर्वेसर्वा थे, पर कांग्रेस पार्टी के भीतर नेताओं को अपनी राय देने की पूरी आज़ादी थी. मिसाल के तौर पर आज़ादी के बाद जब नेहरू औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देना चाहते थे, स्थानीय नेताओं ने कृषि की अनदेखी न करने की बात उठायी थी, जिसे नेहरू ने दरकिनार नहीं किया.
ठीक इसी प्रकार, इस मुद्दे पर भी कई राय थी. कांग्रेस नेता निजलिंगप्पा मैसूर (अब कर्नाटक) के मुख्यमंत्री और बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष अमूल्य घोष, कामराज और अन्य ने हिंदी को पूरे भारत में न थोपने की गुहार लगायी.
वहीं, मोरारजी देसाई ने असंतुष्ट नेताओं को समझाया कि उनका विरोध ग़लत है और अगर तमिल भाषी हिंदी सीखते हैं तो इससे देश में उनका वर्चस्व बढ़ेगा जो उनके फ़ायदे की बात होगी. उन्होंने कहा कि हिंदी भाषा देश को जोड़ने का काम कर सकती है जो अंग्रेज़ी या अन्य भाषा के लिए संभव नहीं होगा.
तो हम देखते हैं कि शास्त्री के सामने बहुत बड़ा प्रश्न था. 26 जनवरी, 1965 को अधिकारिक रूप से हिंदी को सबसे ऊंचा दर्जा प्राप्त हो गया. पर बात बनने से ज़्यादा तब बिगड़ गयी, जब कांग्रेस मंत्रिमंडल के दो मंत्रियों ने विरोध स्वरूप इस्तीफ़े दे दिये. इसके बाद, ऑल इंडिया रेडियो के ज़रिये उन्होंने देश के समक्ष 4 बातें रखीं, जो बेहद महत्वपूर्ण थीं.
पहली, हर राज्य को अपनी भाषा में संवाद और कामकाज करने का अधिकार रहेगा, फिर चाहे अंग्रेज़ी ही क्यों न हो. दूसरा, दो राज्यों के बीच अंग्रेज़ी के माध्यम से संवाद किया जा सकता है. तीसरा, ग़ैर हिंदीभाषी राज्य केंद्र के साथ अंग्रेज़ी में संवाद कर सकते हैं, और चौथा केंद्र के स्तर पर व्यापार का लेन-देन अंग्रेज़ी में संभव है. बाद में उन्होंने ये भी जोड़ा कि अखिल भारतीय सिविल सेवा परीक्षा अंग्रेज़ी में ही की जायेगी. कहा जा सकता है कि शास्त्री के ज़ेहन में देश की एकता के साथ-साथ पार्टी की एकता ख़त्म होने का ख़तरा रहा हो, इसलिए उन्होंने मिला-जुला निर्णय लिया.
इन सब बातों के अलावा एक बात जो देश की न्यायिक व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह बनी, वो था मद्रास की एक कोर्ट का उन सरकारी कर्मचारियों के लिए पेंशन व्यवस्था लागू करने का निर्णय, जिन्होंने हिंदी के विरोध में हिंसक आंदोलनों में हिस्सा लिया था. सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय को ख़ारिज करते हुए उन्हें किसी भी सुविधा से वंचित रख न्याय धर्म का पालन किया.
राजागोपालाचारी का सेंस ऑफ़ ह्यूमर
उनकी विद्वता और सेन्स ऑफ़ ह्यूमर का कोई सानी नहीं था. 1950 के दशक में जब भाषा के आधार पर आंदोलन हो रहे थे और बाद में जब हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने को लेकर जद्दोजहद, तब किसी पत्रकार ने उनसे नार्थ-साउथ डिवाइड के बारे में पूछ लिया. वो तपाक से बोले कि ये सारी ग़लती भौगोलिकारों की है जिन्होंने उत्तर को दक्षिण के ऊपर रख दिया है. इसको उल्टा कर दीजिये सब ठीक हो जायेगा.
ख़ैर ये तो मज़ाक है. हक़ीक़त ये है कि नार्थ-साउथ डिवाइड एक हक़ीक़त है और कई मुद्दों पर टकराव हुए हैं. जहां तक भाषा का सवाल है, ये भावनाओं और संस्कारों से जुड़ा मुद्दा भी है. और इसलिए तार्किक आधार पर एकतरफ़ा निर्णय नहीं लिया जा सकता. पर क्या संस्कारों और राष्ट्रीयता से ओतप्रोत ये सरकार कोई तार्किक निर्णय ले पायेगी? ये तो वक़्त ही बतायेगा.
Also Read
-
Two years on, ‘peace’ in Gaza is at the price of dignity and freedom
-
4 ml of poison, four times a day: Inside the Coldrif tragedy that claimed 17 children
-
Delhi shut its thermal plants, but chokes from neighbouring ones
-
Hafta x South Central feat. Josy Joseph: A crossover episode on the future of media
-
Encroachment menace in Bengaluru locality leaves pavements unusable for pedestrians