Newslaundry Hindi
अलीगढ़ कांड : बच्चों की नहीं धर्म की चिंता
अलीगढ़ के टप्पल तहसील में ढाई साल की बच्ची की जघन्य हत्या की ख़बर पहले सोशल मीडिया और फिर दूसरे समाचार माध्यमों से देश भर में फैल गयी. बच्चों के बलात्कार और हत्या के रूटीन होते जाने के इस दौर में इस घटना में एक सनसनीखेज़ एंगल था – हत्यारे मुस्लिम और शिकार हिन्दू. तो व्हॉट्सएप के संदेशों ने इसे पुलिस के बयान से पहले ही बलात्कार भी बना डाला. यह लेख लिखे जाने तक पुलिस का आधिकारिक बयान यही था कि हत्या गला दबाकर की गयी है और मामला पैसों के चलते आपसी रंजिश का है. पारिवारिक रंजिश या किसी भी वजह से एक मासूम बच्ची की हत्या अपने आप में इतना वीभत्स है कि इसे रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर घटना मानकर सज़ा दी जानी चाहिए और इसकी भरपूर मजम्मत भी होनी चाहिए, लेकिन सनसनी के इस दौर में इसमें इतना कुछ जोड़ा जाना हमारे समय की नफ़रत इंडस्ट्री का एक भयानक योगदान है.
देखें तो 30 मई को बच्ची ग़ायब हुई और रिपोर्ट अगले दिन लिखी गयी. इसके बाद भी दो दिनों तक पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही और 2 जून को जब एक महिला को लाश मिली तब पुलिस हरक़त में आयी. लाश को स्थानीय लोगों ने जब देखा तो कुत्ते उसे क्षत-विक्षत कर चुके थे. ऐसे में पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में हत्यारों का ही नहीं जानवरों का कृत्य भी अपने आप शामिल हो जाता है. लाश मिलने के बाद ही बच्ची के परिवारजनों की शिक़ायत के अनुसार दो लोगों को गिरफ़्तार किया गया.
सवाल तो पूछा ही जायेगा कि परिवारजनों से सूचना लेकर संदिग्धों को तुरंत गिरफ़्तार क्यों नहीं किया गया, जबकि उनमें से एक आदतन अपराधी है और बच्चों से यौन हिंसा के मामले में उस पर केस दर्ज़ हैं. कौन जाने त्वरित कार्यवाही से बच्ची को बचाया जा सकता था या कम से कम उसकी देह के साथ यह दुर्गत न हुई होती. हालांकि, चार पुलिसकर्मियों को लापरवाही के चलते निलंबित किया गया है लेकिन अब इससे क्या फ़र्क पड़ना है! यही नहीं, जब दबाव पड़ा तो अलीगढ़ पुलिस के ऑफिशियल हैंडल से बच्ची की पहचान भी उजागर कर दी गयी. यह लेख लिखे जाने तक वह पोस्ट हटायी नहीं गयी है और नतीज़ा यह कि उसका नाम पूरी सोशल मीडिया पर तैर रहा है. पुलिस ने खुद यह कहा है कि बलात्कार की पुष्टि नहीं हुई लेकिन आशंका है और फोरेंसिक जांच के बाद ही स्पष्ट होगा. ऐसे में यह सावधानी रखी जानी चाहिए थी. आसिफ़ा बलात्कार व हत्याकांड में माननीय उच्चतम न्यायालय की कार्यवाही के बावजूद यह लापरवाही पुलिस के रवैये का परिचय कराती है.
आरोपियों पर नेशनल सिक्योरिटी एक्ट लगाना भी समझ से बाहर है. हत्या के मामले में 302 का केस है. बच्चों से यौन हिंसा के लिए पॉस्को जैसा मज़बूत क़ानून है लेकिन इस मामले में एनएसए लगाना एक ऐसी कार्यवाही है जिसकी मीडिया वैल्यू चाहे जितनी हो, लेकिन अदालत में इस केस के संदर्भ में कोई वैल्यू होगी, यह कह पाना मुश्किल है.
असल में सच तो शायद यही है कि हम एक बीमार और हिंसक समाज बनते जा रहे हैं, जहां बच्चों के प्रति हिंसा के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं. आंकड़ों की बात करें तो साल 2001 से 2016 के बीच बच्चों के विरुद्ध अपराध के जो मामले दर्ज़ हुए, ध्यान दें- जो मामले दर्ज़ हुए, उनमें 889% की वृद्धि हुई. साल 2001 में 10,814 मामले दर्ज़ हुए. इनकी संख्या 16 साल में बढ़कर 595,089 हो गयी. इसी दौर में बच्चों के विरुद्ध अपराध के लंबित मामलों की संख्या 21,233 थी, जो 2016 में 11 गुना बढ़कर 227,739 हो गयी. केवल उत्तर प्रदेश की बात करें, तो नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की 2017 में आयी रिपोर्ट के अनुसार 2015 से 2016 के बीच बच्चों के साथ बलात्कार की घटनाओं में 400 प्रतिशत का इज़ाफा हुआ. इसी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2016 में रोज़ 106 बलात्कारों के मामले दर्ज़ किये गये.
बच्चों के अपहरण और हत्या के मामलों में भी इस दौर में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है. इस परिघटना के ख़िलाफ़ कोई व्यापक जनमत बनने, सामाजिक आंदोलन उभरने या शासकीय स्तर पर किसी बड़ी पहलक़दमी की जगह ऐसे अपराध अब रूटीन में शामिल होते जा रहे हैं और यह ‘न्यू नार्मल’ हमारी संवेदनाओं को एकदम नहीं झकझोरता. इसका एक उदाहरण उत्तर प्रदेश सरकार के वरिष्ठ मंत्री सूर्य प्रकाश शाही का वह बयान है जिसमें उन्होंने इसे छोटी-मोटी घटना बताया. ऐसे बयान पहले भी आते ही रहे हैं. किसी भी दिन का अखबार उठाकर देख लीजिये, ऐसी घटनाएं एक-दो कॉलम में दबी हुई मिल जाती हैं, चर्चा तब होती है जब उसमें धर्म या कोई और एंगल जुड़ जाये. अलीगढ़ की घटना पर भी चर्चा इसीलिए ज़ोरों पर है.
लेकिन सबसे भयानक बात यह है कि न तो इनके लिए सरकारों को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है न ही निर्भया कांड के बाद इन घटनाओं को लेकर कोई बड़ी सामाजिक पहलक़दमी दिखायी दे रही है. एनसीआरबी का यह डाटा चंद सेमिनारों के अलावा कहीं कोई मुद्दा नहीं है. हाल ही में हुए चुनावों में इसको लेकर कोई सवाल नहीं पूछे गये. बच्चों के प्रति यह नृशंसता हमारे मध्यमवर्ग की संवेदना से बाहर है, कम से कम तब तक जब तक इसकी आग अपने घरों के आसपास न पहुंचे.
अलीगढ़ की इस घटना की बात करें तो होना यह चाहिए था कि विपक्ष, नागरिक समाज, लेखक, पत्रकार, आम जन सब मिलकर सरकार को घेरें. मीडिया क़ानून व्यवस्था पर सवाल उठाये. ज़बरदस्त दबाव बने कि ऐसी घटना होने से पहले रोकी जा सके भविष्य में. सरकार पर, प्रशासन पर दबाव बने. यह मुद्दा इतना बड़ा बने कि सरकार मज़बूर हो जाये क़दम उठाने को. पुलिस महकमा चौकन्ना हो जाये और कुछ मासूमों की जान बचायी जा सके. लेकिन हो क्या रहा है? इसे हिंदू-मुस्लिम मुद्दा बना दिया गया है. सोशल मीडिया पर सेकुलर कहे जाने वाले लोगों को ट्रोल किया जा रहा, मानो क़ानून व्यवस्था और न्याय उनके ही हाथ में है. मुस्लिमों से सवाल पूछे जा रहे हैं. हर व्यक्ति से सवाल पूछे जा रहे हैं सिवा उस सरकार से जिसकी जिम्मेदारी है क़ानून व्यवस्था.
हालत यह कि ताने दिये जा रहे हैं कि कठुआ के समय सक्रिय लोग अब चुप क्यों हैं! यह समझना मुश्किल नहीं कि कठुआ की घटना के समय आरोपियों के समर्थन में तिरंगा यात्रा निकाली गयी थी, जम्मू के वकीलों ने केस दर्ज़ होने में बाधा उत्पन्न की थी, जम्मू की सिविल सोसायटी का एक हिस्सा हत्यारों के समर्थन में सड़क पर उतर गया था, सोशल मीडिया ऐसे वीडियोज़ और बयानों से भर गया था जिनमें सिद्ध किया जा रहा था कि आरोपी निर्दोष हैं और हिंदी का एक बड़ा अखबार ख़बर चला रहा था कि “कठुआ में बलात्कार की कोई घटना नहीं हुई.” ज़ाहिर है जब आरोपियों को बचाने की ऐसी कोशिश हो रही थी तो हर ज़िम्मेदार नागरिक का यह फ़र्ज़ था कि पीड़िता के पक्ष में खड़ा होता. अलीगढ़ में तो परिवार की शिक़ायत पर गिरफ़्तार हत्यारों के समर्थन में कोई नहीं आया. यह लेख लिखे जाने तक तो उनके पक्ष में किसी जुलूस का कोई समाचार नहीं, न ही कोई संभावना दिख रही है. फिर दोनों मामलों को एक कैसे कहा जा सकता है?
सीधा मामला यह है कि हिंदुत्व का पागलपन और मुसलमानों से नफ़रत को उस स्तर पर ले जाया गया है जहां ऐसे सवाल पूछने वालों के मन में न तो पीड़िता के लिए कोई संवेदना है, न ही इस तथ्य की कोई चिंता कि हमारा समाज बच्चों के लिए किस क़दर असुरक्षित होता जा रहा है. यही वजह है कि ये घटनाएं इतनी आम होती जा रही हैं. कल ही अहमदाबाद से ख़बर आयी कि बीस दिन की एक बच्ची की दो गुंडों ने हत्या कर दी और आज बेगूसराय से ख़बर आयी कि पांच साल की बच्ची का क्षत-विक्षत शरीर एक बोरी में मिला है.
हिंदू-मुसलमान की बायनरी में बांट कर इन घटनाओं को देखना असल में सरकारों को उनके दायित्व से मुक्त कर अपने ही पड़ोसियों को कटघरे में खड़ा करना है. इस पूरे खेल में यह सवाल आसानी से अनुत्तरित छोड़ दिया जाता है कि बच्चों के ख़िलाफ़ ऐसे अपराधों को रोके जाने के लिए कैसी पहलक़दमी की ज़रूरत है? आख़िर क्या वजह है कि हमारा समाज इतना हिंसक होता जा रहा है कि छोटी बच्चियां इस कदर असुरक्षित हो गयी हैं? और सबसे बड़ा सवाल कि मज़बूती का दम भरने वाली सरकारें ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए क्या कर रही हैं?
बांटो और राज करो अंग्रेज़ों की नीति भले थी, लेकिन इसे हमारे अपने शासकों ने भी बखूबी इस्तेमाल किया है, आख़िर बंटे हुए लोग अक्षम सरकारों के राज के लिए सबसे मुफ़ीद होते हैं. जो चंद सवाल करने वाले लोग हैं उन्हें तो बुद्धिजीवी शब्द को गाली बनाकर बदनाम करने और इस तरह सिविल सोसायटी को अविश्वसनीय बनाने का प्रयास लगातार जारी ही हैं और एक विपक्ष है जो सड़कों पर नहीं बस ट्विटर पर ही रहता है.
Also Read
-
TV Newsance 317 Diwali Special: Godi hai toh mumkin hai, NDTV’s Adani makeover, Taliban flip
-
Delhi’s Diwali double standard: Markets flout cracker norm, govt’s pollution plan falters
-
‘Jailing farmers doesn’t help anyone’: After floods wrecked harvest, Punjab stares at the parali puzzle
-
Billboards in Goa, jingles on Delhi FMs, WhatsApp pings: It’s Dhami outdoors and online
-
Hafta 559: Taliban’s visit to India, Gaza peace plan agreement