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पीएम नरेंद्र मोदी: फैक्ट की टूट और फिक्शन की लूट से तैयार विडंबना

पीएम नरेंद्र मोदी फ़िल्म ओमंग कुमार के निर्देशन में बनी तीसरी बायोपिक है. पीएम नरेंद्र मोदी से पहले वे ‘मैरी कॉम’ और ‘सरबजीत’ का निर्देशन कर चुके हैं. अब जीवित हस्तियों पर बायोपिक बनाने का उन्हें विशेष अनुभव हो गया है. इस फ़िल्म के महत्वाकांक्षी निर्माता संदीप सिंह हैं, जिनकी मदद सुरेश ओबेरॉय और आनंद पंडित ने की है. सुरेश ओबेरॉय के बेटे विवेक ओबेरॉय ने ही इस बायोपिक में पीएम नरेंद्र मोदी की भूमिका निभायी है.

फ़िल्म नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी से शुरू होती है और उनके प्रधानमंत्री बनने के साथ ख़त्म होती है. पूरी फ़िल्म फ्लैशबैक में एकरेखीय स्वरूप में चलती है. बाल नरेंद्र के पिता दामोदर की चाय की दुकान है. बाल नरेंद्र ट्रेन में चाय बेचते हैं और देश के लिए कुछ करना चाहते हैं. राष्ट्रीय झंडा देखकर वह नमन करते हैं. यह प्रसंग भी आया है कि कैसे बचपन में वे मगरमच्छ का बच्चा लेकर घर आ गये थे. देव आनंद की फ़िल्म ‘गाइड’ देखने के बाद उनके मन में संन्यासी बनने की इच्छा जागृत होती है. संन्यास के संक्षिप्त प्रवास से लौटने के बाद उनकी मुलाकात एक संघ संचालक से होती है, जो उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शामिल होकर देशसेवा के लिए प्रेरित करते हैं. यहां से नरेंद्र मोदी की राजनीतिक यात्रा शुरू होती है.

फ़िल्म की कहानी संदीप सिंह की है. पटकथा में विवेक ओबरॉय और अनिरुद्ध का सहयोग है. पर्दे पर फ़िल्म को रचने में लेखक और निर्देशक ने सुविधा और सहूलियत से ज्ञात तथ्यों को छोड़, जोड़ और तोड़-मरोड़ कर उसे फ़िल्म के नायक नरेंद्र मोदी के अनुकूल बना दिया है. मसलन, कश्मीर के लाल चौक पर झंडा फहराना. इंटरनेट खंगालने पर आप भी 1992 की इस घटना के विवरण और चित्र देख सकते हैं. 1992 में भाजपा अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में भाजपा नेताओं का एक दल वहां गया था, जिसमें नरेंद्र मोदी भी थे. फ़िल्म में बेहिचक मुरली मनोहर जोशी सिरे से गायब कर दिये गये हैं. हमें नरेंद्र मोदी ही दिखायी पड़ते हैं.

तथ्यों के जोड़ और तोड़-मरोड़ के अनेक प्रसंग हैं. फ़िल्म खुले रूप से व्हाइट वाशिंग करती है. पिछले साल संजय दत्त के जीवन पर बनी बायोपिक के निर्देशक राजकुमार हीरानी पर आरोप था कि उन्होंने ‘संजू’ में उनकी छवि का व्हाइट वाश किया है. उनकी छवि को सुधारा है. ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ में भी तथ्यों को छोड़ने और मोड़ने की कोशिशें हैं. अनेक प्रसंग दबा दिये गये हैं और दूसरे अनेक प्रसंगों को ज्ञात जानकारियों से अलग रंग दिया गया है. पूरी कोशिश यही दिखती है कि नरेंद्र मोदी बेदाग नायक के तौर पर उभरें. 2002 के दंगों और अक्षरधाम के आतंकवादी हमले में नरेंद्र मोदी का एक्शन प्लान किसी हीरो की तरह ही है. वह भुज में आये भूकंप के समय भी वहां मौजूद हैं और भूकंप पीड़ित नागरिकों की सेवा करते हैं.

अटल बिहारी वाजपेयी ने दंगों के बाद नरेंद्र मोदी को ‘राजधर्म’ निभाने की सलाह दी थी. उस प्रसंग को रखा ज़रूर गया है. यह भी दिखाया गया कि नरेंद्र मोदी ने दिल्ली जाकर आलाकमान को त्यागपत्र सौंप दिया था, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी ने अटल बिहारी वाजपेयी के सामने ही त्यागपत्र फाड़ दिया था. नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री बने रहे. उनका राजनीतिक कद बढ़ता गया और आख़िरकार वह प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे. उनके इस राजनीतिक सफर में किसी प्रकार का कोई छल-प्रपंच नहीं है. देशसेवा की एकनिष्ठ भावना से वे उभरते जाते हैं.

नरेंद्र मोदी के राजनीतिक कद के इस उभार में वरिष्ठ नेताओं की भूमिका और प्रश्रय को नज़रअंदाज किया गया है. फ़िल्म लगातार यह बताने और दिखाने की कोशिश करती है कि नरेंद्र मोदी ने सब कुछ अकेले दम पर हासिल किया, उनमें नेतृत्व की जन्मजात प्रतिभा थी. हां, अमित शाह के साथ उनकी जोड़ी का उल्लेख और चित्रण हुआ है. उनकी जोड़ी को जय-वीरू की जोड़ी भी कहा गया है. फ़िल्म में उनकी मां निर्णायक मोड़ों पर उन्हें सटीक सलाह देती हैं, लेकिन फ़िल्म से पत्नी जशोदाबेन का प्रसंग ही गायब है.

निर्माता, निर्देशक और अभिनेता पीएम नरेंद्र मोदी के चुनाव अभियान के ठीक पहले यह फ़िल्म रिलीज़ करना चाहते थे. अगर ऐसा हो पाता तो यह फ़िल्म ज़बरदस्त प्रचार अभियान के काम आती. विपक्षी पार्टियों की आपत्ति के बाद निर्वाचन आयोग ने आरंभिक उहापोह के बाद प्रदर्शन पर पाबंदी लगा दी थी. अब यह फ़िल्म मतगणना के अगले दिन रिलीज़ हुई है. नरेंद्र मोदी के प्रशंसक इसे उनकी ‘विजय गाथा’ के रूप में देख सकते हैं.

ऐसी फ़िल्म के प्रोडक्शन, तकनीकी और एक्टिंग पक्ष पर भी बातें होनी चाहिए. हड़बड़ी में बनी इस फ़िल्म के लुक और डिज़ाइन पर न्यूनतम मेहनत की गयी है. विवेक ओबेरॉय की दाढ़ी और बिग में बहुत कमियां हैं. विवेक ओबेरॉय ने अलबत्ता मेहनत की है और उन्होंने नरेंद्र मोदी को कॉपी करने की कोशिश या मिमिक्री नहीं की है. चूंकि फ़िल्म का पूरा फोकस नरेंद्र मोदी पर है, इसलिए बाक़ी किरदारों के चरित्र विधान पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है. दंगे, भूकंप और अक्षरधाम के दृश्य प्रभावशाली नहीं बन पड़े हैं.

फ़िल्म में नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में हिंदू-मुसलमान के भेद को मिटाने की बात करते हैं. बताया गया है कि ऐसी कोई दुर्भावना नहीं थी, लेकिन इसी फ़िल्म के एक दृश्य में जब एक मुस्लिम किरदार दंगाइयों के बीच फंसता है तो वह अपने बच्चे की ताबीज़ नोच लेता है और ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाता है. बताने की ज़रूरत नहीं कि ‘जय श्रीराम’ किनका नारा है. यह सच्चाई है, जो विडंबना बन चुकी है.

सीक्वल फिल्मों के इस दौर में ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ का सीक्वल भी बन सकता है, जिसमें 2014 से 2019 तक के समय को समेटते हुए प्रधानमंत्री के रूप में उनकी नेतृत्वकारी भूमिका चित्रित की जा सकती है. ‘बलिदान से बदले’ तक की उनकी कहानी पेश की जा सकती है. उनके दोबारा प्रधानमंत्री बनने के साथ फ़िल्म ख़त्म की जा सकती है.

अवधि: 136 मिनट

  • एक स्टार