Newslaundry Hindi
यह सपा-बसपा की नैतिक हार है
चुनाव में हार जीत लगी रहती है लेकिन जब बहुत कुछ दांव पर लगा हो तो मुश्किल हो जाती है. हार को किसी बहाने से नहीं छिपाया जा सकता. कुछ यही हाल इस बार के लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन का है. वैसे तो इन दोनों पार्टियों ने पिछले लोकसभा चुनाव से ज्यादा सीटें जीतीं, लेकिन सरकार बनाने का दावा, मोदी को हटाने की बातें, प्रदेश में फिर से स्थापित होने का ऐलान, सब हवा हो गया.
2019 लोकसभा चुनाव बहुत कुछ सिखा गये. खासकर उत्तर प्रदेश के संदर्भ में. सपा प्रमुख अखिलेश यादव के लिए आगे की राह आसान नहीं है. बसपा सुप्रीमो मायावती भी फिलहाल भाजपा को हारने का मंसूबा छोड़ ही दें. इन नतीजों का यही संदेश है. गुरुवार की सुबह जब रुझान आने शुरू हुए तो सपा कार्यालय पर मौजूद लोगों ने कहा अभी 2 बजे तक का इंतज़ार करिये लेकिन तब तक हालात बिगड़ते ही गये. अखिलेश यादव ने पार्टी के युवा कार्यकर्ताओं से कहा है कि अब 2022 की तैयारी करनी है. लेकिन अगर इसी पैटर्न पर करेंगे तो आगे भी मुश्किल ही होनी है.
सपा-बसपा: गठबंधन का भविष्य
वैसे तो ये गठबंधन सबसे बड़ा जातीय गठबंधन था जिसमें पिछड़े, दलित और मुसलमान सब शामिल थे, लेकिन ये आशातीत नतीजे नहीं दे सका. ऐसे में अगर कोई कहे कि गठबंधन से अलग हो जाना चाहिए तो सबसे बड़ी भूल होगी. भले ही प्रयोग उतना सफल न हुआ हो, लेकिन आगामी विधानसभा चुनाव में ताकतवर भाजपा से सिर्फ यही गठबंधन लड़ सकता है. भाजपा एक चुनौती है और उसके लिए इन दोनों पार्टियों का साथ रहना ज़रूरी हैं.
चुनौती इस गठबंधन को थोड़ा और लचीला करते हुए सर्व समावेशी, जिताऊ और टिकाऊ बनाना होगा. सपा का मूल वोटबैंक यादव और बसपा का दलितों में जाटव हैं. सर्व समावेशी इसीलिए कि दोनों दलों को अब इस वोटबैंक के बाहर वालों के बारे में भी सोचना होगा. जातीय गोलबंदी में माहिर मुलायम सिंह यादव भले अब उतने सक्रिय न हों, लेकिन समय की मांग है कि उनकी ही धारा को दोनों पार्टियां पकड़ लें. दूसरी छोटी-छोटी जातियां जोड़नी होंगी, जो वास्तव में यह संदेश दे सकें कि सामाजिक न्याय सिर्फ यादव और दलितों के कंधों पर और उनकी जेबों तक सीमित नहीं है. अब इस प्रक्रिया को व्यापक रूप देना ही होगा. फिलहाल आरोप-प्रत्यारोप लगने शुरू हो जायेंगे कि किसका वोट ट्रांसफर हुआ, किसका नहीं. दोनों पार्टियों के लिए सिर्फ एक वोट ही भरोसेमंद सिद्ध हुआ और वो है मुसलमान.
गठबंधन को सबसे बड़ी पहचान ये करनी होगी कि कौन उसको वोट नहीं देता है. वो कौन मतदाता है जो उससे दूर चला गया है.
इस हार के बाद एक सीख ये भी ले लेनी चाहिए इन लोगों को कि राजनीति सिर्फ चुनाव तक सीमित नहीं रहेगी. ये अब 24 घंटे का काम है. हर पल इसको सोचना होगा. ज़मीन पर लड़ना होगा, कार्यकर्ताओं को संभालना होगा. बातें सिर्फ बूथ की हुई हैं, लेकिन बूथ पर काम नहीं हुआ. वो कारण ढूंढने होंगे जिससे ये प्रयोग इतना सफल नहीं हो पाया. जब भाजपा बूथ लेवल का प्रबंधन कर रही थी तब गठबंधन के शूरवीर सोशल मीडिया पर दावे कर रहे थे.
समाजवादी पार्टी
अखिलेश यादव पर बड़ी ज़िम्मेदारी और बड़े दबाव हैं. उनके ऊपर दूसरी पार्टियां ही नहीं, बल्कि परिवार के लोग भी हमलावर हो सकते हैं. फिलहाल अब उनके पास और ज्यादा खोने को कुछ नहीं है. अब समय भी कम बचा है. अगले तीन साल बाद फिर चुनाव हैं. भाजपा को एक मज़बूत आधार मिल चुका है. हर जातीय समीकरण को उसने तोड़ दिया है. इस चुनाव ने अखिलेश यादव की अपने समाज यानी यादवों पर ढीली हुई पकड़ को उजागर कर दिया है. खुद को बैकवर्ड हिंदू कह कर उन्होंने शुरुआत तो की, लेकिन वो असर नहीं कर पायी.
सबसे पहले अखिलेश को ज़मीन पर उतरना होगा. ट्विटर, फेसबुक ज़रूरी हो सकता है आजकल, लेकिन सोशल मीडिया पर बहुत ज्यादा निर्भरता ठीक नहीं है. अपने विकास कार्यों को याद दिलाना ठीक है, लेकिन अब एक्सप्रेस-वे और मेट्रो से नीचे उतरना होगा.
इन असलियतों पर सपा को नज़र डाल लेनी चाहिए- यादवों के बीच इटावा में सपा हार रही है. मुलायम यादवों के गढ़ मैनपुरी में जीतने को जूझ जाते हैं. डिंपल यादव चुनाव हार गयी हैं. वहीं मुसलमानों के बीच अखिलेश आजमगढ़ से जीत रहे हैं. यानी तस्वीर साफ़ है कि अपना घर लुटने के कगार पर है.
नेता जब हारता है तो सबसे पहले समीक्षा उसके पहले सर्किल में रहने वाले लोगों की होती है. सपा में इस पहली लाइन को जवानी कुर्बान गैंग के नाम से जाना जाता है. पिछले तीन चुनावों से इन युवा नेताओं कि काफी परीक्षा हो चुकी है. हर परीक्षा में वो फेल हो चुके हैं. ज़रूरत है एक बार फिर से अनुभवी नेताओं को जो नेपथ्य में चले गये हैं, उनको आगे किया जाये. युवा शक्ति से उर्जा तो मिल सकती है, लेकिन चुनाव के लिए रणनीति नहीं.
आज यूपी में छोटी-छोटी जातियां अपनी-अपनी पार्टी बनाकर राजनीति कर रही हैं, जैसे राजभर, निषाद इत्यादि. वहीं दूसरी ओर सपा में तमाम जातियों के नेता ख़त्म से हो गये हैं. मौका है इन क्षत्रपों को एक बार फिर से पहचान देने का, जिससे वो पार्टी के साथ वोट जोड़ सकें. मुलायम ने एक समय यही किया था जब कुर्मियों के बेनी प्रसाद वर्मा, निषाद में फूलन देवी इत्यादि उभर कर सामने आयीं थी. फिलहाल सपा में जितने युवा पधाधिकारी नहीं हैं, उसके दोगुना तो टीम फलाना, टीम ढमाका टाइप लोग एक्टिव हैं. निष्ठा सिर्फ चेहरा दिखाने तक सीमित रह गयी है.
कभी सपा विपक्ष में सबसे मज़बूत पार्टी कही जाती थी. सड़कों पर संघर्ष में इसका जवाब नहीं था. आज समय की मांग है कि अखिलेश यादव खुद सड़कों पर उतरें. सपा की वो संघर्षों वाली छवि फिर लानी होगी.
रही बात मुस्लिम वोट की तो वो भी अब खतरे की जद में है. ज्यादा दिन उसे बांध कर नहीं रखा जा सकता. अपने 25 साल के राजनीतिक करियर में सपा में सिर्फ आज़म खान ही एक नाम उभरा है. अगर चुनाव में वोट को देखें, तो मुसलमान वोट ही ईमानदारी से गठबंधन को मिला है. अखिलेश को नये मुस्लिम नेतृत्व को भी बढ़ाना होगा.
बहुजन समाज पार्टी
मायावती ने इस बार अपने आपको प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट कर ही दिया था. पिछले बार शून्य के मुकाबले उनकी कुछ सीटें ज़रूर बढ़ गयी हैं, लेकिन इतनी सीटों से आगे बहुत दिन राजनीति नहीं की जा सकती. हालात उनके भी अखिलेश की तरह हैं. दोनों साथ रहे तो इतना जीत गये वरना ये भी न मिलती. उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ नौकरशाह ने बताया कि अंतर कैडर और बे-कैडर पार्टियों का है. कैडर बेस्ड पार्टी सिर्फ भाजपा रह गयी है. बसपा ने अपने हाथ से कैडर को फिसल जाने दिया. मायावती को अपने कैडर को फिर से जोड़ना होगा. ध्यान रखना होगा कि पार्टी का जन्म ही जिस मुद्दे पर हुआ था, उससे इतर अगर सबकुछ पाने के लिए दौड़ने लगेंगी तो जो है वो भी हाथ से निकल जायेगा.
पुराने लोगों में यह बात मशहूर है कि बसपा पार्टी नहीं मिशन है, इनको फिर उसी मोड में आना होगा. सेकंड लाइन लीडरशिप की क्राइसिस यहां बहुत भयावह है. पुराने नेता किनारे हो चुके हैं, कैडर के लोग विमुख हो रहे हैं, नये लोग जुड़ नहीं रहे हैं, इससे परेशानी बढ़नी ही है. सड़क पर शायद ही कभी मायावती निकली हों. आज भी मायावती जिस दिन सड़क पर संघर्ष का ऐलान कर दें तो सफलता की उम्मीद कई गुना बढ़ जायेगी. लेकिन उनकी वर्किंग स्टाइल वैसी नहीं है. थोड़ा दिल बड़ा करें और गठबंधन को चलने दें.
कांग्रेस
शुरू से सभी कह रहे थे कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास कोई वोट बैंक नहीं है. कोई भी एक जाति या समूह नहीं है जो प्रदेश में कांग्रेस को वोट देती हो. जहां कहीं भी वोट मिलता है वो कैंडिडेट का अपना या फिर स्थानीय समीकरण के कारण है. तमाम बेवकूफी भारी बातें जैसे प्रियंका गांधी के आने से ब्राह्मण जुड़ेगा, अब ट्रंप कार्ड चल गया इत्यादि कांग्रेस करती रहती है.
प्रदेश में कांग्रेस के पास कार्यकर्ता नहीं बचे हैं, केवल सिर्फ कुछ नेता हैं. इधर कुछ एक दर्जन भर लोग टीवी पर आने लगे हैं. जहां पर सिर्फ वो भाजपा को कोई न कोई एजेंडा थमा कर लौट आते हैं. पार्टी मॉल एवेन्यु में स्थित नेहरू भवन की बाउंड्री के अंदर तक सीमित रह गयी है. संघर्ष, सड़क, प्रदर्शन का अब कांग्रेस से कोई मतलब नहीं. फिलहाल कोई प्लान कर लीजिये, कांग्रेस का उद्धार फिलहाल उत्तर प्रदेश में नहीं दिखता.
Also Read
-
4 years, 170 collapses, 202 deaths: What’s ailing India’s bridges?
-
2006 blasts: 19 years later, they are free, but ‘feel like a stranger in this world’
-
South Central 37: VS Achuthanandan’s legacy and gag orders in the Dharmasthala case
-
India’s dementia emergency: 9 million cases, set to double by 2036, but systems unprepared
-
‘Not safe, can’t speak’: Arrest of Chhattisgarh nuns sparks alarm in Christian community