Newslaundry Hindi
हीरालाल यादव : लोकमत के अग्रिम क्रांतिकारी का प्रयाण
“आजाद वतन भारत की धरा, कुर्बानी मांगेले.
बुड्ढों से सबक, अनुभव मांगे, जवानों से जवानी मांगेले.
महिला टोली से बार-बार झांसी की रानी मांगेले.”
अपनी सशक्त गायकी से बिरहा को आज राष्ट्रीय फलक पर पहचान दिलाने और बिरहा सम्राट से विभूषित होने के पहले हीरालाल यादव का जीवन दुरूह एवं कठिनाईयों से भरा हुआ रहा. मूलतः वाराणसी जनपद के हरहुआ ब्लाक के बेलवरिया निवासी हीरालाल यादव का जन्म वर्ष 1936 में नगर के चेतगंज इलाके के सरायगोवर्धन मोहल्ले में हुआ था. बचपन नितांत गरीबी में गुज़रने के कारण हीरालाल को समृद्ध गोपालकों की भैंसें चराने का काम करना पड़ता था.
इसी क्रम में उन्हें 5 वर्ष अल्पायु में ही शौकिया लोक गीत गाने का चस्का लगा और धीरे-धीरे उन्होंने ख़ुद को सिर्फ़ बिरहा गायकी के इर्द-गिर्द गढ़ना शुरू किया. बालक हीरालाल से युवा हीरालाल बनने के क्रम में लोक शैली के प्रति इनकी तपस्या के कारण इन्हें लोक संगीत के तत्कालीन नामवरों जिनमें गुरु रम्मन दास, होरी ख़लीफ़ा व गाटर खलीफा जैसे गुरुओं का आशीर्वाद भी समय-समय पर मिला.
किसी ज़माने में एक साक्षात्कार के दौरान हीरालाल यादव ने बताया था कि वे गाजीपुर के बिरहा गायक करिया यादव का बिरहा सुनकर बिरहा गायन की ओर उन्मुख हुए थे. लेकिन जानकार और उनके करीबी मानते हैं कि उन्होंने लोक जीवन को आत्मसात करने के उद्देश्य से अपने मस्तिष्क की खिड़कियों को सदा खुला रखा और वे निरंतर बातचीत के क्रम में ग्रामीण भारत के लोगों की भावनायें जानने समझने की कोशिश करते थे ताकि उनके संगीत में उसका प्रतिबिंब उतर कर सामने आ सके. शायद यही वजह है कि भले ही हीरालाल यादव औपचारिक रूप से रम्मन अखाड़े से संबद्ध रहे, लेकिन रम्मन अखाड़े के अलावा पत्तू, गणेश और मूसे अखाड़े के सर्वश्रेष्ठ बिरहा गायकों ने भी अपना नाम बड़े गौरव के साथ हीरालाल के साथ जोड़ा है. जीवन भर गांधीवादी विचारों से ओतप्रोत रहने वाले हीरालाल अपने जीवन के आख़िरी दिनों तक खद्दर का धोती-कुर्ता और गांधी टोपी ही पहनते रहे. बनारस के पुरनिये बताते हैं कि उन्हें यह टोपी और राष्ट्रीय बिरहा गायक का सम्मान पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा दिया गया था.
बिरहा गायन की दोनों विधाओं क्रमशः खड़ी बिरहा और मंचीय बिरहा. पर समान अधिकार रखने वाले हीरालाल यादव जीवन भर स्वरजीवी बन कर रहे. ग्रामीण भारत के आम आदमी की व्यथा को मिटाने के लिए जब हीरालाल बिरहा का ऊंचे स्वरों में गायन किया करते थे, तब घंटों तक लोग उन्हें सिर्फ विस्मृत होकर सुनते थे. वाराणसी के वरिष्ठ पत्रकार और कलाधर्मी अमिताभ भट्टाचार्य बताते हैं “हीरालाल यादव जी लोक गायन के शिव दूत सरीखे थे, शिव को लोकमत का देवता माना गया है और शिव स्तुति इस इलाके में नाना प्रकार से होती रही है, शास्त्रीय गायकों ने राग के माध्यम से शिवार्चन किया है और कुछ उपशास्त्रीय गायकों ने “खेलें मसाने में होरी” गाकर लोकप्रियता बटोरी है, लेकिन शायद कम ही लोग जानते होंगे कि हीरालाल अपने बिरहा गायन में दिगंबर के दिगंबर होने की कथा-व्यथा जाने कब से गाने लगे थे.”
श्री भट्टाचार्य आगे बताते हैं कि “शिव पुराण की कहानी के अनुसार प्राचीन काल में राजा दक्ष ने अश्विनी समेत अपनी 27 कन्याओं का विवाह चंद्रमा से किया था. एक प्रसंग में शिव पर रंग पड़ता है, चूंकि चंद्रमा उनके मस्तक पर सुशोभित हैं तो उन पर भी रंग पड़ता है, चंद्रमा खुद पर दाग लगने के बाद रोते हैं और उनके आंसुओं की कुछ बूंदें शिव के बाघम्बर पर पड़ती हैं, अश्रुओं में जीवन होने के कारण बाघम्बर एक जीवित बाघ में परिवर्तित हो जाता है और शिव नग्नावस्था में आ जाते हैं. अपने आपको छिपाने के उद्देश्य से शिव काशी आते हैं और महाश्मशान की राख को शरीर में लपेट कर खुद को छिपाते हैं. इसी दिगंबर स्वरूप की पूजा अर्चना आजतक होती आयी है. इस पूरे प्रसंग को हीरालाल यादव की आवाज़ में सुनना अपने आप में एक अलौकिक अनुभव रहता था.”
पेशे से अध्यापक रहे हीरालाल यादव ऐतिहासिक रूप से एक मात्र ऐसे बिरहा गायक थे, जिनकी गायकी में सादगी और गंभीरता के साथ-साथ भाव और अनुभूति की गहराई भी थी. बिरहा गायकी जैसी कठिन विधा में प्रवीण होने के लिए हीरालाल लगातार अध्ययनरत रहे और प्रसंगों को गीतों में ढालते रहे. वे अपने साथी बुल्लू के साथ वे लगातार सात दशकों तक उत्तर भारत के कोने-कोने के गांवों में जाकर ग्रंथों, पुराणों, लोकोक्तियों, प्रसंगों और मजदूरों के यात्रा वृत्तांत के छोटे-छोटे प्रसंग को चुन कर अपने गीतों में ढालते थे.
ख्यात शास्त्रीय गायक एवं पद्म पुररस्कार से अलंकृत कलाधर्मी डा राजेश्वर आचार्य बताते हैं कि “लोक संगीत की जैसी व्याख्या पश्चिमी विद्वानों ने की है उसे हम स्वीकार नहीं कर सकते, भारतीय जनमानस की दृष्टि से लोकसंगीत की व्याख्या अलग है, हमारे लोक संगीत का संबंध देवता और लोकजीवन यानि हमारे ग्राम्य जीवन और असली भारतीय जीवन से है. हीरालाल जी किसी लालच, दुराव या भावना से दूर रहने वाले स्वरजीवी थे, उनकी वाणी की आज और साथ में सुरीलापन अद्भुत था. जीवन भर नियम और संयम से रहने वाले हीरालाल जी सप्तक के उस स्थान से शुरू करते थे जहां बहुत लोग पहुंच भी नहीं पाते हैं, बावजूद इसके उनके सुर कभी कर्कश नहीं हुए. उनके जैसी गुणवत्ता वाले कलाकार अब नहीं बचे हैं, मैं प्रार्थना करता हूं कि वे पुनर्जन्म लेकर वापस आ जायें और लोक संस्कृति को बचा लें. जीवन के अंतिम पड़ाव में उन्हें भूलने की बीमारी हो गयी थी, सरकार को अगर उनकी याद थोड़ा पहले आ गयी होती, तो शायद हम कुछ और दिन उनका सान्निध्य प्राप्त कर पाते.”
एक तरफ वे अपनी कृति ‘तिरंगा’ में देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत होने का संदेश देते थे, वहीं दूसरी तरफ ‘राजकुमारी बनी बंदरिया’, शंकर जी की लीला और होली गीत जैसे पारंपरिक प्रस्तुतियों की प्रचुर मात्रा उनके पास थी. स्थानीय इलाकों में हुई गतिविधियों जिनका प्रभाव गांव और किसान पर पड़ा, उन्हें वे मछलीशहर कांड, आजमगढ़ कांड, सुई के छेदा में हाथी जैसे गीतों के माध्यम से सुनाते थे.
तमाम लोकप्रिय बिरहा गीत देने वाले हीरालाल को उम्र के आख़िरी पड़ाव में कुछ वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा यश भारती पुरस्कार से भी नवाज़ा गया और इसी वर्ष उन्हें केंद्र सरकार द्वारा पद्म सम्मान से अलंकृत किया गया. अध्ययन, अनुभव, मर्यादा और सरोकार से ओतप्रोत हीरालाल जैसे गायकों का आज भारी अभाव है, उनके जाने के बाद लोकसंगीत का एक सुनहरा अध्याय अब हमारे सामने ही धीरे-धीरे बंद होने के कगार पर है.
Also Read
-
Can truth survive the fog of war? Lessons from Op Sindoor and beyond
-
Bogus law firm and fake Google notices: The murky online campaign to suppress stories on Vantara
-
Bearing witness in Leh: How do you report a story when everyone’s scared to talk?
-
Happy Deepavali from Team NL-TNM! Thanks for lighting the way
-
As Punjab gets attention, data suggests Haryana, UP contribute to over a third of Delhi’s PM 2.5