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स्वच्छंद वेब सीरीज़ को नाथने की कोशिश
बछड़े के सांड बनने के पहले उसे नाथ कर बैल बना देने की परंपरा हमारे कृषक समाज में सदियों से चली आ रही है. लगभग यही व्यवहार देश का हर परिवार अपने युवा सदस्य के लिए अपनाता है. शादी या नौकरी में नाथ दो – सेटल हो जायेगा/जायेगी. हम स्वच्छंद रहने ही नहीं देना चाहते. परवाज़ लेने ही नहीं देना चाहते. यही मानसिकता दृश्य-श्रव्य माध्यम समेत अभिवक्ति के अन्य माध्यमों के ऊपर भी लागू होती है. लिहाज, नैतिकता, परंपरा और संस्कृति के चाबुक से हर उड़ान और बेलीक शुरुआत को निश्चित लकीर में चलाने की कोशिश की जाती है, बाध्य किया जाता है. इन दिनों वेब सीरीज़ को सेंसरशिप के दायरे में लाने की सिफारिशें, साजिश है और कोशिशें जारी हैं, वेब सीरीज़ की स्वच्छंदता से आहत दिव्या गोंटिया की जनहित याचिका पर मुंबई हाईकोर्ट ने पहले ही केंद्रीय सरकार को सचेत करने के साथ संज्ञान लेने की सलाह दी थी.
इधर 10 मई को सुप्रीम कोर्ट ने फिर से केंद्र सरकार को नोटिस दिया है कि वह ऑनलाइन मीडिया का नियमन करे. गौरतलब है कि दिल्ली हाईकोर्ट ने इसी साल फरवरी में ऐसी ही एक याचिका को खारिज़ कर दिया था. उसके बाद जस्टिस फॉर राइट्स फाउंडेशन की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का ताज़ा फैसला आया है. इस याचिका में ‘सेक्रेड गेम्स’, ‘गेम्स ऑफ़ थ्रोंस’ और ‘स्पार्टकस’ जैसे वेब सीरीज़ के हवाले से आपत्ति दर्ज़ की गयी है कि इनमें अश्लील, सेक्सपूर्ण, पोर्नोग्राफिक, अनैतिक, विषैली और अपवित्र सामग्रियां परोसी जाती हैं. साथ ही इनमें स्त्रियों को वस्तु की तरह पेश किया जाता है (हालांकि फ़िल्में यही सब कुछ दशकों से परोस रही हैं). बताने की ज़रूरत नहीं कि हिंदी फिल्मों को लेकर जब-तब ऐसी शिकायतें की जाती रही हैं. हमेशा समाज और संस्थानों का एक तबका सृजनात्मक अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने के लिए उद्यत रहता है. कला के विस्तार की हिमायती मुट्ठी भर सृजनशील हस्तियां इसके ख़िलाफ़ जूझती रहती हैं. यह भी सच है कि ज़्यादातर अवसरों पर इन हस्तियों की विजय होती है, क्योंकि हमारे संविधान में अभिव्यक्ति की स्वंत्रता की धाराएं स्पष्ट तौर पर परिभाषित और मजबूत हैं. फिर भी अश्लीलता, नैतिकता, संस्कृति और परंपरा के नाम पर आपत्ति दर्ज़ करने और पाबंदी की मांग करने वाली शक्तियां कुछ-कुछ अंतराल पर फन उठाती रहती हैं.
कायदे से देखें तो देश में घोषित सेंसरशिप जैसी वृत्ति नहीं है. न जाने क्यों सीबीएफसी (सेंट्रल बोर्ड ऑफ सर्टिफिकेशन) को सेंसर बोर्ड कहा जाता है. फिल्म यूनिट के सदस्य भी रिलीज़ के पहले इस वैधानिक प्रक्रिया की औपचारिकता को सेंसर कहते हैं. फिल्म की सेंसर स्क्रिप्ट तैयार की जाती है, फिल्म सेंसर के लिए जाती है और फिर फिल्म सेंसर होती है. वास्तव में इसे सर्टिफिकेशन ही कहा जाना चाहिए. होता यह है, अगर कोई निर्माता अपनी फिल्म के लिए ‘यू’ सर्टिफिकेट चाहता है तो सर्टिफिकेशन बोर्ड उसे उन दृश्यों और संवादों को हटाने या काटने की सलाह देता है, जिनकी वजह से उसे यह सर्टिफिकेट नहीं मिल सकता. यहां तक कि ‘यूए’ सर्टिफिकेट के लिए भी काट-छांट की सलाह दी जाती है. इसके अलावा सीबीएफसी के अपने नियम और नियमन हैं. किसी भी भारतीय फिल्म निर्माता को सर्टिफिकेशन लेने के लिए उसी दायरे में रहना पड़ता है.
कभी-कभार ही सरकारी संकेत, आदेश या दबाव से कुछ फिल्मों के प्रदर्शन पर पाबंदी लगती है या कुछ दृश्य और संवाद हटाये जाने का निर्देश दिया जाता है. डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी निर्देशित ‘मोहल्ला अस्सी’ पर तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री की भृकुटी तन गयी तो उसे कोर्ट के चक्कर लगाने पड़े और लगभग साल भर की सुनवाइयों के बाद उसके पक्ष में फैसला आया. वहीं ग्राफ़िक हिंसा के बावजूद ‘केसरी’ को आसानी से ‘यूए’ सर्टिफिकेट मिल गया, क्योंकि उसके लायक अक्षय कुमार थे और वह धर्मा प्रोडक्शन की फिल्म थी. प्रसंगवश इस विवरण का आशय यह है कि वेब सीरीज़ के लिए कोई सर्टिफिकेशन बोर्ड गठित कर लिया गया तो भी बोर्ड व सरकार की इच्छा और पहल से नियमों का उल्लंघन होता रहेगा. कभी छूट तो कभी पाबंदी का सिलसिला जारी रहेगा. मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार के शब्दों में, “सुप्रीम कोर्ट का सम्मान करते हुए इसे संज्ञान में लिया भी जाता है तो यह महज़ औपचारिकता होगी. संज्ञान लिए जाने का मतलब कमिटी गठित करने और रेगुलेट किये जाना है तो कागज़ी तौर पर यह होने के बावजूद व्यवहार के स्तर पर बहुत कारगर साबित नहीं होगा, क्योंकि भारत में मीडिया रेगुलेशन का ट्रैक रिकॉर्ड बेहद ख़राब रहा है.”
जनहित याचिका में उल्लिखित हवालों के साथ-साथ वेब सीरीज़ के संबंध में होने वाले भी विमर्शों में मुख्य रूप से गाली-गलौज, सेक्स और हिंसा की प्रचुरता पर बात की जाती है. हम इन मुद्दों पर सार्वजनिक बहस करते हुए पक्ष-विपक्ष में खड़े होकर तर्क जुटाने लगते हैं. अगर वेब सीरीज के व्यवसाय से जुड़ी प्रतिभाओं से बात करें तो बिल्कुल भिन्न परिदृश्य नज़र आता है. यह तो सभी मानते हैं कि वेब सीरीज़ की मौजूदगी ने लेखकों-निर्देशकों को सृजनात्मक विस्तार दिया है. अब उन्हें बाज़ार और दर्शक की सीमाओं और शर्तों को मानने की ज़रूरत नहीं रह गयी है. वे अपने विषय और कथ्य की मांग के मुताबिक आवश्यक क्रिएटिव उड़ानें भर सकते हैं. साथ ही सीबीएफसी जैसी किसी संहिता के न होने से वे विषय के निर्वाह में आज़ाद कल्पना और फंतासी का सहारा ले सकते हैं. वे ले भी रहे हैं. वहीं असीमित कल्पना और विषय का विस्तार नैतिकतावादियों और संकीर्ण मानसिकता के पहरुओं को नागवार गुज़र रहा है. उन्हें भारतीय संस्कृति पर ख़तरा नज़र आ रहा है.
इस संदर्भ में ‘सेक्रेड गेम्स’ ने पिछले कुछ समय से जारी वेब सीरीज़ का पैराडाइम ही बदल दिया. अनुराग कश्यप और विक्रमादित्य मोटवानी निर्देशित इस वेब सीरीज की मूल कहानी विक्रम चंद्रा के इसी नाम के उपन्यास से ली गयी है, लेकिन उसके फिल्मांकन और चित्रण की प्रविधि निर्देशकद्वय ने चुनी है. नेटफ्लिक्स के क्रिएटिव अधिकारियों और निर्देशकों के साथ गहरे विचार-विमर्श के बाद सीरीज़ के मुख्य लेखक वरुण ग्रोवर ने ढांचा तैयार किया. फिर अनुराग कश्यप और विक्रमादित्य मोटवानी ने अपनी शैली और सोच के साथ निर्देशित किया है. उन्हें समर्थ और प्रयोगशील कलाकारों से भरपूर मदद मिली है. पहली बार ऐसे बोल्ड दृश्य बेधड़क तरीके से परदे पर दिखायी पड़े. यह सीरीज़ सचमुच एक भूचाल की तरह आया, क्योंकि छिटपुट रूप से अभिव्यक्ति और सृजन के क्षेत्र में इंटरनेट पर ली जा रही है आज़ादी को उन्होंने संभावनाओं की ठोस दिशा दी.
दर्शकों के बीच ‘सेक्रेड गेम्स’ की लोकप्रियता और स्वीकृति ने सभी को चौंकाया. इसके पहले टीवीएफ, एआइबी और कुछ अन्य यूट्यूब के ज़रिये इंटरनेट पर मनोरंजन की नयी बंजर ज़मीन जोत रहे थे, ‘सेक्रेड गेम्स’ ने वेब सीरीज़ की अपार संभावनाओं और अकूत कमाई के द्वार खोल दिये. देखते ही देखते अनेक प्लेटफार्म वजूद में आ गये. पहले से चल रहे प्लेटफार्म ने खुद को चाक-चौबंद किया और ज़ोर-शोर से वेब सीरीज के निर्माण में जुट गये.
इन आपत्तियों, याचिकाओं और विमर्शों के बीच ‘इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया’(IAMAI) का गठन हो चुका है. इस एसोसिएशन ने परस्पर सहमति से एक संहिता तैयार की है. फिलहाल इस एसोसिएशन में जी5, ऑल्ट बालाजी, वॉयकॉम 18, एंड, सोनी, इरोज़ नाउ, नेटफ्लिक्स, हॉट स्टार और जियो डिजिटल लाइफ शामिल हैं. संहिता के मुताबिक अगर कोई दर्शक किसी शो के किसी दृश्य, प्रसंग या संवाद पर आपत्ति या शिकायत दर्ज़ करता है तो संबंधित प्लेटफार्म को तीन दिनों के अंदर प्राप्ति सूचना देनी होगी. अगर लगता है कि संहिता का उल्लंघन नहीं हुआ है तो सात दिनों के अंदर संतोषजनक जवाब देना होगा. अगर अवलोकन और विचार में समय लग सकता है तो यह सूचना भी शिकायतकर्ता को देनी होगी. सबसे अहम बात है कि तीस दिनों के अंदर उन्हें हर आपत्ति या शिकायत का निबटान करना होगा. इसके लिए हर प्लेटफार्म में अधिकारी, टीम और विभाग निश्चित और गठित किये गये हैं. कोर्ट और सेमिनारों में बहस के साथ यह भी जांच होनी चाहिए की क्या वास्तव में एसोसिएशन में आये प्लेटफार्म इन मामलों में चुस्त-दुरुस्त हैं.
(अगली बार हम एसोसिएशन की संहिता और वेब सीरीज से जुडी प्रतिभाओं के हवाले से इस मुद्दे पर चर्चा करेंगे.)
जारी…
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