Newslaundry Hindi
1980 और 1984 के बीच 2 लोकसभा चुनाव जिन्होंने बदल दिया गांधी परिवार को
1977 में जनता पार्टी की सरकार ‘भानुमती का पिटारा’ थी. कई पार्टियां जैसे जनसंघ, कांग्रेस(ओ), भारतीय लोकदल, सोशलिस्ट एंड कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी ने मिलकर देश चलाने की कोशिश की. पर हर कोई अपना राग अलाप रहा था, हर नेता महत्वाकांक्षी हो रहा था. जय प्रकाश नारायण और जेबी कृपलानी ने मोरारजी देसाई के हाथों में देश की कमान दी थी पर उनके पास नेहरु जैसा करिश्माई व्यक्तित्व और इंदिरा गांधी जैसी राजनैतिक चतुराई नहीं थी.
भारतीय राजनीति का एक पक्ष ये भी है कि जनता को करिश्माई नेता ही तारनहार लगता है. जहां तक मोरारजी देसाई का सवाल था, नेहरु उनकी राजनैतिक समझ और बुद्धिमता के कायल थे. मनमोहन सिंह के बारे में भी यही आम राय है. पर चूंकि दोनों ही करिश्माई नेता नहीं रहे, सो जनता और उनके सांसदों का कुछ और ही मानना रहा. दैनिक भास्कर के एडिटर श्रवण गर्ग बड़ी तार्किक बात कहते हैं, “यहां नेता के पीछे पार्टी खड़ी होती हैं ना कि पार्टी के पीछे नेता.”
प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई, गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह और रक्षामंत्री बाबू जगजीवन राम के मतभेद खुलकर सामने आने लगे. जनता पार्टी की सरकार के पास देश के लिए न कोई विज़न था, न एक्शन प्लान. आख़िर ये सब तो जेपी के ‘इंदिरा हटाओ, देश बचाओ’ के नारे को लेकर आगे बढ़े थे. इंदिरा को तो हटा दिया गया था, पर अब देश कैसे चलेगा, यह कुछ साफ नहीं हो रहा था. इससे ज़ाहिर होता है कि आंदोलन करना एक बात है और देश चलाना दूसरी बात.
जनता पार्टी की कारगुजारियां ही उसके पतन का कारण बनीं. अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गयी, मुद्रास्फीति की दर काबू से बाहर हो गई, हड़तालों का दौर फिर शुरू हो गया था, वेतन वृद्धि को लेकर कामगारों का आए दिन चक्का जाम करना आम बात हो गयी थी. जॉर्ज फ़र्नान्डिस जैसे तेज़ तर्रार नेता ने कोकाकोला और आईबीएम को देश से चलता किया. तो ये हुआ कि जनता पार्टी के मतभेदों के चलते मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी और चरण सिंह महज़ 5 महीनों के लिए ही प्रधानमंत्री रह पाए.
पहली ग़ैर कांग्रेसी सरकार और उसका प्रयोग बुरी तरह विफल रहा. हालांकि बात ये भी है कि जनता पार्टी ने संविधान की गरिमा, प्रेस की आज़ादी और लोगों के संवैधानिक अधिकारों को पुनः स्थापित किया पर आर्थिक और सामाजिक मसलों पर सरकार का रिपोर्ट कार्ड एकदम ख़राब रहा. वहीं, जो राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता इंदिरा ने अपने विरोधियों के ख़िलाफ़ दिखलाई थी, जो उनके सत्ता से बाहर होने में एक बड़ा कारण रही थी, वही आचरण जनता पार्टी के नेताओं ने इंदिरा को जेल भेजकर प्रदर्शित किया. तो एक तरफ़ हर मोर्चे पर जनता सरकार नाकाम साबित हो रही थी, दूसरी तरफ़ इंदिरा के प्रति उसके दुराग्रह से जनता के बीच इंदिरा के लिए सहानुभूति पैदा होने लगी. जो अंतत: जनता पार्टी सरकार के गिरने में एक अहम कारण रहा. पर पहले देखें कि मोरारजी भाई की छुट्टी क्यों हुईं?
क्या जनसंघ की वजह से मोरारजी की कुर्सी गयी
आपसी मतभेद के अलावा, एक अहम कारण जिसकी वजह से मोरारजी देसाई की सरकार गिरी वो था, भारतीय जनसंघ के सांसदों का राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का सदस्य होना. आपको याद होगा कि जब जय प्रकाश नारायण ने ‘परिवर्तन’ के नाम पर आंदोलन चलाया था, तब जनसंघ को उन्होंने इस शर्त पर अपने साथ आने दिया था कि वो आरएसएस की सदस्यता त्यागेंगे. जनसंघी हामी भरकर पलट गए और चरण सिंह जो कि प्रधानमंत्री बनने को बेताब थे, इसी बात पर सरकार के भीतर रहकर उसे गिराने में लग गए. मौका देखकर चरण सिंह इसी मुद्दे के आधार पर जनता पार्टी से अलग हो गए कि जनसंघ ने जेपी से किया वादा पूरा नहीं किया.
उधर, कांग्रेस इसी फ़िराक में थी, उसने चरण सिंह को समर्थन दे दिया पर वो सिर्फ़ दिखावा था. उनकी सरकार एक सत्र भी नहीं चल पाई कि कांग्रेस ने मौका ताड़कर समर्थन वापस ले लिया. लिहाज़ा 1980 में दोबारा चुनाव करवाना पड़ा.
सातवां आम चुनाव और इंदिरा का ‘पुनर्जन्म’
राजनैतिक विश्लेषक पॉल आर ब्रास मानते हैं कि नेहरु के बाद कांग्रेस में शुरू हुए सत्ता संघर्ष में इंदिरा की जीत के पांच चरण हैं. पहला, 1966 जब वो प्रधानमंत्री बनीं. दूसरा, 1967 जब कांग्रेस संसदीय पार्टी के चुनाव में उन्होंने मोरारजी देसाई को हराया. तीसरा, राष्ट्रपति के चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी को हरवाकर वीवी गिरी को जिताना और इस मुद्दे पर कांग्रेस के दो फाड़ करना. चौथा, 1971 के आम चुनावों में जीत. पांचवां और अंतिम पाकिस्तान से युद्ध में निर्णायक जीत. इस जीत के तुरंत बाद हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की व्यापक जीत ने उन्हें पूरे देश का निर्विवाद लीडर बना दिया था.
सातवें आम चुनाव में कांग्रेस की भारी जीत से इंदिरा फिर केंद्र की राजनीति में आ गयीं. रामचंद्र गुहा ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं कि 77 के चुनावों के बाद उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का मन बना लिया था. पर तभी बिहार में हुई हिंसा ने उनकी वापसी करवायी और ये चुनाव उनका पुनर्जन्म था.
1980 के आम चुनावों का परिणाम
इस चुनाव में कुल 57% मतदान हुआ, जो कि पिछले चुनाव से 3% कम था. कुल जमा 4,629 प्रत्याशी खड़े हुए थे जिनमें से 3,088 निर्दलीय और स्थानीय पार्टियों के थे. कांग्रेस पार्टी को 353 सीटें मिलीं और 42.7% उसका वोट शेयर था. जनता पार्टी (जेपी) को 31 सीटें, जनता पार्टी (एस) 41, सीपीआई 11, सीपीएम 36 पर और निर्दलीय तथा अन्य 39 सीटों पर जीते.
1984 का आठवां आमचुनाव
इस चुनाव की पृष्ठभूमि अप्रत्याशित थी. इंदिरा गांधी को स्वर्ण मंदिर से आतंकवादियों को बाहर निकालने के लिए की गयी सैन्य कार्रवाई ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ का खामियाज़ा भुगतना पड़ा. 31 अक्टूबर, 1984 की मनहूस सुबह को उनके अंगरक्षकों ने ही उनकी गोली मारकर हत्या कर दी. दिल्ली और अन्य राज्यों में सिख विरोधी दंगे हुए जिनमें हज़ारों बेगुनाह सिख मारे गये.
इंदिरा की मृत्यु के बाद देश में यकायक एक नेतृत्व शून्यता उभर गयी और अनिश्चितता का माहौल पैदा हो गया. कई विदेशी अख़बारों ने लिखा कि संभव है कि हिंदुस्तान में कई धार्मिक और क्षेत्रीय ताक़तें अपना असर दिखाएं और देश का विघटन भी संभावित है. न्यूयॉर्क टाइम्स के विचार थे कि देश में अस्थिरता और अनिश्चितता पैदा हो जायेगी.
इधर प्रश्न था कि इंदिरा के बाद कौन? संजय गांधी उनके राजनैतिक वारिस समझे जाते थे पर उनकी असमय मृत्यु हो चुकी थी. उनकी पत्नी मेनका गांधी ने कोशिश तो की थी कि वो संजय का स्थान ले लें पर उनके और इंदिरा के बीच संबंध बहुत खराब हो गए थे. इसके चलते मेनका को अपना ससुराल छोड़ना पड़ा. बड़े बेटे राजीव गांधी राजनीति को लेकर उदासीन थे और कॉमर्शियल पायलट बनकर दिल्ली से लखनऊ की उड़ान में ही संतोष प्राप्त कर लेते थे. पर मां की हत्या और कांग्रेस नेताओं के इसरार और अस्थिरता के चक्रवात ने राजीव गांधी को राजनीति में खींच लिया.
वो निर्विरोध कांगेस के सर्वोच्च नेता चुने गये और उन्होंने अगले, यानी आठवें आम चुनाव की घोषणा कर दी. चूंकि, इंदिरा गांधी की मृत्यु एक दर्दनाक हादसा था, देश में कांग्रेस और राजीव गांधी के प्रति सहानभूति की लहर थी. ऐसे में कांग्रेस की जीत सुनिश्चित थी और वही हुआ.
पार्टी को प्रचंड बहुमत और सीटें मिलीं. कुल 38 करोड़ मतदाताओं में से लगभग 63.56% ने मतदान किया जिसमें से 48.1% ने कांग्रेस के हक़ में मतदान किया. पहली बार प्रति सीट 10 से ज़्यादा उम्मीदवारों का औसत रहा. कांग्रेस ने 515 उम्मीदवार खड़े किये थे जिनमें से 415 जीत गये. मतलब 80% उम्मीदवार जीत गये! ऐसा किसी भी चुनाव में नहीं हुआ.
राजीव गांधी सर्वसम्मति से अगले प्रधानमंत्री चुने गए. देश में सिख विरोधी दंगों के अलावा वैसा कुछ नहीं हुआ जैसा दुनियाभर के राजनैतिक पंडित कह रहे थे. देश को युवा नेता मिला. पर तब तक उनके पास कोई विशिष्ट राजनैतिक सोच नहीं थी. पॉल आर ब्रास अपनी किताब ‘दी पॉलिटिक्स ऑफ़ इंडिया सिंस इंडिपेंडेंस’ में लिखते हैं- ‘नेहरु तालमेल की राजनीति बिठाते थे वहीं, इंदिरा ने इस तालमेल को लगभग ख़त्म करके एक ऑटोक्रेट के माफ़िक शासन चलाया. पर राजीव के पास कोई ख़ास लीडरशिप स्टाइल नहीं थी, लिहाज़ा वो इन दोनों- नेहरु और इंदिरा- तरीकों के बीच झूलते रहे.’ आगे चलकर उन्हें भी इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा.
Also Read
-
TV Newsance 325 | Indigo delays, primetime 'dissent' and Vande Mataram marathon
-
The 2019 rule change that accelerated Indian aviation’s growth journey, helped fuel IndiGo’s supremacy
-
You can rebook an Indigo flight. You can’t rebook your lungs
-
‘Overcrowded, underfed’: Manipur planned to shut relief camps in Dec, but many still ‘trapped’
-
Since Modi can’t stop talking about Nehru, here’s Nehru talking back