Newslaundry Hindi
आर्थिक आंकड़ों में मिलावट का सहारा क्यों लेती है मोदी सरकार?
पिछले महीने कुछ जाने माने अर्थशास्त्रियों ने भारत सरकार द्वारा जारी किये गये आर्थिक आंकड़ों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाये. इन सवालों के जवाब में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पलट कर खुद इन अर्थशास्त्रियों की विश्वसनीयता को ही कटघरे में खड़ा कर दिया, और दावा किया कि यही आंकड़े विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन सकारात्मक तरह से स्वीकार कर रहे हैं.
परंतु इसको शायद वित्त मंत्री का दुर्भाग्य कहेंगे कि उनके इस वक्तव्य के एक महीने के अंदर ही, आईएमएफ की प्रमुख अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ ने स्वयं, भारत की जीडीपी (ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट) को मापने के पैमाने पर सवाल खड़ा कर दिया है. अब यह बात सब जान गये हैं कि चार वर्षों से राष्ट्र के आर्थिक आंकड़ों में कुछ न कुछ मिलावट जारी है.
सबसे पहले 2015 में, मोदी सरकार ने न सिर्फ जीडीपी की दर के आधार वर्ष को बदला, बल्कि जीडीपी को मापने का पैमाना भी नया बना दिया.
फिर नवंबर 2018 में, अपने ही नये पैमाने पर मापे गये पूर्व वर्षों के जीडीपी आंकड़ों का संशोधन इस प्रकार से कर दिया कि यूपीए सरकार की विकास की दर नीचे झुक गयी और मोदी सरकार की विकास की दर औसत रूप से उससे आगे निकल गयी.
तीसरी बात जनवरी 2019 में, सरकार ने नेशनल सैंपल सर्वे कार्यालय द्वारा किये गये पीएलएफएस 2017-18 (पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे 2017-18) के परिणाम को सार्वजनिक करने से मना कर दिया. नोटबंदी के बाद बेरोज़गारी से संबंधित यह पहला सर्वेक्षण था. सरकार के इस निर्णय से नाराज़ हो कर राष्ट्रीय सांख्यिकीय आयोग के कार्यकारी अध्यक्ष समेत दोनों स्वतंत्र सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया.
जब बेरोज़गारी पर सरकार की आलोचना होती है, तो जवाब में श्रम मंत्रालय के मंत्री कहते हैं कि “रोज़गार के सर्वेक्षण का कोई महत्व नहीं, रोज़गार तो बढ़ा ही है”. जब आप आर्थिक आंकड़े और उन आंकड़ों को मापने की सांख्यिकीय पद्धति, साफ तौर पर जनता के सामने नहीं रखेंगे, तब आपकी बातों को सर आंखों पर रखने के अलावा और कोई चारा भी तो नहीं.
चलिये, जहां देश में लोकतंत्र के सारे स्तंभ कमजोर होते जा रहे हैं, वहां सांख्यिकीय संस्थानों को भी उस सूची में शामिल कर लेते हैं.
वैज्ञानिक पद्धतियों पर आधारित अर्थशास्त्र
भारत के सांख्यिकीय संस्थान बहुत पुराने हैं, और उनकी नींव भी गहरी है.
मोदी सरकार ने ‘इंस्टिट्यूट ऑफ एमिनेंस’ नामक एक तमगा ज़रूर बनाया है, जो एक संस्थान को तो चालू होने से भी पहले इनाम कर दिया गया है. पर भारत के बहुत से प्रसिद्ध संस्थानों को स्थापित करने का श्रेय प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को जाता है. विज्ञान, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, अंतरिक्ष अन्वेषण, और परमाणु अनुसंधान जैसे अनेक क्षेत्र है, जिनमें उन्होंने संस्थान स्थापित किये.
नेहरू अर्थशास्त्र के क्षेत्र में वैज्ञानिक पद्धतियों के महत्व को भी बखूबी समझते थे. उनके नेतृत्व में 1959 में संसद ने भारतीय सांख्यिकीय संस्थान को ‘इंस्टिट्यूशन ऑफ़ नेशनल इंर्पोटेंस’ का दर्ज़ा दिया. 1931 में इस संस्थान की स्थापना की थी प्रोफेसर पी सी महालनोबिस ने, जो भारतीय सांख्यिकी के पिता के रूप में जाने जाते हैं. महालनोबिस योजना आयोग के सदस्य भी रहे और भारत की द्वितीय पंचवर्षीय योजना उन्हीं के बनाये आर्थिक मॉडल पर आधारित थी. ‘बिगडेटा’ जैसी सोच को प्रथम बार भारत में उपयोग करने का श्रेय भी उनको जाता है, एक ऐसे समय में जब यह शब्द इज़ाद ही नहीं किया गया था. और भारत के दो प्रमुख सांख्यिकीय संस्थान: केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन और राष्ट्रीय प्रदर्श सर्वेक्षण स्थापित करने में भी उनका ही योगदान है.
केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन, जिसको अब केन्द्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) बोला जाता है, देश में सांख्यिकी संबंधित गतिविधियों पर नज़र रखता है. देश का बही-खाता रखना, विकास की दर का अनुमान लगाना, उद्योगों का सर्वेक्षण करना इत्यादि सीएसओ की जिम्मेदारियों में शामिल है.
राष्ट्रीय प्रदर्श सर्वेक्षण (एनएसएस) घर-घर किया जाने वाला एक सर्वेक्षण है जो राष्ट्रीय प्रदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) द्वारा अधिकतर सालाना तौर पर किया जाता है. इसकी शुरुआत 1950 में कुल 1833 गांवों से हुई थी, और अब तक इसके 75 चक्र पूरे हो चुके हैं. इसका आकार और लक्ष्य, दोनों ही पहले से काफ़ी बढ़ चुके हैं — घरेलू खपत और बेरोज़गारी मापने के अलावा अब साक्षरता, स्वच्छता, और स्वास्थ्य जैसी चीजों की स्थिति मापने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जा रहा है.
1972 से रोज़गारी-बेरोज़गारी का सर्वेक्षण एनएसएस के साथ हर पांचवे वर्ष में किया जा रहा है. इस सर्वेक्षण से उपजे कार्यबल संबंधित आंकड़े मुख्य रूप से देश की योजनाओं और नीतियों को बनाने में प्रयोग किये जाते हैं.
2012-2018: बेरोज़गारी गायब हुई या आंकड़े?
आख़िरी बार रोज़गारी-बेरोज़गारी सर्वेक्षण (ईयूएस) 2011-12 में एनएसएस के 68वें चक्र के साथ, यूपीए के कार्यकाल में हुआ था. पंचवर्षीय होने के हिसाब से अगला सर्वेक्षण 2016-17 होना चाहिए था. किन्तु जून 2017 में मोदी सरकार ने घोषित किया कि वह ईयूएस की जगह एक नया सर्वेक्षण ला रही है, जिसका नाम है – आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस). सरकार के अनुसार यह सर्वे शहरी इलाक़ों से त्रैमासिक और ग्रामीण इलाक़ों से सालाना अवधि पर डेटा उपलब्ध करा सकेगा, जबकि ईयूएस सिर्फ़ पाँच साल में एक बार डेटा उपलब्ध करता था.
पर इस प्रथम सर्वेक्षण का परिणाम घोषित करने की दिसम्बर 2018 की तिथि, जो सरकार ने ख़ुद तय की थी, आयी और चली गयी, पर परिणाम घोषित नहीं किया गया. बल्कि इसके बाद घटना का चक्र कुछ ऐसा घूमना शुरू हुआ कि आज तक देश के सामने 2012 के बाद से श्रम बल से सम्बंधित आधिकारिक आंकड़े नहीं हैं.
सबसे पहले तो सरकार के पीएलएफएस के परिणाम को सार्वजनिक न करने के निर्णय से नाराज़ होकर एनएससी के दो सदस्यों ने इस्तीफा दिया, जिसकी वजह से सरकार को 30 जनवरी को एक स्पष्टीकरण देना पड़ा कि वह सर्वे के परिणाम को कुछ देर बाद घोषित करेगी. पर अगले ही दिन 31 जनवरी को सर्वे के परिणाम को बिज़नेस स्टैंडर्ड अखबार ने लीक कर दिया.
फिर फरवरी के अंतिम सप्ताह में यह सामने आया कि सरकार ने पीएलएफएस को पूरी तरह से नज़रअंदा करके, श्रम ब्यूरो द्वारा किये जा रहे मुद्रा योजना के सर्वेक्षण से रोज़गार सृजन का डेटा लेने का निर्णय लिया है.
पर मार्च के मध्य में एक और खबर आयी कि एक विशेषज्ञ समिति ने मुद्रा योजना के सर्वेक्षण में कुछ खामियां पायी हैं, जिसकी वजह से सरकार ने इस सर्वेक्षण के भी परिणाम को चुनाव पूरा होने तक न घोषित करने का फैसला किया है. एक दफा पहले भी श्रम ब्यूरो के रोज़गारी-बेरोज़गारी सर्वेक्षण को सरकार ने सार्वजनिक नहीं किया था और बिज़नेस स्टैंडर्ड अखबार ने 11 जनवरी को उस सर्वे को भी लीक कर दिया था.
वैसे तो मोदी सरकार बेरोज़गारी से संबंधित कोई भी आधिकारिक डेटा सार्वजनिक करने के लिए तैयार नहीं है, परंतु बार-बार दावा करती है कि 2014 से उसने करोड़ों रोज़गार के मौके सृजित किए हैं. कभी-कभी प्रासंगिक प्रमाण दिये जाते हैं, जैसे श्रम मंत्री का कहना कि जनता को उनके चुनाव क्षेत्र में जाकर देखना चाहिए कि कितना रोज़गार उत्पन्न हुआ है, और प्रधानमंत्री का यह उदाहरण देना कि आप के दफ्तर के सामने वाली पकौड़ों की दुकान रोज़गार का सबूत है. हालांकि आजकल मोदी अपने भाषणों में भिन्न-भिन्न सूत्रों से आंकड़ें दे रहे हैं, जैसे प्रॉविडेंट फ़ंड, आयकर विभाग, पेन्शन योजना और मुद्रा योजना.
पर जैसा कि लीक हुए सारे सर्वेक्षण बता रहें हैं, देश बेरोज़गारी के एक भारी संकट से गुज़र रहा है. नोटबंदी के बाद वाले वर्ष 2017-18 में बेरोज़गारी की दर 6.1 प्रतिशत तक पहुंच चुकी थी, जो पिछले 45 वर्षों में सर्वाधिक है. यह भाजपा के लिए बुरी ख़बर है, क्योंकि 2014 में वह विकास और रोज़गार के वादों के बूते पर चुनाव जीती थी.
राजनीति का गणित
भारत के कार्यबल की आबादी लगभग 52 करोड़ है. एक अनुमान के हिसाब से हर साल 47.5 लाख नये श्रमिक इस आबादी में शामिल होते जा रहे हैं. देश के 65 प्रतिशत वर्ग की उम्र 35 साल से कम है, पर चिंता का विषय यह है कि भारत का यह जनसांख्यिकीय लाभ कहीं घाटे में न परिवर्तित हो जाये. एक तरफ मोदी सरकार के जीडीपी के आंकड़े बढ़त दिखा रहे हैं, तो दूसरी तरफ लीक हुए विभिन्न सर्वेक्षण बढ़ती बेरोज़गारी दर्शा रहे हैं. ये दोनों बातें मेल नहीं खा रही हैं.
जीडीपी पर बने शंका के इस माहौल को जल्द से जल्द दूर किया जाना चाहिए. इतना ही नहीं, आर्थिक आंकड़ों के मामले में पूरी पारदर्शिता और वैज्ञानिक पद्धतियों के उपयोग को फिर से बहाल किया जाना चाहिए. इन सुधारों के अभाव में हम अर्थशास्त्र के विश्वसनीय सूचक नहीं ढूंढ पायेंगे, जो बेरोज़गारी की समस्या के निवारण के लिए बहुत ज़रूरी है.
कांग्रेस पार्टी के चुनाव घोषणापत्र में रोज़गार सृजन को प्राथमिकता दी गयी है, परंतु भाजपा शायद 2014 में दिये गये अपने वादे खुद भूल गयी है और इस चुनाव में अपना ध्यान कट्टर राष्ट्रवाद पर केंद्रित कर रही है. अपनी पार्टी के पक्ष में बोलते हुए रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने जनसाधारण को चेतावनी दी कि अगर नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री नहीं बनाया गया तो देश 50 साल पीछे चला जाएगा.
क्या यह नहीं कहा जा सकता कि मोदी सरकार के समय में बेरोज़गारी की दर के हिसाब से मापें तो देश 45 साल पीछे पहले ही पहुंच चुका है? सच तो यह है कि रक्षा मंत्री की चेतावनी को उनके मन की भावना से अधिक और कुछ नहीं समझ सकते, क्योंकि उनके दावे का आधार किसी विश्वसनीय सांख्यिकीय मापदंड पर बना नहीं दिख रहा.
***
(प्रभात गर्ग विश्लेषक और अभियंता हैं)
Also Read
-
Congresswoman Ilhan Omar on Kamala Harris’s Gaza ‘blindspot’, and how that could cost her the election
-
DD News prime time: Funded by the public, against the public
-
Media khatre mein hain: How Trump 2.0 could threaten America’s free press
-
‘Only law for people weakened’: Nearly 2 decades on, gaping holes in RTI machinery
-
‘Will give Rs 1 lakh if…’: Are Maharashtra voters more worried about price rise than polarisation?