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किस्सा कश्मीर का पार्ट-2 : लोकतंत्र की रंगीनियां और परिवारवाद के संकट

साल 1977 का विधासभा चुनाव आते-आते झेलम और गंगा दोनों में काफ़ी पानी बह चुका था. 1953 के बाद से ही लगातार जेल से भीतर-बाहर होते कश्मीर के शेर भी शायद अब थक रहे थे और 1972 की जंग में पाकिस्तान को हराने और दो हिस्सों में बांटने के बाद भयानक आत्मविश्वास से लबरेज़ इंदिरा गांधी लोकसभा का चुनाव हार कर सत्ता से बाहर हो चुकी थीं. केंद्र में अब मोरारजी देसाई के नेतृत्व में एक गठबंधन सरकार थी और जम्मू-कश्मीर में शेख़ कांग्रेस की मदद से सत्ता में.

तमाम उठापठक और गिरफ़्तारियों के बावजूद शेख़ के मन में महात्मा गांधी और नेहरू को लेकर एक सम्मान और अपनाइयत का जो भाव था, वह हमेशा रहा. अपनी जीवनी आतिश-ए-चिनार में वह कई जगहों पर अपनी गिरफ़्तारी को लेकर स्वाभाविक रूप से तल्ख़ और दुखी नज़र आते हैं, लेकिन नेहरू को वह हमेशा एक दोस्ताना मुहब्बत से याद करते हैं, तो गांधी के लिए कहते हैं कि ‘अगर गांधी ज़िंदा होते, तो यह सब नहीं होता.’ अक्सर कहा जाता है कि शेख़ ने दिल्ली की सत्ता से रिश्ते बनाये रखने के लिए यह किया, लेकिन ऐसा कहने वालों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि सत्ता से बाहर हो चुकी नेहरू की बेटी को उन्होंने बेग़म अकबर जहां से ख़ाली करा श्रीनगर से चुनाव लड़ने का ऑफर दिया. लेकिन अपनी हार और कांग्रेस के भीतर मची आपाधापी के कारण हतोत्साहित इंदिरा ने शेख़ की जगह कश्मीर में अपने सिपहसालार मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बात सुनी, जिनकी नज़र मुख्यमंत्री की कुर्सी पर थी.

शेख़ पर भ्रष्टाचार और नाकामी का आरोप लगाकर कांग्रेस ने उनसे समर्थन वापस ले लिया तथा सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया. लेकिन शेख़ ने जम्मू और कश्मीर के संविधान की धारा 53 के तहत मिले अधिकार का उपयोग करते हुए तुरंत विधानसभा भंग करने तथा नये चुनाव कराने की मांग की. दिल्ली की सत्ता बदलने के साथ केंद्र का रवैया भी बदल चुका था और मुफ़्ती की उम्मीदों पर पानी फेरते हुए राज्यपाल एलके झा ने विधानसभा भंग कराकर नये चुनाव कराने की घोषणा कर दी.

किस्सा कश्मीर का पार्ट-1 : ‘मेड बाइ ख़ालिक़’

किस्सा कश्मीर का पार्ट-3 : लोकतंत्र से जनता की विदाई

1977 के विधानसभा चुनाव कश्मीर के इतिहास के सबसे रोचक और गहमागहमी वाले चुनाव थे. केंद्रीय सत्ता पर काबिज़ जनता पार्टी के मैदान में उतरने की वजह से अब तक कांग्रेस, नेशनल कॉन्फ्रेंस और जनसंघ के बीच सिमटे रहने वाले चुनावों की जगह इस बार के कश्मीरी चुनावों में भारतीय राजनीति के लगभग हर रंग दिखे. शेख़ ने इंदिरा गांधी को गठबंधन का प्रस्ताव दिया, लेकिन कांग्रेस को यह मंज़ूर नहीं था तो वह अकेले उतरी. इन चुनावों के पहले न तो जनता पार्टी की वहां कोई इकाई थी और न ही कोई नेता. मो-ए-मुक़द्दस आंदोलन के बाद से ही लगभग निष्क्रिय पड़े ग़ुलाम मोहिउद्दीन कारा ने कश्मीर में जनता पार्टी की स्थापना की. पार्टी के स्थापना समारोह में घाटी में जनसंघ के नेता पंडित टीका लाल टिपलू, प्लेबिसाइट फ्रंट में रहे ग़ुलाम रसूल कोचक और प्रभावशाली मोटर ड्राइवर्स असोसिएशन के अध्यक्ष भी मौज़ूद थे.

लोकसभा चुनावों की जीत से उत्साहित जनता पार्टी सभी प्रकार के शेख़ विरोधी तत्त्वों को एक मंच पर लाकर कश्मीर में सफलता पाना चाहती थी. मौलाना मसूदी, मीरवायज़ मौलाना फ़ारूक़, मौलाना अब्बास अंसारी, अब्दुल गनी लोन, ग़ुलाम अहमद मीर ही नहीं, बल्कि कभी शेख़ साहब के दोस्त रहे और फिर 1947 में कश्मीर के पाकिस्तान में विलय के समर्थन के कारण शेख़ द्वारा राज्य से निष्कासन के बाद से दिल्ली में बसे प्रेमनाथ बज़ाज़ तथा अली मोहम्मद तारक भी शेख़ के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलने कश्मीर आ गये. शेख़ के पुराने कमांडर मौलाना मसूदी को जनता पार्टी की कमान सौंपी गयी. इस तरह कश्मीरी इतिहास में पहली बार एक त्रिकोणीय मुक़ाबला तय ठहरा.

देखा जाये, तो यह शेख़ अब्दुल्ला के लिए भी अपनी लोकतांत्रिक ताक़त सिद्ध करने का मौक़ा था, आख़िर वह 1951 के बाद कोई चुनाव नहीं लड़ पाये थे. मुफ़्ती मोहम्मद सईद के नेतृत्व में कांग्रेस पहली बार कश्मीर में एक ऐसा चुनाव लड़ रही थी, जब केंद्रीय सत्ता का समर्थन उसके साथ नहीं था; तो धुर दक्षिण से धुर वाम तक के सतरंगे पैरहन में केंद्रीय सत्ता के आत्मविश्वास से लैस जनता पार्टी भी इन चुनावों में जान लगा रही थी. तो मुक़ाबला दिलचस्प होना ही था.

सबसे पहली बात तो यही हुई कि पर्चे खारिज़ नहीं हुए और न ही निर्विरोध जीतें. गांदेरबल, अनंतनाग, कंगन, करनाह, पुलवामा और लोलाब जैसी कई सीटों पर कश्मीरी जनता को पहली बार वोट देने का अवसर मिला. दूसरी बात यह कि इन चुनावों में पहली बार इतने अलग-अलग रंग के नेता मंचों पर दिखे, तो बहसें राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय हुईं. छींटाकशी ने माहौल तनावपूर्ण बनाया तो रोचक भी. नेशनल कॉन्फ्रेंस, जमात-ए-इस्लामी, जनता पार्टी, जनसंघ, वामपंथी सभी रंग इस चुनाव में कश्मीरी जनता के सामने अपने-अपने सपने लेकर उपस्थित थे और लोकतंत्र के महापर्व में वे उनमें से से किसी एक को चुनने के लिए आज़ाद थे. इससे आगे बढ़कर, इन चुनावों में केंद्र सरकार द्वारा मतदान, गिनती और निर्णय की प्रक्रिया में कोई हस्तक्षेप न करने के निर्णय ने कश्मीर में पहली बार एक ऐसा चुनाव संपन्न होने का अवसर दिया, जिसमें जनता अपने वोट की ताक़त का एहसास कर सकती थी.

उस दौर में श्रीनगर के उपायुक्त और इन चुनावों के रिटर्निंग ऑफिसर रहे वज़ाहत हबीबुल्ला अपनी किताब ‘’माय कश्मीर : ऑफ़ द लाइट” में बताते हैं–  “जब प्रधानमंत्री देसाई 25 जून 1977 को श्रीनगर आये, तो राज्य के पुलिस और प्रशासन के सभी वरिष्ठ अधिकारियों की बैठक बुलायी गयी. जब हम बैठक की तैयारी कर रहे थे, तो राज्य पुलिस के इंस्पेक्टर जनरल पी ग़ुलाम हसन शाह मुझे एक तरफ़ ले गये. उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री हमसे अपनी पार्टी की जीत सुनिश्चित करने के लिए कहेंगे और हमें उनकी बात माननी ही चाहिए, क्योंकि यह राष्ट्र के प्रति कर्तव्य है. मैंने उनसे कहा कि चुनावों में गड़बड़ कराने के मामले में मैं पूरी तरह अनुभवहीन और यहां तक कि अप्रशिक्षित हूं. अगर यह सरकार की नीति है, तो मैं यह करने में असमर्थ हूं और मुझे अपने पद से हटा दिया जाये.”

लेकिन प्रधानमंत्री से हमारी बैठक सौहार्द्रपूर्ण रही, जिसमें उन्होंने बम्बई राज्य की राज्य सेवाओं के अपने अनुभव साझा किये और पुलिस द्वारा उनके लिए पैदा की गयी परेशानियों का ज़िक्र किया. जब मुख्य सचिव ने उनसे सीधे यह पूछा कि चुनावों में राज्य प्रशासन के लिए उनकी क्या सलाह है? प्रधानमंत्री का जवाब साधारण सा था– यह कोई नहीं जानता कि कश्मीर में किस पर भरोसा किया जाये. 30 जून 1977 के जम्मू और कश्मीर विधानसभा चुनाव राज्य के राजनीतिक विकास में मील के पत्थर की तरह हैं. जनता की बढ़-चढ़ के हिस्सेदारी और राज्य के राजनैतिक नेतृत्व के हर हिस्से से उम्मीदवारों की भागीदारी के कारण कुछ लोग मानते हैं कि ये राज्य में हुए सबसे साफ़-सुथरे चुनाव थे.

ऐसे में ज़ाहिर था कि इन चुनावों में दोनों पक्षों के बीच तल्ख़ी भी सामने आती. शेख़ अब्दुल्ला इनके केंद्र में थे, तो उनके ख़िलाफ़ हर तरह के आरोप लगाये गये और जनता को हर तरह के प्रलोभन देने की कोशिश की गयी. हालत यह थी कि पूर्व जनसंघी ही नहीं, तत्कालीन गृहमंत्री चरण सिंह भी धारा 370 हटाने का आश्वासन दे रहे थे, तो दूसरे कई महत्त्वपूर्ण नेता 370 को जारी रखने की क़समें खा रहे थे. हालत यह कि चुनावों के बीच जब शेख़ अब्दुल्ला को दिल का दौरा पड़ा, तो ख़ुद लगातार बीमार चल रहे तत्कालीन रक्षा मंत्री जगजीवन राम ने कहा कि, “जिनको दिल के दौरे पड़ रहे हों, उन्हें आराम करना चाहिए.” दोनों दलों के बीच हिंसक झड़पें भी हुईं, व्यंग्यबाण बोले गये, शेख़ साहब ने अपनी भाषण क्षमता का शानदार उपयोग किया, तो अशोक मेहता जैसे समाजवादी नेताओं ने उनका जवाब देने में कोई हील-हुज्ज़त नहीं की. नतीजा यह कि चुनावों में जनता ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया.

67 प्रतिशत से अधिक जनता की चुनावों में भागीदारी अब तक की सर्वाधिक थी. शेख़ जैसे कश्मीरी अस्मिता के प्रतीक बन गये. नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कुल 76 में से 47 सीटों पर जीत हासिल की, जबकि जनता पार्टी 16 और कांग्रेस केवल 11 सीट जीत सकीं. हालांकि घाटी से बाहर नेशनल कॉन्फ्रेंस सिर्फ़ 7 सीटें जीत पायी. इधर जमात-ए-इस्लामी की सीटें पिछली विधानसभा के 5 से घटकर 1 एक हो गयीं, तो लंबे समय से सत्ता में रही कांग्रेस घाटी के भीतर कोई सीट नहीं जीत पायी. ज़ाहिर है कि इन चुनावों ने कश्मीर घाटी में शेख़ अब्दुल्ला की लोकप्रियता को अप्रश्नेय रूप से साबित किया. चुनावों के बाद अपने पहले सार्वजनिक भाषण में श्रीनगर के पोलोग्राउण्ड में इकट्ठा हुई तीन लाख से अधिक जनता को संबोधित करते हुए उन्होंने इक़बाल का शेर पढ़ा– जब इश्क़ सिखाता है आदाब ख़ुद आगाही/खुलते हैं ग़ुलामों पर असरार-ए-शहंशाही. 9 जुलाई 1977 को शेख़ ने कश्मीर के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.

ज़ाहिर है कि तमाम कशमकश के बावजूद भी यह जम्मू और कश्मीर के लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे ख़ूबसूरत दौर था, इसलिए भी कि चुनावों के पहले की तल्खियां चुनाव के बाद भुला दी गयीं. मोरारजी देसाई तथा इंदिरा गांधी ने शेख़ अब्दुल्ला को खुले दिल से बधाई भेजी. कांग्रेस ने विधानसभा में नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ काम करने का निर्णय लिया और शेख़ ने बदले में इंदिरा जी को श्रीनगर आने का निमंत्रण दिया. नेहरू परिवार के प्रति शेख़ का स्नेह और अपनापन सारे उतार-चढ़ावों के बावजूद बना रहा. ऐसे वक़्त में जब इंदिरा गांधी अपने सबसे मुश्किल समय से गुज़र रही थीं, शेख़ ने विधानसभा में कहा- नेहरू परिवार से हमारा रिश्ता निजी है. ये रिश्ते तब भी बने रहे, जब मै जेल में था. श्रीमती इंदिरा गांधी से वैचारिक मतभेद होने के बावज़ूद हमें उनकी भूमिका के सकारात्मक पक्ष को देखना होगा, एक ऐसी भूमिका जिसे हम अपने कुछ सबसे महत्त्वपूर्ण मामलों में अनदेखा नहीं कर सकते. केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी हमारे दोस्त हैं, जिनमें प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और सूचना मंत्री शामिल हैं. दरअसल हम हर उस पार्टी से दोस्ताना रिश्ते रखेंगे, जो केंद्र में सत्ता में होगी. वहीं कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव ईएमएस नंबूदिरीपाद ने कांग्रेस और जनता पार्टी के चुनावों के दौरान अपनाये गये रवैये की आलोचना करते हुए कहा कि कश्मीर मुद्दे पर पूरी तरह से पुनरीक्षण करने की आवश्यकता है.

लेकिन चुनाव ख़त्म होने से मसाइल ख़त्म नहीं हो जाते. कश्मीर की क़िस्मत में ख़ुशी और लोकतंत्र का उल्लास बहुत लंबा नहीं था. अपने अंतिम दिनों में शेख़ अब्दुल्ला उन्हीं कमज़ोरियों के शिक़ार हुए, जो भारतीय उपमहाद्वीप में सामान्य हैं. उत्तराधिकारी चयन उनके लिए भी लोकतांत्रिक नहीं पारिवारिक मामला बन गया. जीवन भर शेख़ के साथ हर संघर्ष में साथ रहे और 1977 की ऐतिहासिक जीत में प्रमुख भूमिका निभाने वाले मिर्ज़ा मोहम्मद अफ़ज़ल बेग़ को 1978 में उपमुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देने के लिए कहा गया और फिर पार्टी से निकाल दिया गया. आरोप था – ग़द्दारी! पार्टी पर उनके दामाद जीएम शाह और बेटे फ़ारूक़ का प्रभुत्व बढ़ता चला गया.  फ़क्र-ए-कश्मीर के नाम से जाने जानेवाले मिर्ज़ा ने 11 जून 1982 को आख़िरी सांस ली. कहते हैं कि जब बेग़ साहब मृत्युशैया पर थे, तो शेख़ उन्हें देखने गये. शेख़ ने पूछा, आप मुझे पहचान रहे हैं तो बेग़ साहब ने कहा, जब मैं पचास सालों में आपको न पहचान सका, तो अब क्या पहचानूंगा! उनके बेटे मिर्ज़ा महबूब बेग़ 2014 में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी में शामिल हो गये.

शेख़ परिवार के भीतर भी फ़ारूक़ के नाम पर आम सहमति नहीं थी. कश्मीर की राजनीति में पहले से सक्रिय रहे उनके दामाद ग़ुलाम मोहम्मद शाह ख़ुद को स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानते थे. लेकिन शेख़ साहब ने बेटे के पक्ष में फ़ैसला लिया और 21 अगस्त 1981 को इक़बाल पार्क की सार्वजनिक सभा में उन्होंने फ़ारूक़ को “कांटों का ताज” पहनाने की घोषणा कर मेडिकल की शिक्षा हासिल करके लौटे फ़ारूक़ को अपने मंत्रिमंडल में स्वास्थ्य मंत्री के रूप में शामिल किया. मीर कासिम ने अपनी जीवनी में कहा है कि जब वह शेख़ साहब से मिलने गये, तो शेख़ ने उन्हें पार्टी में लौटने और नेतृत्व संभालने को कहा. हालांकि उस दौर के हालात और मीर कासिम का “रुतबा” देखते हुए यह कोरी गपबाज़ी ज़्यादा लगती है. 1982 की गर्मियों में शेख़ की तबीयत काफ़ी बिगड़ रही थी. अपना अंत वह शायद स्पष्ट देख पा रहे थे. ऐसे में डॉक्टरों की सलाह को नज़रअंदाज़ करते हुए उन्होंने 15 अगस्त 1982 के आयोजन में हिस्सा लिया था. 8 सितंबर 1982 को शेख़ अब्दुल्ला इस दुनिया-ए-फ़ानी से विदा हुए.

इंदिरा गांधी ने शेख़ की मृत्यु की ख़बर मिलते ही सबसे पहले फ़ारूक़ को मुख्यमंत्री पद सुनिश्चित किया. कश्मीरियों तक यह ख़बर पहुंचने से पहले ही कैबिनेट की आपात बैठक बुलायी गयी, जिसमें जीएम शाह ने फ़ारूक़ के नाम का प्रस्ताव किया और डीडी ठाकुर ने समर्थन. रात के दस बजे फ़ारूक़ ने राज्य के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. 1980 के आम चुनावों में शेख़ के निर्देश पर फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने देशभर में इंदिरा गांधी के पक्ष में चुनाव प्रचार किया था और इंदिरा का यह क़दम कश्मीर और भारत के बीच भरोसा मज़बूत करने की दिशा में एक ठोस पहल लग रहा था. लेकिन जैसा कि बलराज पुरी कहते हैं, “कश्मीर समस्या को दोबारा ज़िंदा करने के लिए असाधारण प्रतिभा की आवश्यकता थी.” 1983 से 1987 का इतिहास पहले इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी की अभूतपूर्व राजनैतिक ग़लतियों और फ़ारूक़ अब्दुल्ला की अपरिपक्वता से कश्मीर समस्या को पुनर्जीवित करने का इतिहास है.

अपने पिता की गिरफ़्तारी का लगभग पूरा वक्फा इंग्लैंड में गुज़ारने वाले युवा और उत्साही फ़ारूक़ अब्दुल्ला को कुछ समस्याएं विरसे में मिली थीं और कुछ अपने अनुभवहीन अतिउत्साह में उन्होंने पैदा कर लीं. उन्होंने भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जंग छेड़ना तय किया, तो साथ ही इस बहाने पार्टी में अपने प्रतिद्वंद्वियों को निपटाना भी- जीएम शाह और डीडी ठाकुर जैसे बड़े नेताओं को सार्वजनिक रूप से भ्रष्ट बताते हुए कैबिनेट में शामिल नहीं किया गया. भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच करने के लिए न्यायिक आयोग बनाये गये, तो जांच की आंच जिन पर आयी उन्हें फ़ारूक़ के ख़िलाफ़ होना ही था.

लेकिन जो सबसे बड़ा मुद्दा बना वह था ‘जम्मू एंड कश्मीर ग्रांट ऑफ़ परमिट फॉर रिसेटलमेंट इन (ऑर परमानेंट रिटर्न टू) द स्टेट बिल’ (संक्षेप में ‘पुनर्वास बिल’). शेख़ द्वारा प्रस्तुत और जम्मू-कश्मीर विधानसभा द्वारा पारित इस बिल का उद्देश्य 14 मई 1954 के पहले कश्मीर से बाहर गये किसी कश्मीरी नागरिक या उसके वारिसों (पत्नी या विधवा) को भारतीय तथा जम्मू-कश्मीर के संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेने पर कश्मीर लौटने का अधिकार देना था. इस बिल को लेकर विवाद पहले भी हुआ था. विधानसभा के भीतर कांग्रेस और अवामी एक्शन कमेटी के अलावा सभी दलों के सदस्यों ने इस पर असहमति ज़ाहिर की थी. भारतीय जनता पार्टी इसे ‘उपद्रवी क़ानून’ कह रही थी, तो जनता पार्टी के तत्कालीन महासचिव सैयद शहाबुद्दीन ने कहा कि, ‘यह क़ानून केंद्र सरकार के नागरिकता प्रदान करने के एकल अधिकार का उल्लंघन है.’ कांग्रेस के डॉ करण सिंह ने इस बिल को ‘भयानक संभावनाओं से भरा हुआ’ बताया था.

असल में इस क़ानून के बाद सबसे बड़ा ख़तरा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से भारत विरोधी तत्त्वों के आने का था, तो एक भय 1947 के बाद जम्मू में बसे विस्थापितों का भी था कि वहां से पलायित मुसलमानों की जो संपत्तियां उन्हें दी गयी हैं, वे उनके लौटने पर छिन जायेंगी. इस बिल के विधानसभा में पास हो जाने के बावजूद अभी राज्य के तत्कालीन राज्यपाल बीके नेहरू की सहमति नहीं मिली थी और एक तरह से यह ठंडे बस्ते में ही पड़ा था. लेकिन फ़ारूक़ के शपथग्रहण के नौवें दिन ही राज्यपाल ने इसे वापस कर दिया और फ़ारूक़ ने इसे निजी अपमान की तरह लिया. वैसे भी जिस पिता की विरासत के रूप में उन्हें सत्ता मिली थी, उसके आख़िरी बिल से वह किनारा नहीं कस सकते थे. बिल को दोबारा पेश किया गया. टकराव एकदम सुनिश्चित था कि विधानसभा में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मंगत राम ने “शांति और धीरज” से इस पर विचार करने की अपील की और फ़ारूक़ ने इसे 4 अक्टूबर तक के लिए टाल दिया. इस बीच फ़ारूक़ दिल्ली गये और इंदिरा गांधी से मुलाक़ात के दौरान एक फार्मूला निकला, जिसके तहत 4 अक्टूबर को यह बिल विधानसभा में पास किया गया. लेकिन साथ ही फ़ारूक़ ने घोषणा की कि जब तक सुप्रीम कोर्ट इस संबंध में फ़ैसला नहीं सुना देता, तब तक यह बिल वैध नहीं माना जायेगा.

लेकिन अभी विवादों को और बढ़ना था. फ़ारूक़ पार्टी के भीतर और बाहर अपना प्राधिकार स्थापित करने के लिए जल्द से जल्द चुनाव चाहते थे. श्रीमती गांधी ने उनके सामने नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन का प्रस्ताव रखा. फ़ारूक़ राज़ी नहीं हुए. फ़ारूक़ चाहते थे कि दोनों पार्टियां चुनाव अलग-अलग लड़ें और अगर ज़रूरी हो तो बाद में उनके बीच गठबंधन हो. इंदिरा गांधी ने इसे प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया. हालत यह कि पूरे दस दिन उन्होंने जम्मू-कश्मीर में चुनाव प्रचार किया. “पुनर्वास बिल” को मुद्दा बनाया गया और जम्मू में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण जैसे हालात बन गये.

तवलीन सिंह ने अपनी किताब में इस चुनाव के कुछ रोचक किस्से बताये हैं. इंदिरा जी के सभी सलाहकार और दिल्ली के अखबार उन्हें पूर्ण बहुमत दिला रहे थे लेकिन ज़मीनी हालात उलट थे. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के चलते कांग्रेस ने भाजपा की परंपरागत सीटों पर तो कब्ज़ा किया और 26 सीटें तथा 30.1 फ़ीसदी वोट हासिल किये, लेकिन घाटी में उसे कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली, वहीं इसी की वजह से नेशनल कॉन्फ्रेंस न केवल घाटी में अपनी पकड़ बनाये रखने में सफल हुई, बल्कि जम्मू में भी उसने पिछली बार से एक सीट अधिक जीती और 46 सीटों के साथ बहुमत हासिल किया और वोटिंग प्रतिशत बढ़कर 73 पहुंच गया जो आज भी एक रिकॉर्ड है. भीम सिंह की पैंथर्स पार्टी और अब्दुल गनी लोन की पीपुल्स कॉन्फ्रेंस को एक-एक सीट पर सफलता मिली और बाक़ी दो सीटें निर्दलियों के खाते में गयीं. नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के बीच हिंदू और मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण का असर यह हुआ कि न तो भाजपा जम्मू क्षेत्र में कोई सीट जीत सकी, न जमात-ए-इस्लामी घाटी में. हालत यह कि फ़ारूक़ ने तीस के दशक से ही शेख़ के धुर विरोधी रहे मीर वायज़ से भी हाथ मिला लिया.

लेकिन पिछले चुनावों के उलट दिल्ली ने इस बार बड़ा दिल नहीं दिखाया और चुनावपूर्व की तल्खियां घटने की जगह बढ़ती गयीं. नब्बे के दशक के वबाल की जड़ें इस दशक में इंदिरा और फ़ारूक़ की ग़लतियों में भी हैं, जिन पर बात अगली किस्त में.

(अशोक कुमार पाण्डेय चर्चित किताब ‘कश्मीरनामा’ के लेखक हैं और इन दिनों कश्मीरी पंडितों पर एक किताब लिख रहे हैं)