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1977 का लोकसभा चुनाव: पटरी पर लौटी लोकतंत्र की गाड़ी
1971 के चुनावों के 11 महीने बाद भारत पाकिस्तान के बीच जंग छिड़ गयी. हिंदुस्तान की जीत हुई और इंदिरा गांधी के नाम का डंका बज गया. उनकी लोकप्रियता कई गुना बढ़ गयी. पर उसके बाद देश में हालात इतनी तेज़ी से बदले कि जब तक कांग्रेस होश में आती, बात काफ़ी हद तक बिगड़ चुकी थी. 1973-74 में खाद्यान की कमी के साथ-साथ दूसरी तरफ़ मुद्रास्फीति ने आर्थिक गणित बिगाड़ दिया था. वहीं गुजरात और बिहार में राजनैतिक माहौल इस कदर ख़राब हो गया कि धरने और प्रदर्शन आये दिन की बात हो गये. और आख़िर में इंदिरा का संविधान की आत्मा के साथ छेड़-छाड़ कोढ़ में खाज का काम कर गया.
छठवें आम चुनाव 1976 में होने थे, पर कुछ और ही गया. 1975 से लेकर 1977 के दौर की राजनीति भारतीय इतिहास में एक ब्लैक होल की मानिंद है, जिसमें देश के सर्वोच्च संस्थानों की संप्रभुता और इस समाज को ढकेल दिया गया था. वो राजनीति का काला इतिहास है. पर शुक्र है कि देश की आत्मा यानी संविधान पर सिर्फ़ खरोंच ही आकर रह गयी. इसलिए 1977 के छठवें आम चुनाव सबसे अधिक महत्वपूर्ण कहे जा सकते हैं.
न्यायपालिका पर कब्ज़े का प्रयास
जैसा पिछले लेख में ज़िक्र हुआ था, बैकों के राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स के मुद्दे पर कांग्रेस सरकार की सुप्रीम कोर्ट में फ़जीती हुई थी. इंदिरा ने दोनों ही मामलों पर पहले अध्यादेश लाकर और फिर संसद में कानून पारित कर संशोधन कर दिये. यहीं से कांग्रेस और न्यायपालिका में टकराव शुरू हो गया था. इंदिरा ने इससे पार पाने के लिए अपने चहेते जस्टिस एएन रे को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया.
1973 की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की बेंच ने सविधान में संशोधन करने की बाबत याचिका पर सरकार का अनुमोदन 7:6 अनुपात में पारित कर दिया. पारित करने वालों में जस्टिस एएन रे भी थे. सरकार के लिए अब संविधान में अपने मुताबिक़ बदलाव करने का रास्ता खुल गया और इसका मतलब था कि अब विधायिका न्यायपालिका से ऊपर थी.
बिगड़ा देश का माहौल
गुजरात में छात्रों ने चिमन भाई पटेल की भ्रष्ट सरकार के ख़िलाफ़ जो आंदोलन शुरू किया था, उसकी धमक बिहार में सुनाई दी और वहां भी छात्रों ने बिगुल फूंक दिया. बिहार की छात्र संघर्ष समिति ने जय प्रकाश नारायण(जेपी) से गुहार लगायी कि वो नेतृत्व संभालें. जेपी इंदिरा का हद से ज़्यादा असंवैधानिक रवैया देख परेशान हो रहे थे. उन्हें शायद ऐसे ही आंदोलन की दरकार थी. नेतृत्व संभालने से पहले उन्होंने दो शर्तें रखीं- आंदोलन अहिंसक होगा और बिहार तक ही सीमित नहीं रहेगा. ज़ाहिर था वो इंदिरा पर हमला करना चाहते थे. उनके आने से बिहार आंदोलन अब जेपी आंदोलन बन गया. उन्होंने गांधी मैदान से ‘संपूर्ण क्रांति’ का आह्वान किया.
जेपी के आंदोलन को आज़ादी का दूसरा आंदोलन कहा गया. मार्च 1975 को जेपी ने संसद पर मार्च किया. रामचंद्र गुहा कहते हैं कि जेपी ने ख़ुद को महात्मा गांधी और इंदिरा सरकार को अंग्रेज़ी शासन के बराबर रखा. ये मार्च सफल रहा और ये उनका इंदिरा पर पहला बड़ा प्रहार था.
जब इंदिरा की जीत को कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया
1971 के चुनाव में इंदिरा ने रायबरेली सीट पर समाजवादी राज नारायण को मात दी थी. राज नारायण उन पर चुनाव में गड़बड़ी करने का आरोप लगाकर इलाहबाद कोर्ट चले गये. 12 जून, 1975 को कोर्ट ने इंदिरा की लोकसभा चुनाव में जीत को रद्द कर दिया. इससे उनकी लोकसभा सदस्यता छिन गयी. वो सुप्रीम कोर्ट गयीं जहां, मशहूर जज वी आर कृष्ण अय्यर ने हाईकोर्ट के फ़ैसले पर आंशिक रोक लगाते हुए इंदिरा को संसद में बैठने की मंज़ूरी दी, पर वोट का अधिकार नहीं दिया. अखबारों में इस फ़ैसले की व्याख्या कुछ इस तरह हुई कि उन्हें अब नैतिकता के आधार पर इस्तीफ़ा दे देना चाहिए.
इंदिरा पर चुनावी गड़बड़ियों के जो इलज़ाम लगे थे, वो बेहद मामूली थे, पर कुर्सी बचाने के लिए जो उन्होंने किया वो ग़ैरमामूली था. उनके शासन की विफलता, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, पक्षपाती रवैये का ज़िक्र आये दिन अखबारों में होने लगा, तो वो तिलमिला उठीं. 20 जून, 1975 को दिल्ली के बोट क्लब पर कांग्रेस ने एक जनसभा आयोजित की. इसमें कांग्रेस के डीके बरुआ ने प्रशंसा गान करते हुए कहा, ‘इंदिरा तेरे सुबह की जय, तेरी शाम की जय, तेरे काम की जय, तेरे नाम की जय.’ इसी सभा में इंदिरा ने ऐलान कर दिया कि वो इस्तीफ़ा नहीं देने वाली. दरअसल, इस्तीफ़ा न देने की सलाह उनके बेटे संजय गांधी और बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने दी थी.
उधर, 25 जून को जेपी ने दिल्ली के ही रामलीला मैदान में हुंकार रैली की. इसमें अपार जनसमूह टूट पड़ा. जेपी ने देश को बचाने की ख़ातिर कांग्रेस को गद्दी से हटाने की अपील की. ‘सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है’ का नारा गूंज उठा.
अपने ख़िलाफ़ विरोध बढ़ता देख इंदिरा किंकर्तव्यविमूढ़ हो गयीं, और सलाहकारों की बातों में आकर उन्होंने राष्ट्रपति से देश हित में संसद को भंग करने का अनुरोध किया. राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने उस बाबत अध्यादेश पर दस्तख़त कर दिये और रातोंरात देश में आपातकाल लागू हो गया. अखबारों प्रतिबंध लगा, विपक्षी नेता जेल में भर दिये गये, देश में मीसा कानून लागू कर दिया गया. आपातकाल लगाने के साथ ही उन्होंने ग़रीबी उन्मूलन और सामाजिक न्याय के नाम पर 20 सूत्रीय कार्यक्रम की घोषणा कर दी. और वहीं, संजय गांधी ने दिल्ली को पेरिस बनाने और जनसंख्या को समस्या मानते हुए नसबंदी कार्यक्रम के नाम पर कहर मचा दिया.
आपातकाल कुल 18 महीने लागू रहा. इस दौरान संविधान में एक के बाद एक संशोधन किये जाने लगे. अड़तीसवें के मुताबिक़ आपातकाल की न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती और उनतालीसवें के मुताबिक़ प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और लोकसभा के स्पीकर के चुनाव को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती.
कई विपक्षी नेता जैसे जेपी, लाल कृष्ण अडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी और पार्टी के कार्यकर्त्ता जेलों में ठूंस दिये गये. विपक्षी नेताओं और पत्रकारों पर किये गये दमन और नसबंदी कार्यक्रम में मुसलमानों को निशाना बनाये जाने की वजह से देश में इंदिरा और संजय गांधी के ख़िलाफ़ आक्रोश पैदा हो गया.
छठवें आम चुनाव की घोषणा क्यों हुई
जब राजनैतिक जानकारों ने लगभग मान लिया कि देश से लोकतंत्र ग़ायब हो चुका है, इंदिरा ने सबको चौंकाते हुए 1977 में आम चुनाव की घोषणा कर दी. जानकारों का मानना है कि इंदिरा के सलाहकारों और ख़ुफ़िया एजेंसियों ने उन्हें जानकारी दी कि आपातकाल को जनता ने सहर्ष स्वीकार किया है और ऐसे मौके पर चुनाव हुए तो उनकी भारी जीत होगी. संजय गांधी को यकीन था कि अलग-थलग और लगभग विक्षिप्त विपक्ष इतनी जल्दी कांग्रेस को चुनौती नहीं दे पायेगा, सो चुनाव में कांग्रेस की जीत पक्की है. दूसरी तरफ़, पाकिस्तान में आम चुनाव की घोषणा ने इंदिरा पर दवाब बना दिया था. कई जानकारों का ये भी मानना था कि पश्चिम देशों से आनेवाली प्रतिक्रियाओं ने भी उन्हें आपातकाल ख़त्म करने को मजबूर किया होगा.
जेपी ने विपक्ष को इकट्ठा किया
चुनावों की घोषणा होते, जनसंघ, भारतीय लोक दल (चौधरी चरण सिंह की पार्टी), सोशलिस्ट पार्टी और कांग्रेस (ओ) के नेता मोरारजी के निवास पर मिले और मिलकर इंदिरा का मुकाबला करने का निश्चय किया. 23 जनवरी को जेपी दिल्ली आये, उनकी मौजूदगी में ‘जनता पार्टी’ का गठन हुआ. कांग्रेस को सबसे बड़ा झटका तब लगा, जब दलित समाज के सबसे बड़े लीडर और कांग्रेस के नंबर 2 की पोज़ीशन वाले बाबू जगजीवन राम जनता पार्टी के साथ हो लिए.
हालांकि, इंदिरा और उनके विश्वस्त जीत को लेकर निश्चिंत थे, पर जनता दल की रैलियों में बढ़ती हुई भीड़ कुछ और ही इशारा कर रही थी. जेपी की तबीयत उन दिनों ठीक नहीं थी, पर इस हालत में भी वो रैलियां कर रहे थे. उन्होंने लोगों को कहा कि अगर इस बार इंदिरा गांधी जीत गयीं, तो ये देश में आख़िरी चुनाव होंगे.
वहीं, इंदिरा गांधी अपने भाषणों में बार-बार कहतीं कि विपक्ष विदेशी ताक़तों से साथ मिलकर देश को कमज़ोर कर रहा है. उन्होंने माना कि आपातकाल में सरकार ने कुछ ज़्यादतियां की हैं, पर उन्हें उस वक़्त की ज़रूरत बताया. इंदिरा ने परिवारवाद के आरोप को भी नकारा.
चुनावी आंकड़े
इन चुनावों में लगभग 32 करोड़ आबादी मतदान करने जा रही थी. 1977 में सरकार ने ये निश्चित किया कि देश में कुल 543 सीटें ही रहेंगी, इनकी संख्या नहीं बढ़ाई जायेगी. दरअसल, उत्तर भारत की ज़्यादा आबादी होने के कारण वहां सीटों का प्रतिशत दक्षिण के मुक़ाबले ज़्यादा था. अगर सीटों की संख्या बढ़ती आबादी के अनुपात में बदली जाती, तो दक्षिण के राज्यों को कम सीटें मिलतीं.
पहली बार ऐसा हुआ था कि प्रति सीट प्रत्याशियों का अनुपात घटा. इस बार प्रत्येक सीट पर 4-5 प्रत्याशी मुक़ाबले में थे. इससे ज़ाहिर होता है कि वोट न बंटने देने के लिए विपक्ष एकजुट होकर चुनाव लड़ रहा था. कुल 3,73,910 मतदान बूथों पर 60% मतदान हुआ. जहां उत्तर प्रदेश में लगभग 60,000 बूथ थे, सिक्किम राज्य में सिर्फ़ 1 ही बूथ था. कांग्रेस के 492 प्रत्याशियों में से 18 की ज़मानत ज़ब्त हुई थी और ये अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा था. पिछले चुनावों के मुक़ाबले महिला प्रत्याशियों की संख्या भी सबसे कम थी.
चुनाव का परिणाम
सीटों के आधार पर कांग्रेस की ज़बरदस्त हार हुई. जहां पिछले चुनाव में उसे 350 सीटें मिली थीं, 1977 में 156 सीट जीतीं. पर वोट प्रतिशत सिर्फ़ 8.5% ही टूटा और 34.5% रहा. वहीं, पहली बार अस्तित्व में आई जनता पार्टी को 297 सीटें और 43% वोट प्राप्त हुए. दक्षिण में आपातकाल का कांग्रेस पर उल्टा ही असर पड़ा. उसका वोट प्रतिशत ही नहीं, बल्कि सीटें भी ज़्यादा मिलीं. तमिलनाडु में तो वोट प्रतिशत दोगुना हो गया था.
रायबरेली से इंदिरा गांधी और अमेठी सीट से संजय गांधी हारे. उत्तर भारत में कांग्रेस का सफ़ाया हो गया. उत्तर प्रदेश और बिहार में सभी सीटों पर उसके प्रत्याशी हारे, मध्यप्रदेश और राजस्थान में सिर्फ एक-एक सीट ही मिली. पर, पंजाब में 13, पश्चिम बंगाल में 3, ओड़िशा में 4, असम और गुजरात में 10-10 सीटें मिलीं. आज़ादी के बाद पहली बार कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया था. ‘सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है’ का नारा यथार्थ हो गया और मोरारजी देसाई की सरपरस्ती में पहली बार देश में ग़ैरकांग्रेसी सरकार बनी और देश ने दोबारा लोकतंत्र की राह पकड़ ली.
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