Newslaundry Hindi
लोकतंत्र के उत्सव में लावारिस छोड़ दिये गये मुसलमान
प्रकृति की तरह राजनीति को भी शून्यता से बैर है. बहुत दिनों तक आप किसी चीज़ को यूं ही अनदेखा कर दें, तो खंडहर में भी कहीं न कहीं, कोई न कोई कोपल फूट जाती है. राजनीति में भी आप किसी समाज को बहुत दिनों तक अनदेखा नहीं कर सकते हैं. ऐसा हुआ तो कोई न कोई अलग रास्ता निकलेगा और खाली पड़ी जगह को भर देगा.
देश में हो रहे लोकसभा चुनाव में इस बार मुसलमानों के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है. इस बार के लोकसभा चुनाव में कुछ आश्चर्यजनक बातें हुई हैं. देश के मुसलमानों का आईना समझा जाने वाला अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय इस बार ख़ामोश है. कभी अलीगढ़ से उठने वाली आवाज़ पर देश के मुसलमान चल पड़ते थे, यहां के छात्र और शिक्षक मुसलमानों के नुमाइंदे माने जाते थे, लेकिन आज माहौल बदल गया है. एएमयू ख़ुद अपने आप को चारों तरफ़ से घिरा महसूस कर रहा है.
इसी असमंजस की स्थिति में बीती 18 अप्रैल को अलीगढ़ में मतदान भी हो गया. उससे पहले 11 अप्रैल को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अलीगढ़ में एक चुनावी जनसभा के लिए आये थे. भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार व मौजूदा सांसद सतीश गौतम के पक्ष में उन्होंने सभा की. योगी आदित्यनाथ ने अपने भाषण में इस बात को मुद्दा बनाया कि सतीश गौतम का दोबारा जीतना ज़रूरी है, ताकि एएमयू में दलितों और पिछड़ों को आरक्षण दिलाया जा सके. योगी ने इस बात की तरफ़ भी इशारा किया कि भारत में जिन्ना का सम्मान नहीं हो सकता, क्योंकि उन्होंने देश का बंटवारा किया था.
गौरतलब है कि योगी ने भाषण अलीगढ़ की अतरौली विधानसभा में दिया था, जो पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान में राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह का गृहक्षेत्र है. खबरों में यह भी आया था कि शुरुआत में कल्याण सिंह का खेमा मौजूदा सांसद को टिकट दिये जाने से नाराज़ था.
योगी के भाषण को देखें, तो पहली बात है कि एएमयू के अल्पसंख्यक स्वरूप का मुद्दा न्यायालय में विचाराधीन है. एएमयू में किसी प्रकार का धर्म या जाति पर आधारित आरक्षण लागू नहीं है. जब तक कोर्ट का फैसला नहीं आता, तब तक यथास्थिति बनी रहेगी. लेकिन जब तक फैसला नहीं आता, एएमयू को भाजपा की तरफ़ से ऐसे हमले झेलने पड़ेंगे, यह भी सच है. जिन्ना की फोटो को लेकर पिछले साल मई महीने में विवाद हो चुका है, जिसका हल कुछ नहीं निकला. छात्रसंघ भवन में लगी उस फोटो के बारे में सबका यही कहना था -जिन्ना हमारी आस्था नहीं हैं, वो एक इतिहास का विषय हैं.
लेकिन, इन दो मुद्दों के ज़रिये राजनीतिक दलों का प्रयास है कि वे हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का आसान ज़रिया बन जायें.
इस बार अलीगढ़ में गठबंधन के उम्मीदवार, अजीत कुमार बालियान, जो कि जाट हैं, लड़ रहे हैं. बालियान बसपा के उम्मीदवार हैं. ऐसे में ज़ाहिर है, एएमयू में दलित आरक्षण का मुद्दा भाजपा के लिए एक आसान ज़रिया था, जिसके द्वारा वो दलित वोटों में सेंधमारी कर सके. मोटे तौर पर अलीगढ़ लोकसभा क्षेत्र में 15.5 लाख वोटर्स हैं, जिसमें 3.25 लाख (21%) वोटर्स मुसलमान हैं. इसके अलावा दलित 9%, यादव 5% और सवर्ण 40% हैं.
अलीगढ़ के उदाहरण से ये स्पष्ट करना है कि माहौल ऐसा कर दिया जाये कि मुसलमानों के वोट की कोई अहमियत न रह जाये. मुसलमान सिर्फ चुप रहे, देखता रहे और जिसको चाहे वोट करे. कुछ हद तक ऐसा हुआ भी है. इस बार एएमयू में किसी बड़े नेता या पार्टी ने चुनाव से पहले संपर्क करने की कोशिश तक नहीं की. हर बार की तरह यहां के छात्र नेता भी कमोबेश ख़ामोश ही रहे.
खामोश सिर्फ एएमयू का छात्र संघ ही नहीं रहा. एएमयू टीचर्स एसोसिएशन भी चुप है. कोई प्रस्ताव पारित नहीं हुआ, न ही किसी को समर्थन देने की अपील जारी हुई. इस तरह की राजनीतिक तटस्थता एएमयू में कभी नहीं देखने को मिलती है. इस बात के क्या निहितार्थ हैं? क्या बहुसंख्यक ध्रुवीकरण ने लगभग एएमयू को ख़ामोश कर दिया है?
पहले की घटनाओं पर नज़र डालें, तो साल 1946 से यहां के छात्र चुनाव प्रचार के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में जाते रहे थे, विशेषकर उत्तर प्रदेश, पंजाब, बिहार आदि इलाकों में. आज़ादी के बाद वो उत्तर प्रदेश और बिहार में केंद्रित रहे और हमेशा से अपने ख़ास कैंडिडेट और पार्टी के लिए प्रचार करते रहे.
ये घटनाक्रम पढ़ने में भले सामान्य लगें, लेकिन ऐसा है नहीं. इस बार के चुनाव में मुसलमानों की तमाम धार्मिक, सांस्कृतिक संस्थाएं, जैसे जमीयत उलेमा-ए-हिन्द (स्थापित 1919), जमात-ए-इस्लामी-ए-हिन्द (स्थापित 1941), दिल्ली जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी, इमारत-ए-शरिया (स्थापित पटना 1921) सभी ख़ामोश हैं. किसी भी बड़े राजनीतिक दल ने उनसे संपर्क नहीं किया. पहले इन सबके पास लाइन लगी रहती थी, मुसलमान वोट को अपने पाले में करने के लिए और अपने पक्ष में अपील जारी करवाने के लिए. शायद मस्जिद के गुंबदों के सहारे होनी वाली राजनीति का समय चुक गया है. एक मायने में ये लोकतांत्रिक रूप से अच्छा ही हुआ है.
तमाम तथाकथित सेक्युलर दल भी इन सबसे दूरी बनाये हुए हैं. सिर्फ इनसे ही नहीं, ये दूरी मुसलमानों से भी हो गयी है. मुसलमानों की जान की सुरक्षा जैसे मुद्दे इस समय किसी की ज़बान पर नहीं हैं.
इसका मतलब क्या निकाला जाये? शायद भाजपा के द्वारा प्रचारित मुद्दा -अल्पसंख्यक तुष्टिकरण- सफल होता दिख रहा है. हालांकि ये तुष्टिकरण वास्तव में मुसलमानों के आर्थिक और शैक्षिक उत्थान के लिए असलियत में कुछ ख़ास सफल नहीं रहा था. ये सिर्फ एक टोकन था, जो सेक्युलर दल चुनाव के समय मुसलमानों के साथ करते थे. इससे उनको त्वरित चुनावी फ़ायदा हो जाता था, जिसमें वो चुनावी फसल वोट के रूप में काट लेते थे. ऐसे कॉस्मेटिक काम भाजपा ने भी किये थे. साल 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में वाजपेयी हिमायत समिति तक बना डाली थी, जिसमें कई नामी मुस्लिम चेहरे भी शामिल थे.
अब राजनीति में क्या मुसलमानों के लिए शून्य की स्थिति आ चुकी है? क्या इस खाली जगह को भरा जायेगा?
अब जब मुसलमानों की ‘टोकन’ पूछ भी ख़त्म हो चली है और पार्टियां अपने हिसाब से चुनाव में हैं, तो मुसलमान क्या करेगा. अगर बिहार में देखें, तो राजद ने अजलाफ़-अरज़ाल का राजनीतिक प्रतिनिधित्व लगभग समाप्त कर दिया है. ऐसे में तमाम मुसलमान, जो अपने को पसमांदा कहते हैं, वो भी अब अलग पार्टी बनाने का विचार कर रहे हैं.
छोटी पार्टियां, जैसे ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन, पीस पार्टी और असम की ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट का उभार हो रहा है. इसको आप भारतीय राजनीति में जाति विशेष आधारित दल, जैसे सुभासपा, अपना दल, विकासशील इंसान पार्टी, निषाद पार्टी की तरह भी देख सकते हैं.
आने वाले दिनों में भी अगर बड़ी राष्ट्रीय और राज्य स्तर की पार्टियां इसी अनदेखी पर चलीं, तो ताज्जुब न समझिये कि मुसलमानों के अंदर भी जातियों और उपक्षेत्रों पर आधारित छोटे-छोटे दलों का उदय हो जाये. फिर वो सबकी तरह अपनी बिरादरी की बात करेंगी और तोल-मोल भी करेंगी.
शायद, तब इन बड़े दलों का वर्चस्व टूटेगा. एक मायने में मुसलमानों का ये ‘टोकन’ सर्विस बंद होना अच्छा ही है. इससे वो अब और आगे जाने के लिए, कुछ बड़ा सोचने के लिए मजबूर हो सकते हैं. क्या ऐसी संभावना वास्तव में दिख रही है?
Also Read
-
TV Newsance 317 Diwali Special: Godi hai toh mumkin hai, NDTV’s Adani makeover, Taliban flip
-
Delhi’s Diwali double standard: Markets flout cracker norm, govt’s pollution plan falters
-
‘Jailing farmers doesn’t help anyone’: After floods wrecked harvest, Punjab stares at the parali puzzle
-
Billboards in Goa, jingles on Delhi FMs, WhatsApp pings: It’s Dhami outdoors and online
-
TMR 2025: Is this the end of the road for TV news, or is a revival possible?