Newslaundry Hindi
कितना आसान है इस बार मोदी का बनारस से जीतना?
वाराणसी/काशी/बनारस: एक ही शहर के लिए तीन नामों के इस्तेमाल के पीछे ऐतिहासिक अर्थों से अधिक, हिंदुत्व/सनातन धर्म के साथ प्राचीन काल के ऐतिहासिक जैन और बौद्धों की कड़ी, कॉमन एरा (सीई) के 13वीं से 19वीं शताब्दी तक के मध्ययुगीन और प्रारंभिक आधुनिक युग के तुर्की-अफ़ग़ान, राजपूत, महाराष्ट्रियन सभ्यता के निशान हैं.
लेकिन मार्च महीने के ख़त्म होते-होते, तीन नामों वाले इस शहर में चर्चा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 2019 के लोकसभा चुनावों में दोबारा चुने जाने की है. 2014 की तरह, जब मोदी ने पहली बार बनारस से चुनाव लड़ा था, इस बार मोदी अपने गृह राज्य गुजरात के वड़ोदरा से चुनाव नहीं लड़ रहे हैं. तब उन्होंने दोनों निर्वाचन क्षेत्रों से जीत हासिल की थी. अब उन्होंने केवल बनारस को अपना निर्वाचन क्षेत्र बनाया है और वड़ोदरा को छोड़ दिया है. इस बार वह सिर्फ़ वाराणसी से चुनाव लड़ रहे हैं. क्या वह 2014 में वाराणसी से अपनी जीत की संभावनाओं के बारे में अनिश्चित थे या अब वे आश्वस्त हैं कि हारेंगे नहीं?
पांच किलोमीटर लंबी गंगा नदी के एक छोर पर स्थित अस्सी घाट पर वीरेंद्र यादव की चाय की दुकान पर प्रधानमंत्री के समर्थक और आलोचक मोदी के वाराणसी से चुनाव लड़ने के फ़ैसले के पीछे के राजनीतिक प्रतीक का विश्लेषण दे रहे हैं. यह जगह राजनीतिक चर्चाओं का क्लब है. यादव, जो 1988 में भारतीय कुश्ती टीम का हिस्सा थे और जिनका परिवार बनारस में 22 पीढ़ियों से रह रहा है, समाजवादी पार्टी के समर्थक हैं और मोदी की बनारस से जीत की संभावनाओं पर बात नहीं करते हैं, बल्कि कहते हैं कि भाजपा इस बार प्रदेश में 2014 का प्रदर्शन नहीं दोहरा पायेगी. वह दिल्ली में भाजपा की हालत की ओर इशारा करते हैं. जब मैंने उन्हें बताया कि दिल्ली में तो आम आदमी पार्टी (आप), कांग्रेस और भाजपा में त्रिकोणीय मुक़ाबला है और यह काफ़ी मुश्किल मुक़ाबला होने वाला है, तो वो कुल्हड़ से चाय पीते हुए क्लब के बाक़ी सदस्यों की ओर मुड़कर कहते हैं, ‘सुनो, सुनो’.
भारतीय स्टेट बैंक में मुख्य प्रबंधक के पद पर काम कर रहे घनश्याम पांडे वाराणसी के एक आम नागरिक के रूप में वहां की राजनीतिक पृष्ठभूमि की व्याख्या करते हैं. वे बताते हैं कि यह शहर चार राज्यों -बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड- की सीमाओं के नज़दीक है. इसका राजनीतिक महत्व उत्तर प्रदेश से भी आगे है. वह स्वीकार करते हैं कि यह हिंदू धर्म का केंद्र भी है, लेकिन जब एक पत्रकार हिंदुत्व और हिंदू धर्म के बीच के अंतर को बताता है, तो वे इसको सनातन धर्म कहना ज़्यादा पसंद करते हैं. वे बाक़ी लोगों की आम धारणा को दोहराते हुए कहते हैं कि उत्तर प्रदेश तो भारतीय प्रधानमंत्रियों का प्राकृतिक घर है.
अजय उपाध्याय, एक स्व-घोषित बेरोज़गार व्यक्ति, जिन्होंने दूसरों को रोज़गार दिलाने में मदद की थी, कहते हैं कि बनारस हमेशा से आरएसएस-भाजपा का गढ़ रहा है, और 2014 में वाराणसी को चुनकर मोदी ने पूरे उत्तर प्रदेश में सबसे सुरक्षित सीट चुनी थी. पहले मोदी की मौन आलोचना होती थी कि वे गुजरात से उत्तर प्रदेश नहीं आये, ख़ासकर वाराणसी.
इसके बाद ललिता घाट से विश्वनाथ मंदिर तक भव्य गलियारे के निर्माण के लिए किये गये तोड़-फोड़ पर बहस होने लगती है. जब एक युवा कांग्रेस समर्थक ने कहा कि इस तोड़-फोड़ में कई मंदिरों को भी ढहा दिया गया था, तो पांडे ने तुरंत उसको टोकते हुए कहा कि यह सच्चाई नहीं है, मंदिरों को छोड़कर बाक़ी इमारतों को ढहाया गया है. कॉरिडोर परियोजना का बचाव करते हुए वे कहते हैं कि शहर में आने वाले पर्यटकों की संख्या बढ़ रही है और उनको सुविधा देना ज़रूरी है, क्योंकि वाराणसी की रोजी-रोटी उस पर निर्भर करती है .
एक मारवाड़ी परिवार जिनकी तीन पीढ़ियों ने यहां पर 55 साल बिताये थे और सरकार द्वारा दिये गये मुआवज़े के 2 करोड़ रुपये लेकर यहां से जा रहे हैं, कहते हैं कि कितना भी पैसा मिल जाये लेकिन दशकों पुराने घर को छोड़ने के दुःख की भरपायी नहीं हो सकती. अस्सी घाट पर एक किताब की दुकान के मालिक बताते हैं कि क्योटो, जिसकी तर्ज़ पर वाराणसी में विकास हो रहा है, में कोई भी पुरानी इमारतें ध्वस्त नहीं की गयीं थीं, और नवीनीकरण उनके चारों ओर किया गया. यह जानते हुए कि भव्य कॉरिडोर परियोजना के पहले इस तोड़-फोड़ को रोक नहीं सकते, आलोचकों का कहना है कि लोगों के घरों को ढहा कर आप इतिहास को नष्ट कर रहे हैं,
वे कहते हैं कि नोटबंदी एक अच्छा और साहसिक निर्णय था और सुझाव देते हैं कि समय-समय पर नोटबंदी होती रहनी चाहिए. उनका मानना है कि मोदी सरकार ने नॉन-परफॉर्मिंग असेस्ट्स को सबके सामने लाकर बैंकिंग सेक्टर और एसबीआई जैसे बड़े बैंकों को बचाया है. वे कहते हैं, “अगर मोदी नहीं आते, तो एसबीआई दिवालिया हो जाता.” लेकिन वह इस बात से सहमत हैं कि बड़े पैमाने पर अर्थव्यवस्था के साथ सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है.
पांडे कहते हैं कि मोदी 2014 के अपने तीन लाख से अधिक वोटों से हुई जीत के मुक़ाबले, इस बार साढ़े पांच लाख वोटों के अंतर से चुनाव जीतेंगे. क्लब के अन्य गैर-भाजपाई और भाजपा-विरोधी सदस्य यह बात तो मानते हैं कि मोदी की जीत सुनिश्चित है, लेकिन कहते हैं कि इस बार उनकी जीत का अंतर कम होगा और ये अंतर लगभग डेढ़ लाख का होगा.
रिवरफ्रंट से थोड़ी दूर रवींद्र पुरी में आशीष सिंह भाजपा के क्षेत्रीय कार्यालय में बैठे हुए हैं. वह पार्टी के क्षेत्रीय सचिव और काशी के 15 जिलों की 14 लोकसभा सीटों के प्रभारी हैं. सिंह को पूरा भरोसा है कि मोदी बिना किसी चुनाव अभियान के जीत जायेंगे, क्योंकि उनका पांच साल का काम ख़ुद बोल रहा है, जबकि 2014 में, बहुत सावधानीपूर्वक तैयारी और कड़ी मेहनत करनी पड़ी थी. “पहली बार यह मुश्किल था क्योंकि सरकार बदलनी थी. इस बार कोई टक्कर में ही नहीं है. इस बार हम अमेठी भी जीतेंगे.” एक अन्य पदाधिकारी, अमरनाथ अवस्थी, कमरे में प्रवेश करते हैं और कांग्रेस अध्यक्ष व अमेठी से कांग्रेस के प्रत्याशी के केरला के वायनाड से भी चुनाव लड़ने की योजना का उल्लेख करते हुए कहते हैं, “हमने अमेठी जीत ली है.”
सिंह बताते हैं कि हर दलित के घर में एक ‘शौचालय’ है, और बड़ी संख्या में दलित वोट भाजपा के हिस्से में आयेगा. उन्हें यह भी लगता है कि 20 फीसदी मुस्लिम वोट भी बीजेपी के हिस्से में आयेंगे, क्योंकि अल्पसंख्यक समुदाय को मुद्रा लोन का फायदा मिला है. वह साफ़ तौर पर कहते हैं कि कांग्रेस से उन्हें कोई चुनौती नहीं मिलेगी, लेकिन बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और समाजवादी पार्टी (सपा) गठबंधन, जिसे महागठबंधन भी कहा जा रहा है, से थोड़ी बहुत चुनौती मिल सकती है.
उनका कहना है कि वॉर रूम एक-दो दिन में तैयार हो जायेगा, और पार्टी के सभी कार्यकर्ता काम पर लग जायेंगे. उनका कहना है कि क्षेत्रीय पार्टी कार्यालय का काम यह सुनिश्चित करना है कि अमेठी सहित सभी लोकसभा सीटें जीती जायें. 2014 में, पार्टी ने 14 सीटें जीतीं थी.
वीरेंद्र यादव के राजनीतिक चर्चा क्लब में भी मोदी के समर्थकों का यह मानना है कि पार्टी 80 लोकसभा सीटों में से 73 पर जीत हासिल नहीं कर पायेगी, जैसा उसने 2014 में किया था, और इस बार पार्टी 40 सीटें जीतेगी. जबकि आलोचकों का कहना है कि भाजपा मुश्किल से 25 सीटें जीतेगी.
यह तो साफ़ है कि जिन लोगों ने 2014 में वाराणसी में मोदी लहर की वजह से भाजपा की बंपर जीत की सराहना की थी, उनको अब पांच साल के बाद अपने नेता के प्रभाव और पहुंच के बारे में अपने विचार बदलने पड़ेंगे.
Also Read
-
Should India host the Olympics? An authoritative guide to why this is a bad idea
-
TV Newsance 308: Godi media dumps Trump, return of Media Maulana
-
Unreliable testimonies, coercion, illegalities: All the questions raised in Malegaon blast judgement
-
Exclusive: India’s e-waste mirage, ‘crores in corporate fraud’ amid govt lapses, public suffering
-
दिल्ली के पूर्व मंत्री सत्येंद्र जैन के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला बंद, अदालत ने दी मंजूरी