Newslaundry Hindi
आम चुनाव, आम जन और हिंदी लेखक
17वीं लोकसभा के लिए मतदान शुरू हो चुका है. आज से पांच बरस पूर्व यानी जब 16वीं लोकसभा के लिए मतदान शुरू होने को था, इन गर्म होते दिनों में यह लगभग स्वीकार कर लिया गया था कि किसी फ़ासिस्ट की ताजपोशी अब कुछ ही रोज़ दूर है और इसे रोकने की कोशिशों में बहुत देर हो चुकी है. इन दिनों भी भारत के प्रगतिशील और बौद्धिक वर्ग की बुनियादी फ़िक्र इससे ही संबंधित है कि कैसे इस प्रकार की ताजपोशी का दुहराव न हो.
इस सिलसिले में बीती 1 अप्रैल को 200 लेखकों की भारतीय नागरिकों के नाम एक अपील जारी हुई, जिसमें यह मानते हुए कि इस आम चुनाव में हमारा मुल्क एक दोराहे पर खड़ा है, यह कहा गया :
‘‘हमारा संविधान यह सुनिश्चित करता है कि देश के सभी नागरिकों को समान अधिकार, अपनी मर्ज़ी से खाने-पीने, पूजा-अर्चना करने की आज़ादी मिले, अभिव्यक्ति की आज़ादी और असहमति जताने का अधिकार मिले. लेकिन पिछले कुछ सालों से हम देख रहे हैं कि कई नागरिक भीड़ की हिंसा में मारे गये, घायल हुए या उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ा और यह सब सिर्फ़ इसलिए कि वे किसी विशेष समुदाय, जाति, लिंग या क्षेत्र से ताल्लुक़ रखते हैं. नफ़रत की राजनीति का इस्तेमाल कर देश को बांटा जा रहा है; डर फैलाया जा रहा है; और ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को पूर्ण नागरिक के तौर पर जीने के अधिकार से वंचित किया जा रहा है. लेखकों, कलाकारों, फ़िल्म-निर्माताओं, संगीतकारों और अन्य संस्कृतिकर्मियों को धमकाया, डराया और सेंसर किया जा रहा है. जो भी सत्ता पर सवाल उठा रहा है, वह उत्पीड़न या झूठे व बेहूदा आरोपों पर गिरफ़्तारी के ख़तरे को झेल रहा है.
हम चाहते हैं कि यह स्थिति बदले. हम नहीं चाहते कि तर्कवादियों, लेखकों और कलाकारों को सताया जाये या मार दिया जाये. हम चाहते हैं कि महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ मौखिक या शारीरिक हिंसा करने वालों पर सख़्त कार्रवाई की जाये. हम चाहते हैं कि सबको आगे बढ़ने के समान अवसर दिये जायें और रोज़गार, शिक्षा, शोध तथा स्वास्थ्य के क्षेत्रों की बेहतरी के लिए संसाधन हों और क़दम उठाए जायें. और इन सबसे ज़्यादा, हम अपनी विविधता को बचाना और लोकतंत्र को फलते-फूलते देखना चाहते हैं.
हम यह सब कैसे कर सकते हैं? हम कैसे वे बदलाव ला सकते हैं जिनकी हमें सख़्त ज़रूरत है? ऐसे बहुत से क़दम हैं जो हम उठा सकते हैं और हमें उठाने चाहिए. लेकिन एक महत्वपूर्ण क़दम है, जो हमें सबसे पहले उठाना है. यह पहला क़दम है कि हम नफ़रत की राजनीति के ख़िलाफ़ वोट करें और ऐसा करने का मौक़ा हमें बहुत जल्द ही मिल रहा है. हम लोगों को बांटने के ख़िलाफ़ वोट करें; असमानता के ख़िलाफ़ वोट करें; हिंसा, डर और सेंसरशिप के ख़िलाफ़ वोट करें. सिर्फ़ यही एक रास्ता है जिससे हम एक ऐसा भारत बना सकते हैं, जो संविधान में किये वायदों के लिए प्रतिबद्ध हो. इसलिए हम सभी नागरिकों से अपील करते हैं कि वे एक विविधतापूर्ण और समान भारत के लिए वोट करें.’’
इस अपील में -जिसमें एजे थॉमस से लेकर ज़ोया हसन तक के हस्ताक्षर (नामों का क्रम अंग्रेज़ी वर्णमाला के अनुसार) शामिल हैं- को यहां पूरा उद्धृत करने का उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि भारतीय बौद्धिक वर्ग अपनी सामर्थ्य भर बदलाव और बेहतरी के पक्ष में खड़ा हुआ है. यहां यह एक अलग विमर्श का विषय हो सकता है कि इस पक्ष की सुनवाई कहां तक जायेगी…एक ऐसे मुल्क में जहां असहमति की सारी आवाज़ें एक सीमित दृश्य में सिमट कर समाप्त होने को अभिशप्त हैं, वहां यह कहीं सहमतों को ही सहमत करने का संघर्ष तो नहीं है?
यूटोपिया के स्वप्न-भंग के बाद इस मुल्क में कई बार ऐसे अवसर आये, जिनमें लेखकों की प्रतिबद्धता को जांचा जा सके, लेकिन ये गये पांच वर्ष तो जैसे सब समय लेखक ही नहीं किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की प्रतिबद्धता की परीक्षा लेने पर उतारू रहे. इन वर्षों का अपना दुख और इतिहास है, जिनमें अपनी नाउम्मीदी से लड़ते हुए एक डूबते हुए समाज को उम्मीद भरी नज़र से बार-बार देखना पड़ा है.
यह वह हिंदी समाज है जिसे अपने नायकों को पहचाने का शऊर नहीं है. वह दफ़्तर के दुख झेलने के बाद सतही मनोरंजन को अपना मूल धर्म मान चुका है. इससे इतर जो त्रस्त और अपघाती जीवन जीते हुए जन हैं, उन्हें सिर्फ़ बरगलाया जा सकता है. वे दशकों धोखे में रहे हैं, उन्हें दशकों धोखे में रखा जा सकता है. इस समाज में ही एक साहित्यकार-कलाकार अपना काम करता है, यह जानते हुए भी कि वह ज़मीन से कटा हुआ है, वह अपने जुड़ाव और सरोकार को व्यक्त करता रहता है. इनमें बहुत सारे रचनाकार वास्तविक होते हैं, बहुत सारे छद्म-फ़ॉरमूलों और फ़ैशन के दबावों से निकले हुए.
जहां तक हिंदी साहित्य का सवाल है, गये पांच सालों में सबसे ज़्यादा सत्ता-विरोध की राजनीतिक कविताएं हिंदी के कवियों ने लिखी हैं- जिनमें ‘हत्यारा’, ‘तानाशाह’, ‘फ़ासिस्ट’, ‘अत्याचारी’, ‘अन्यायी’, ‘आततायी’, ‘जन-शत्रु’, ‘लोकतंत्र-विरोधी’ जैसे शब्द घूम-घूमकर आते रहे हैं. हिंदी के लेखक संगठन जैसे ‘जनवादी लेखक संघ’, ‘जन संस्कृति मंच’, ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और ‘दलित लेखक संघ’ इस अवधि में एकजुट नज़र आये. उन्होंने सत्ता के मार्फ़त जारी जनविरोधी कार्रवाइयों के विरुद्ध तत्काल अपनी आवाज़ उठायी, वे सड़कों पर भी उतरे. वे लोकतंत्र और संविधान की मूल भावना को बचाये और बनाये रखने के लिए ख़ुद को जहां अभिव्यक्त और प्रस्तुत कर सकते थे, करते रहे. लेकिन हिंदी पट्टी कई दशकों से मूलतः एक बुद्धिविरोधी पट्टी है. इसे ऐसा बना देने में बुद्धिख़ोरों की भी बड़ी भूमिका है. बुद्धिख़ोर होना एक विचारपूर्ण व्यक्तित्व का अपनी जनबौद्धिक होने की संभावना को नकार कर बुद्धिव्यवसायी हो जाना है. इस दृश्य में हिंदी के एक साहित्यकार की स्थिति इस विडंबना से समझिये कि जिस भी ग़ैर-साहित्यिक व्यक्ति से उसका सामना रोज़ होता है; उसे वह सांप्रदायिक और राष्ट्रवादी उन्माद में डूबा हुआ पाता है. ये अपनी संरचना में बुरे और हिंसक लोग नहीं हैं, ये किसी जन-विरोधी कार्रवाई में सीधे और मूर्त ढंग से शामिल नहीं हैं; लेकिन ये सर्वप्रिय, संतुलनवाद और तुष्टीकरण के स्वर से संचालित तथा अनाक्रामक, ढीली और शांत राजनीति से ऊबे हुए लोग हैं और इन्हें अपनी अभिव्यक्ति का प्रतिनिधि चाहिए; वह कौन है और कहां है और उसे कैसे चुनना है; यह अश्लील रूप से भयानक प्रसार और पहुंच वाले अख़बार और न्यूज चैनल्स उसे रोज़ बता रहे हैं.
गये पांच सालों में साहित्य और संस्कृति के इलाक़े में यह बात बहुत ध्यान देने की है कि हिंदी लेखक सत्तापरस्त नहीं नज़र आये. वह हिंदी साहित्य जहां वामपंथ का पंथ ही सबसे सशक्त, संभावनाशील और उज्ज्वल है; वहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से संचालित और प्रभावी भारतीय जनता पार्टी कोई घुसपैठ नहीं कर पायी. जबकि इस दरमियान उसने संस्थानों, अकादमियों और विश्वविद्यालयों पर क़ब्ज़े किये, उसने अपने आयोजन, अपने पुरस्कार, अपने उपक्रम शुरू किये और इस तरह नक़ली कलाकार, बेहूदे साहित्यकार और जाली संपादक पैदा किये, उसने पानी की तरह धन बहाया और संसाधनों और सुविधाओं के प्रलोभन दिये; लेकिन कुछ लालची और ज़लील लोगों को छोड़ दें, तो किसी महत्वपूर्ण हिंदी साहित्यकार को वह तोड़कर अपनी ओर नहीं कर पायी, वह उसका स्वर नहीं बदल पायी. वे जो बहुत सीधे अर्थों में राजनीतिक नहीं दीखते, वे हिंदी लेखक भी अपने विचारों और लेखन में इस दक्षिणपंथी सत्ता के साथ नहीं गये. हिंदी कवि पंकज चतुर्वेदी की एक कविता के साथ जिसमें आग्रह भी और उम्मीद भी, इस कथ्य का समापन करना समीचीन होगा :
चुनाव की यही सुंदरता है
कुछ भी कहिये
चुनाव की यही सुंदरता है
कि उसमें कमज़ोर
और सताये हुए लोग भी
वोट दे सकते हैं
वगरना जिनका सिसकना
और अपनी बात कह सकना भी
देशद्रोह है
नेता जी को एतराज़
सिर्फ़ विपक्ष पर नहीं
इस बात पर भी है
कि चुनाव में
कमज़ोर
और सताये हुए लोग भी
वोट देंगे
जन-शत्रु कैसे होते हैं
ग़ौर से
पहचान लीजिए
Also Read
-
Ambedkar or BN Rau? Propaganda and historical truth about the architect of the Constitution
-
Public money skewing the news ecosystem? Delhi’s English dailies bag lion’s share of govt print ads
-
Month after govt’s Chhath ‘clean-up’ claims, Yamuna is toxic white again
-
The Constitution we celebrate isn’t the one we live under
-
Why does FASTag have to be so complicated?