Newslaundry Hindi
मर्दाना संसद में इस बार भी अधूरी रहेगी औरतों की भागीदारी
जब चारों तरफ माहौल चुनावी राजनीति का हो तो ऐसे में औरतों को क्या करना चाहिए? सड़कों पर लगे चुनावी पोस्टरों का आलोचनात्मक निरीक्षण करना चाहिए, कार चलाते हुए समाचार और रोटी बेलते-बेलते अपने मोबाइल पर नेताओं के भाषण सुनने चाहिए. दो घड़ी आराम करते हुए उन्हें भाषण देते नेताओं के हाव-भाव पढ़ने चाहिए, रैलियों से आगे-पीछे के वक़्त में उनका चाल-चलन देखना चाहिए, घर-बाहर की चुनावी बहसों में हिस्सा लेना चाहिए व उन्हें पता होना चाहिए कि किसी भी पार्टी के चुनावी घोषणापत्र में उनके लिए क्या-क्या है. मंहगाई और उज्ज्वला योजना जैसे तथाकथित औरताना मुद्दों के अलावा उन्हें निम्नलिखित हिसाब-किताब भी पता होने चाहिए:
आम चुनाव 2019 – महिला प्रत्याशी (अभी तक हुई घोषणा के आधार पर)
- भाजपा: 45/374, 12%
- कांग्रेस: 47/344, 13.7%
- तृणमूल कांग्रेस: 17/42, 40.5%
- प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया): 3/35, 7.9%
- सपा: 5/29, 17.2%
- एएमएमके: 3/23, 13%
- शिव सेना: 1/22, 4.5%
- एडीएमके: 1/21, 4.8%
- डीएमके: 2/20, 10%
- राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी: 2/18, 11.1%
- बीजू जनता दल: 7/19, 36.8%
- जदयू: 1/17, 5.9%
- राजद: 3/17,17.6%
- टीआरएस: 2/17, 11.8%
- बसपा: 1/12, 8.3%
अशोका यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान विभाग के एक प्रोफेसर ने यह हिसाब-किताब किया है. इस जोड़-घटान के बाद यह कहने की कोई ज़रूरत शेष नहीं बचती कि भारत की राजनीतिक दलों की यह मंशा कतई नहीं है कि संसद में स्त्रियों की महत्वपूर्ण ढंग से उपस्थिति हो. जब चुनाव ही नहीं लड़ने दिया जायेगा, तो स्त्रियां संसद में पहुंचेंगी कैसे? बड़े दावे करने वाली पार्टियों में से किसी ने 12 प्रतिशत से ज़्यादा महिलाओं को लोकसभा का टिकट नहीं दिया है. यह संख्या देखने के बाद कोई उम्मीद नहीं रह जाती कि संसद में इस बार भी स्त्रियों की सशक्त मौजूदगी देखने को मिलेगी? कब तक राजनीति में स्त्रियों को मर्दों की मसीहाई झेलनी होगी? इसलिए यह बेहद ज़रूरी हो गया है कि जल्द से जल्द महिला आरक्षण बिल पास हो.
संकल्प-विकल्प: हाल में घोषित अपने संकल्प-पत्र के भीतर बीजेपी ने संसद और विधान सभा में 33% महिला आरक्षण के लिए प्रतिबद्धता ज़ाहिर की है. जबकि गठबंधन वाली कई सरकारों के बाद साल 2014 में एक स्पष्ट, पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के बावजूद बीजेपी महिला आरक्षण बिल के मसले पर पांच सालों तक मौन ही रही. छप्पन इंची छाती के गुणगान और मर्दवादी भाषा व तेवरों के ज़रिये बीजेपी ने एक माचो छवि ही बनायी है. उसपर भी सिर्फ़ बारह परसेंट महिला प्रत्याशियों को टिकट दिये जाने के बाद बची-खुची उम्मीद भी धूमिल पड़ जाती है. वहीं पचहत्तर सालों के लिए पचहत्तर संकल्पों में महिलाएं शीर्षक के तहत लिखा है- महिला कार्यबल भागीदारी बढ़ाने की दिशा में काम और तीन तलाक़ के विरुद्ध क़ानून बनाना. 33% आरक्षण का संकल्प 75 संकल्पों में नहीं है.
मेनिफेस्टो के भीतर सबरीमाला पर भी साफ़ लिखा गया है कि आस्था और विश्वास की रक्षा संवैधानिक तरीके से की जायेगी. बाक़ी, उज्ज्वला, बेटी पढ़ाओ और बचाओ जैसी योजनाएं यथावत चलती रहेंगी. इंडियन नेशनल कांग्रेस का घोषणापत्र भी कुछ बड़ी बातें और ज़रूरी वायदे कर रहा है, जैसे संसद में और केंद्रीय नौकरियों में स्त्रियों के लिए 33% आरक्षण.
केंद्रीय नौकरियों में आरक्षण एक बड़ी बात है, अगर यह संभव हो पाये. हालांकि मर्दवादी तबका इससे नाराज़ हो सकता है. कांग्रेस पार्टी के भीतर महिला-सदस्यों का आरक्षण है, दलित महिलाओं के विकास के लिए अलग विंग है, फिर भी इस चुनाव में महिलाओं को टिकट देने में कंजूसी करना खटकता है. इस मानी में सिर्फ तृणमूल कांग्रेस ने 41% महिलाओं को टिकटें दी हैं, जो कि स्वागत योग्य कदम है. सीपीआई का मेनिफेस्टो 33% आरक्षण और जेंडर बजटिंग के अलावा भी कुछ बेहतर वायदे करता है.
जैसे जेंडर-हिंसा से कारगर तरीके से निपटने के लिए पाठ्यक्रम में स्त्री-मुद्दों को शामिल करना और विधायकों, सांसदों के लिए आचार-संहिता बनाना, ताकि वे स्त्री-द्वेषी सार्वजनिक टिप्पणियां न करते फिरें. लेकिन स्त्रियों तक ये बातें कितनी जा पा रही हैं और उन्हें एक वोटर के तौर पर कितना प्रभावित करेंगी यह एक सवाल है.
इतना तो साफ़ देखा जा सकता है कि सत्तर साल में देश स्त्रियों को राजनीति में उतनी भी जगह नहीं दे पाया, जितनी उनके पास राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के समय थी. सत्तर साल में पहली बार एक महिला प्रत्याशी मिज़ोरम की इकलौती सीट पर लड़ने जा रही है. यह कोई मिसाल नहीं. जबकि वहां महिला वोटरों की संख्या पुरुष वोटरों से कहीं ज़्यादा है.
संसद का मर्दवादी रुख : इन हालात में आरक्षण, सकारात्मक सामाजिक-न्याय और बराबरी के लिए एक कारगर औज़ार सिद्ध हो सकता है. लेकिन मज़ेदार है कि स्त्री से जुड़े वे विधेयक जो समाज की संरचना बदल सकते हैं, उनके विरोध में संसद में मर्दाना विरोध का स्वर हमेशा उग्र रहा है. आज़ादी के बाद बना ‘हिंदू कोड बिल’ ऐसे ही विरोध का सामना करता और अटकता रहा और इस विधेयक के समग्र प्रारूप पर सदनों में सहमति नहीं बनायी जा सकी. कहा गया कि यह ‘पश्चिम के समुद्र में गोते लगाने की कोशिश’ है. 33% महिला आरक्षण विधेयक पर बहस करते हुए भी कहा गया कि औरतों की जगह घर है, संसद नहीं, उन्हें घर जाकर रोटी बेलनी चाहिए. मार्च 2010 में राज्यसभा में समाजवादी पार्टी के नेता कमाल अख़्तर ने बिल को सदन में सबके सामने चिंदी-चिंदी किया. आरजेडी के सुरेंदर प्रकाश यादव ने भी 1998 में कानून मंत्री द्वारा बिल पेश किये जाने से पूर्व ही उसे मंत्री के हाथों से छीना था और फिर अपने अन्य साथियों के साथ, स्पीकर की मेज़ से इसकी बाकी प्रतियां उठाकर गेंद बना-बनाकर फेंकी. यह एक बेहद दुर्भाग्यपूर्ण मंज़र था. यही दोहराया गया जब 2008 में कानून मंत्री एचआर भारद्वाज बिल पेश करने वाले थे. सपा सदस्य अबु आज़मी उनकी तरफ झपटे, ताकि बिल छीन कर फाड़ा जा सके. तब रेणुका चौधरी ने उन्हें धक्का देते हुए रोका था और आगे भी इसी तरह की घटना की आशंका से भारद्वाज को दो स्त्री मंत्रियों के बीच में बैठाया गया था. साल 2003 के अपने एक लेख में वृंदा करात लिखती हैं कि सरकार का मकसद इस बिल को सिर्फ कुछ समय और टालना है. कुछ समय और मतलब सरकार का कार्यकाल खत्म होने तक.
चुनाव-प्रक्रिया और संसद को जेंडर-संवेदी बनाने की ज़रूरत
संसद को जेंडर-संवेदी बनाने के लिए ज़रूरी है, चुनावों की प्रक्रिया को पहले जेंडर-संवेदी बनाया जाए. पॉलिटिक्स से स्त्रियों को क्या हासिल है! इसकी जागरूकता फैलाने की पिछले सालों में कोई कोशिश नहीं दिखती. घरों में शांति बनाये रखने के लिए कम से कम राजनीति के मसलों पर चुप लगा जाना घाटे का सौदा नहीं लगता. औरतों के मुद्दों पर औरतों को गंभीरता से वोट-बैंक की तरह देखा नहीं जाता. बेहतर समाज के स्वप्न में स्त्रियों को शामिल करने में हमारी राजनीति असफल सिद्ध हुई है. ऐसे कोई चुनावी पोस्टर नहीं दिखते, जो स्त्रियों को हिंसा और अपराधों के खिलाफ़ सुरक्षा का आश्वासन देते हों. दिल्ली के बड़े चुनावी पोस्टरों और होर्डिंग्स पर एक ही चकाचक नेता का चेहरा है. क्वार्ट्ज़ ने अभी हाल ही में एक अध्ययन में पाया कि राजनीतिक दलों के फेसबुक पेज विज्ञापनों के सर्वाधिक ऑडियंस पुरुष हैं. इसकी एक वजह हो सकती है कि पार्टियां स्वयं ही पुरुष-वोटर को लक्षित करती हैं. राजनीतिक चुनाव के लिए स्त्रियों पर मर्द लोग स्वयं दबाव बना लेंगे, निर्णय करने का अधिकार तो उन्हीं के पास है. दूसरा, कुछ ऐसे शहर हैं जहां फेसबुक इस्तेमाल करने वाली स्त्रियां कम हैं. तीसरा और सबसे जायज़ तर्क यह कि स्त्रियों तक पहुंचने की यथासंभव कोशिश राजनीतिक दलों द्वारा की ही नहीं जा रही. ऐसे में नीयत पर सवाल क्यों न उठाया जाए?
कहना न होगा कि स्त्रियों की बड़ी संख्या में उपस्थिति किसी जगह और भाषा को जेंडर-संवेदी बना सकती है. याद कीजिये, पिछले बरस राज्यसभा सदस्य रेणुका चौधरी ने कहा था ‘कास्टिंग काउच’ सिर्फ फिल्म उद्योग में ही नहीं, हर कार्यक्षेत्र की समस्या है. संसद भी इससे अछूती नहीं. प्रधानमंत्री के एक बयान की प्रतिक्रिया में रेणुका चौधरी के ज़ोर से हंसने पर मोदी जी ने इशारे में इसे ‘ताड़का हंसी’ कहा था, याद ही होगा. चूड़ियां या पेटीकोट पहन लेने की लानत देते हुए अपने नेता लोग ज़रा भी नहीं सोचते कि स्त्री को हेय दृष्टि से देखने की उनकी सोच कैसे उघड़ गयी है. लेकिन यही दरअसल संसद की परम्परा रही है. स्त्री-द्वेष. मिसोजिनी. ‘परकटी’ से लेकर ‘ताड़का हंसी’ तक एक-सी. सदन में अश्लील फिल्म देखना, नोट उछालना, फर्नीचर तोड़कर वीरता प्रदर्शित करना, भारतीय राजनीति का एक कट्टर मर्दवादी संस्करण तैयार करता है. राजनीति में स्त्रियां बड़ी संख्या में आयें, और मर्दों के पदचिह्नों पर न चलकर अपने तरीके से राजनीति करें, तो दुनिया बेहतर होगी इसमें कोई शक नहीं. करुणा और संवेदना राजनीति के लिए त्याज्य नहीं वरेण्य हैं. हाल ही में एक उदाहरण न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री हमारे सामने प्रस्तुत कर चुकी हैं.
इतना भी दुष्कर काम नहीं
1970 में जर्मनी की ग्रीन पार्टी ने तय किया था कि हर स्तर पर होने वाले चुनावों में स्त्रियों को पचास प्रतिशत प्रतिनिधित्व दिया जायेगा. उनकी देखादेखी, शर्मिंदा होकर बाक़ी पार्टियों ने भी यह किया. आज वहां संसद में तीस प्रतिशत स्त्रियां हैं. न्याय और बराबरी के स्वप्न को साकार करना, एक मर्दाना स्पेस को जेंडर-निरपेक्ष बनाना ऐसा भी असंभव काम नहीं.
सोचना चाहिए कि इस तरह के नैरेटिव्स कौन गढ़ता है और इसकी क्या मंशा है कि स्त्रियों के लिए राजनीति एक ख़राब जगह है? और किसकी वजह से स्त्रियों के लिए राजनीति एक ख़राब जगह बन जाती है? आरक्षण न हो, तो कौन अपनी पदवी छोड़ना चाहेगा! ज़ाहिर-सी बात है कि आज़ादी मिलेगी तो प्रतिकूल परिस्थितियों में पूरी व्यवस्था से उलझने की बजाय, औरतें पढ़ना और करियर बनाना चाहेंगी एक ख़ुशगवार ज़िंदगी जीने के लिए. पॉलिटिक्स उनकी पहली पसंद नहीं होती, अमूमन तो इसकी वजूहात सिर्फ उनकी नहीं, हम सबकी सामाजिक ट्रेनिंग में तलाशने का काम किया जाए.
अगर औरतें पढ़-लिख कर जीवन के हर क्षेत्र में कामयाब हो सकती हैं, तो चुनावों में हमेशा लाइन लगाकर वोट डालने और चंद पुरुषों को सत्ता के गलियारे में पहुंचाने की बजाय, खुद वहां क्यों नहीं हो सकतीं जहां सब नियम-कानून बनाये जाते हैं? क्यों उपस्थित नहीं हो सकती उस निर्णय-प्रक्रिया का हिस्सा होने के लिए!
(सुजाता दिल्ली विवि में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं और स्त्री विमर्श पर चर्चित किताब ‘स्त्री निर्मिति’ की लेखक हैं, साथ ही कवि भी)
Also Read
-
‘Bhujiya jihad’ with benefits: Your taxes will fund 100 interns at Sudarshan News
-
The fight for Pune’s green heart: A city’s soul vs 6 minutes of saved commute
-
लद्दाख में हिंसक प्रदर्शन, लेह में भाजपा कार्यालय आग के हवाले
-
HC dismisses X plea challenging govt portal over takedown orders
-
Shops shut, at least 50 lose jobs, but cops silent on Indore BJP leader’s ultimatum on Muslim workers