Newslaundry Hindi

कहानी एक असली चौकीदार की

रात के क़रीब डेढ़ बजे रहे थे, पुणे के पाषाण इलाके के एक आलीशान रिहायशी इलाके की सुनसान सड़कों पर एक मोटरगाड़ी तेज़ी से दौड़ रही थी. गाड़ी में सवार दो-तीन युवक एक बिल्डिंग के फाटक के सामने आकर गाड़ी रोकते हैं और गाड़ी का हॉर्न बजाते हैं. बिल्डिंग फाटक पर बैठा चौकीदार अपनी कुर्सी से उठकर फाटक खोल ही रहा था कि ड्राइविंग सीट पर बैठे युवक ने बदतमीज़ी से बोला, “अबे क्या देख रहा है, जल्दी से दरवाज़ा खोल. समझता नहीं है क्या तेरे को.”

गुस्से और हिक़ारत की नज़रों से देखते हुए लड़के गाड़ी में बैठकर गेट पार कर बिल्डिंग में चले गये और 36 साल का चंद्रप्रकाश बेबस और लाचार आंखों से उनकी ओर देखता रहा, और फिर फाटक लगाकर बैठ गया. बड़ी गाड़ी में बैठे बेअदब लड़के को इलेक्ट्रॉनिक्स में डिप्लोमा और बीए ग्रेजुएट चंद्रप्रकाश की न ही लाचारी दिखी होगी और न ही उसकी योग्यता. पुणे से 1700 किमी दूर, अपने परिवार का पेट पालने के लिए चंद्रप्रकाश दिन-रात लोगों की सिर्फ़ बदतमीज़ियों का ही शिकार नहीं होते, बल्कि महज़ 11000 रुपये कमाने के लिए ऐसे अमानवीय परिस्थितियों में रहते और काम करते हैं, जो उनके शरीर के लिए भी हानिकारक हैं.

यह कहानी सिर्फ़ चंद्रप्रकाश की ही नहीं है, बल्कि कई ऐसे चौकीदारों की है, जो न ही चोर हैं और न ही बताते फिरते हैं कि मैं चौकीदार हूं. यह कुछ ऐसे लोग हैं, जो पढ़ाई-लिखाई करने के बावजूद भी बेरोज़गारी और गरीबी की मार झेल रहे हैं, जिसे दूर करने के वादे हमारे देश की राजनैतिक पार्टियां हर चुनाव में करती हैं.

बिहार के बैकतपुर गांव के रहनेवाले चंद्रप्रकाश रोज सुबह 8 बजे के पहले अपनी 12 घंटे की ड्यूटी निभाने पाषाण के आलीशान इलाके की बिल्डिंग में पहुंच जाते हैं और रात को आठ बजे तक वहीं रहते हैं. महीने के तक़रीबन 8 से 10 दिन, आठ घंटे की यह ड्यूटी तब्दील होकर 24 घंटे की भी हो जाती है.

बिल्डिंग के गेट पर दिनभर चंद्रप्रकाश पहरेदारी का काम करते हैं. अब मौसम जब गर्मियों का आ गया है, तो उनका काम और मुश्किल हो गया है. इन दिनों पुणे का पारा लगभग 40 डिग्री तक पहुंच रहा और ऐसे में भरी दोपहर में एक शेड की आड़ में कभी खड़े रहकर, तो कभी बैठकर काम करना आसान नहीं होता है.

रोज़ काम पर आने के लिए वह अपनी साइकिल से क़रीब 3- 4 किमी का फासला तय करते हैं. वह एक निर्माणाधीन बिल्डिंग में बिन पंखे व बिजली के अपनी रात गुज़ारते हैं और वापस सुबह काम पर आ जाते हैं. अगर औसतन देखा जाये, तो हर रोज़ लगभग 17-18 घंटे काम करते हैं और उनको तनख़्वाह मिलती है 11000. अपनी तनख़्वाह में से लगभग 10000 रुपये वह अपने परिवार को भेज देते हैं और 1000 में अपना गुज़ारा करते हैं.

चंद्रप्रकाश अगर आज की तारीख़ में कुछ चाहते हैं, तो एक ढंग की नौकरी. जब न्यूज़लॉन्ड्री ने उनसे बात की तो सबसे पहले वह कहते हैं, “सर अगर हमारी कुछ मदद कर सकते हैं, तो कहीं ढंग की नौकरी दिलवा दीजिये सर, बहुत तकलीफ़ में हैं सर हम इस वक़्त.”

चंद्रप्रकाश ने इलेक्ट्रॉनिक्स में डिप्लोमा करने के बाद गया स्थित मगध यूनिवर्सिटी से बीए किया है. वह कहते हैं, “साल 2005 में अपनी पढ़ाई ख़त्म करने के बाद मैंने दो बार जूनियर रेलवे इंजीनियर की परीक्षा दी थी, लेकिन दोनों ही बार परीक्षा का परिणाम ही घोषित नहीं हुआ. उसके बाद, मैंने दुर्गापुर स्टील प्लांट में सुपरवाइज़र की नौकरी पाने की कोशिश की थी, लेकिन मेरा चयन नहीं हुआ. जब कहीं भी नौकरी नहीं मिल रही थी, तब फिर मैंने इलेक्ट्रीशियन का काम शुरू कर दिया था. मैं रोज़ अपने गांव से पटना जाता था और घर-घर जाकर पंखे, मिक्सी जैसी चीज़ें सुधारता था. महीने में 700-800 रुपये कमा लेता था, लेकिन इतने कम पैसों में परिवार का गुज़ारा करना बहुत मुश्किल होता है. वो तो घर की डेढ़ एकड़ जमीन थी, तो अनाज हो जाता था और पिता पंचायत सेवक थे, तो उनकी तनख़्वाह से घर चल जाता था.”

चंद्रप्रकाश ने बताया कि साल 2010 में कामाख्या (असम) स्थित गेमन इंडिया कंपनी में उनकी सुपरवाइजर की नौकरी लग गयी थी, जहां उन्होंने साल 2015 तक दस हज़ार रुपये की तनख़्वाह पर काम किया. वह कहते हैं, “मैं वहां जिस परियोजना पर काम करता था, वह 2015 में ख़त्म हो गयी थी और मैं फिर बेरोज़गार हो गया. साल भर नौकरी तलाशने के बाद मुझे समस्तीपुर जूट मिल में नौकरी मिल गयी थी. मुझे वहां आठ हज़ार रुपये महीने मिलते थे, लेकिन छह महीने बाद मिल में आग लग गयी और मैं फिर से बेरोज़गार हो गया था. आज तक वह मिल बंद ही पड़ी है.”

मिल में नौकरी छूटने के बाद चंद्रप्रकाश अपने गांव बैकतपुर लौट गये और फिर से इलेक्ट्रीशियन का काम करने लगे. जून 2018 में वह पहली बार पुणे आये और उनका चौकीदारी की नौकरी करने का पहला तज़ुर्बा काफ़ी बुरा रहा. चंद्रप्रकाश कहते हैं, “सबसे पहले यहां आने के बाद मैंने बोपोड़ी (पुणे का एक इलाका) में तक़रीबन 49 दिन एक बिल्डिंग में चौकीदारी का काम किया था. जिसमें उन्नीस दिन तक 24 घंटे की ड्यूटी की थी. मैं कुर्सी पर ही सो लेता था बीच-बीच में, लेकिन इतने दिन तक दो शिफ्ट में लगातार काम करने की वजह से मेरी तबीयत बिगड़ गयी थी. इसके बाद मैंने दो शिफ्ट करने के अपने 8860 रुपये मांगे, तो सुपरवाइज़र ने मुझे मेरे पैसे नहीं दिये. लाख मिन्नतें करने के बाद भी उसने मेरे पैसे नहीं दिये. परेशान होकर मैंने वहां से नौकरी छोड़ दी.”

चंद्रप्रकाश कहते हैं, “अगर बुरे लोग हैं, तो कुछ अच्छे लोग भी हैं. उस वाकये के बाद एक अन्य चौकीदार की मदद से मुझे औंध की एक बिल्डिंग में नौकरी मिल गयी थी और वहां से फिर मैं यहां पाषाण में आ गया.”

चंद्रप्रकाश ने बताया कि वह एक निर्माणाधीन इमारत में अपनी रात गुज़ारते हैं, क्योंकि उनके पास इतने पैसे नहीं कि वह किराये पर कमरा ले सकें. वह कहते हैं, “महीने भर में सिर्फ़ ग्यारह हज़ार रुपये हाथ में आते हैं, एक हज़ार रुपये मैं अपने खाने-पीने के खर्च के लिए निकाल लेता हूं और बचे दस हज़ार घर भेज देता हूं. अगर मैं किराये से सस्ते से सस्ता भी कमरा लूंगा, तो लगभग तीन हज़ार रुपये खर्च हो जायेंगे. अगर इतने पैसे यहीं खर्च हो जायेंगे, तो घर पर क्या भेजूंगा.”

चंद्रप्रकाश जिस निर्माणाधीन इमारत में रहते है, वहां उनके साथ एक और चौकीदार रहते हैं. दोनों बारी-बारी से दिन में दो बार खाना बनाते हैं. कई बार जब थकान के चलते खाना नहीं बना पाते हैं, तो चंद्रप्रकाश 4-5 केले खाकर अपना दिन गुज़ार देते हैं.

चंद्रप्रकाश के परिवार में उनके माता-पिता के अलावा उनकी पत्नी और चार बच्चियां हैं. वह कहते हैं, “मेरी चार बेटियां हैं, सबसे बड़ी दसवीं में पढ़ती है, दूसरी आठवी में है और सीबीएसई बोर्ड के तहत पढ़ती है. बाकी दो अन्य बेटियां अभी तीसरी में पढ़ती हैं. बच्चो की फीस भी मैं किस्तों में भरता हूं, एक महीने एक बच्ची की तो दूसरे महीने दूसरी बच्ची की. स्कूल वाले अच्छे हैं, वरना बहुत मुश्किल हो जाता. मैं चाहता हूं कि मेरे बच्चे कामयाब बनें, मेरी तरह असफल न रह जायें.”

चंद्रप्रकाश का हरदम थका हुआ चेहरा और उनकी आंखों के नीचे के काले घेरे, उनकी ज़िंदगी की कठिनाइयों के बारे में बहुत कुछ बयान करते हैं. उन्होंने बताया कि नींद की कमी के चलते व लगातार काम करते रहने की वजह से उन्हें अक्सर थकान और सिर दर्द रहने लगा है. वह कहते हैं, “ईमानदारी से काम करने के चक्कर में उन्हें बहुत बार बेइज़्ज़ती भी सहनी पड़ती है. जब भी बिल्डिंन में प्रवेश करने के पहले सुरक्षा कारणों हेतु वह बिल्डिंग में आनेले लोगों का नाम रजिस्टर में लिखवाने के लिए बोलते हैं, तो कई बार लोग बदतमीज़ी करने लगते हैं. लेकिन हमें चुपचाप सहन करना पड़ता है, दूसरा कोई उपाय नहीं है.

चंद्रप्रकाश और उनके जैसे अन्य कई लोगों को रिहायशी इमारतों की निजी प्रबंधक समितियों का शिकार होना पड़ता है. इन समितियों में उन्हीं इमारतों में रहनेवाले लोग होते हैं, जो हुक्मरानों की तरह पेश आने लगते हैं. कुछ तो ऐसे होते है कि अगर ठंड के मौसम में चौकीदार अपनी वर्दी पर स्वेटर पहन लें, तो उनका स्वेटर उतरवा लेते हैं और उन्हें वही हल्के स्तर का स्वेटर पहनने के लिए मजबूर करते हैं, जो उनकी वर्दी का हिस्सा होता है और ठंड रोकने में बेअसर होता है. गर्मियों में भी इन लोगों को लू की लपटें खाते हुए काम करना होता है.

आनेवाले लोकसभा चुनाव के बार में जब चंद्रप्रकाश से पूछा गया तो वह कहते हैं, “पता नहीं सर, हमारे लिए तो सब एक से हैं, कोई भी जीते हमारी हालत तो ऐसे ही रहेगी. बस इतनी उम्मीद है कि देश में लोगों को नौकरी के इतने मौके मिलें कि पढ़ने-लिखने के बाद भी किसी को हमारे जैसी नौकरी न करनी पड़े.”

बहुत देर बात करने के बाद चंद्रप्रकाश ने टाइम पूछा और बोले, “सर बहुत रात हो गयी है, अब निकलता हूं. ज़्यादा देरी हो गयी तो निर्माणाधीन बिल्डिंग में प्रवेश नहीं मिलेगा.” यह कहकर उन्होंने अपनी साइकिल उठायी और चल दिये अपने जीवन की कठिनाइयों से फिर से रूबरू होने.