Newslaundry Hindi
दैनिक जागरण समीक्षा पार्ट-2: झूठ उगलती पंक्तियों के बीच से झांकती सच्चाई
गाज़ियाबाद संस्करण. मूल्य चार रुपये. दिनांक 27 मार्च. दैनिक जागरण के कवर पर विज्ञापन वाले पेज को पलटते ही आता है महासमर 2019. अख़बार पढ़ने से अख़बार पढ़ना नहीं आता है. आप जिन ख़बरों को पढ़ते हैं उन्हें ग़ौर कीजिए. किस तरह ख़बर की चमक के पीछे ख़बर ग़ायब की जाती है, यह तभी पकड़ में आएगी जब पाठक अख़बार पढ़ने का तरीका बदलेगा. दैनिक जागरण साधारण अख़बार नहीं है. यह देश का सबसे बड़ा अख़बार है. आप ख़ुद याद करें कि पिछले पांच साल में इस अख़बार ने ऐसी कौन सी ख़बर की है जिससे लगे कि यह सरकार से सवाल करने की ताकत रखता है. उसकी पहरेदारी करता है. आज मैं सिर्फ एक ख़बर का विश्लेषण करूंगा. बहरहाल पहली ख़बर प्रियम की है. इसका शीर्षक है- एक गांव ऐसा…
प्रियम की रिपोर्ट को काफी बड़ी जगह मिली है. राइट-अप, ग्राफिक्स और तस्वीरों के साथ तीन बॉक्स हैं. प्रियम की रिपोर्ट के इंट्रो के ऊपर एक और इंट्रो जैसा है. पाठक इन दोनों इंट्रो को पढ़ते हुए नहीं समझ पाएगा कि भाषाई कौशल से अच्छा लिखे होने के बाद भी इसमें कोई जानकारी नहीं है. इसका इस्तेमाल जगह भरने के लिए किया गया है. प्रियम लिखती हैं कि वे राजधानी दिल्ली से 37 किमी दूर एक गांव में गई हैं. वे किस राजधानी से 37 किमी दूर गई हैं, इसका ज़िक्र नहीं है. हो सकता है लखनऊ से गईं हों, हो सकता है दिल्ली से गईं हों. गांव पर ही रिपोर्ट है. मगर पूरी रिपोर्ट में गांव का नाम नहीं है. कमाल है. इस कमाल के लिए सॉरी प्रियम.
रिपोर्टर प्रियम ने इंट्रो के नाम पर साहित्यिक नकल मारने के चक्कर में अपनी कॉपी का बड़ा स्पेस बेकार की बातें लिखने में लगा दिया. जैसे-
“इस ख़बर को न किसी असीमित समूह के विचार की बानगी मानिएगा न इस तस्वीर से उस संपूर्ण क्षेत्र के विकास का अंदाज़ा लगाइएगा. यह मौलिक है और सीमित भी. अपनी टीम के साथ सरकारी योजनाओं को सड़क से लेकर गांव किनारे तलाशती राजधानी से करीब 37 किमी दूर आई थी. अजीब था पर असल, लेकिन जब बागों के किनारे ठहरे विकास के मुस्कुराते चेहरे ने हाथ दिया, हम रुके और बायीं ओर पक्की सड़क का पीछा किया. सोचा था ज़्यादा दूर तक पक्की सड़क से नहीं जा सकेंगे, लेकिन वही रास्ता हमें गांव के नज़दीक नहीं बल्कि लोगों के बीच तक ले गया.”
ऐसा लगता है कि प्रियम को सड़क नाम के विकास ने इतना मोहित कर दिया कि वो साहित्यिक हो उठी हैं. पक्की सड़क न होती तो भी वो लोगों तक ले जा सकती थी. प्रियम को विकास के मुस्कुराते चेहरे ने हाथ दिया और वो रूकीं. उम्मीद है कि वे नीदरलैंड नहीं गई थीं, यूपी के ही किसी गांव में भटक रही होगीं जहां के गांवों में खड़जा और सीमेंट की सड़कों का चमकना विकास का मुस्कुराना नहीं है. रिपोर्टर को बताना चाहिए था कि यह पक्की सड़क कब अवतरित हुई है. लोकसभा चुनाव में केंद्रीय योजनाओं की पड़ताल पर निकली थीं तो लिख सकती थीं कि प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के कारण सड़क चमक रही थी. एक पाठक को पता नहीं चला कि सड़क प्रधान ने बनवाई थी या विधायक ने या सांसद ने या किसी और योजना से. यह ग़लती प्रियम से भी हुई और हम लोगों से भी होती रही है.
अब प्रियम का दूसरा पैराग्राफ शुरू होता है. वे बता रही हैं कि पूरे गांव में एक ही जाति थी- पासी. जाति और राजनीति पर तीन चार लाइन व्यर्थ के गंवाते हुए वे आगे बढ़ती हुई उज्ज्वला योजना पर आती हैं. लिखती हैं कि यहां ज़्यादातर महिलाएं उज्ज्वला योजना से लाभान्वित हैं तो कुछ दिव्यांगजन पेंशन की ज़रूरत भी समझती हैं. ग्राफिक्स में गांव की आबादी 900 बताई गई है. 150 उज्ज्वला कनेक्शन बताया गया है. 200 बिजली कनेक्शन.
प्रियम की रिपोर्टर से पता तो चला कि ज्यादातर महिलाओं को उज्ज्वला कनेक्शन है और इसकी संख्या 150 है. अब यहां साफ नहीं होता है कि कनेक्शन की पात्रता कितनी है. ज़्यादातर का मतलब क्या होता है? सड़क से मोहित प्रियम दिव्यांगजन की पेंशन की ज़रूरतों को आधी पंक्ति देकर आगे निकल जाती हैं. “एक जनपद एक उत्पाद नहीं है तो ये खुद का रोज़गार विकसित करना जानती हैं.” इस पंक्ति का क्या मतलब है, आप पाठक ही बता सकते हैं.
“एक पिता शादी अनुदान की ज़रूरत महसूस करता है तो परिवार के प्रधानमंत्री आवास योजना की इज़्ज़्त महसूस करता है.” गांव में कितने लोगों को प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत घर मिला है, उनके अनुभव क्या है इसका ज़िक्र रिपोर्ट में नहीं है. आवास योजना के तहत मिले घरों की तस्वीर भी नहीं है. ग्राफिक्स में लिखा है कि 100 प्रधानमंत्री आवास हैं. अब फिर वे उज्ज्वला पर लौटती हैं और 78 साल की फराना का अनुभव लिखती है कि उनकी बेटी आरती हाथ पकड़ कर रसोई की ओर ले जाती हैं. कहती है कि लकड़ी लगा दिए हैं, खाना बनाओ. प्रियम पूछती हैं कि क्यों सरकारी सिलेंडर नहीं मिली? तो आरती कहती है कि मां चला नहीं पाती हैं, इसलिए चूल्हा पर खाना बनाती हैं. मां को सिखा दिया लेकिन अभी लकड़ी काट कर मां के लिए चूल्हा तैयार कर देती हूं.
प्रियम ने इसे सरकारी सिलेंडर कहा है. क्या उज्ज्वला का सिलेंडर सरकारी है? एक सामान्य व्यक्ति जब गैस का कनेक्शन लेता है तो उसे 3,200 रुपये कनेक्शन के देने होते हैं. उज्ज्वला योजना के तहत कनेक्शन की कीमत 1,800 रखी गई है. सरकार इसे लोन के रूप में देती है न कि मुफ्त देती है. ये 1800 रुपये उपभोक्ता को अपनी सब्सिडी से चुकाने होते हैं. तो फिर यह सरकारी सिलेंडर कैसे हो गया?
प्रियम जैसी भाषाई क्षमता वाली रिपोर्टर इन जानकारियों को रख सकती थीं. उज्ज्वला योजना की पात्रता रखने वाली महिलाओं से पूछ सकती थीं कि क्या वे सिलेंडर रीफिल करा पाती हैं, उन्हें महंगा पड़ता है, इसलिए चूल्हे पर खाना बनाने के लिए मजबूर हैं. प्रियम ने यह नहीं किया. उनकी कॉपी लिखी ऐसी जा रही थी जैसे सरकार खासकर मोदी सरकार का विज्ञापन होता रहे. बेहद महीन तरीके से पाठक के दिमाग़ में छवियों को गढ़ा जा सके. यहीं प्रियम ने देखा कि रसोई में सिलेंडर के साथ लकड़ी का चूल्हा है जो ख़तरनाक है.
साफ है रिपोर्टर प्रियम उज्ज्वला योजना के बारे में जानकारी लिए बग़ैर इसका मूल्यांकन करने निकली थीं. इसलिए उनकी रिपोर्ट में भाषाई कलाकारी ज़्यादा है और पत्रकारिता ज़ीरो है. कितने अरमान से ऐसे लोग पत्रकारिता में आते होंगे. मैं मान नहीं सकता कि प्रियम जैसी रिपोर्टर में पत्रकारिता की आग नहीं धधकती होगी, लेकिन उसकी मजबूरी समझता हूं. तभी तो रिपोर्टर ने अपनी तरीके से यह उदाहरण छोड़ दिया कि फराना सिलेंडर होते हुए भी चूल्हे पर खाना बना रही है.
प्रियम अगर उज्ज्वला योजना के बारे में तैयारी कर गई होती तो इस योजना पर लहालोट होने से पहले उसे इसके बहाने गांवों में ग़रीबी का भयावह रूप दिखता. उज्ज्वला योजना के तहत फुल लोन का सिलेंडर दिया जाता है. राशन कार्ड के साथ उसमें दर्ज सभी नामों को आधार कार्ड देना होता है. किसे मिलेगा इसकी पूरी चेक लिस्ट है कि आपके पास मोटरसाइकिल न हो, एसी न हो वगैरह-वगैरह. तीन महीने पहले तक जब तक 1,800 रुपये कट नहीं जाते थे पूरी सब्सिडी नहीं आती थी. यूपी में 320 रुपये प्रति सिलेंडर सब्सिडी दी जाती है. तो सिलेंडर लेने के छह महीने तक गरीब उपभोक्ता को 760 रुपये में (या जो उस वक्त पूरा दाम रहा होगा) सिलेंडर खरीदने पड़े और फिर छठे रिफिल से उसे 440 रुपये में सिलेंडर मिलता था. 320 रुपये सब्सिडी के कट जाते.
लेकिन ज़्यादातर उपभोक्ता दो बार भी रीफिल नहीं करा पाते थे. सूत्रों के मुताबिक उज्ज्वला योजना का औसत रीफिल भी यही है. मतलब जिन्होंने सिलेंडर लिया वो दो बार से ज़्यादा नहीं ले सके. उसका उपयोग बंद हो गया. अब इस साल नियम में बदलाव किया गया है. ग़रीब उपभोक्ता ने उज्ज्वला योजना के तहत गैस का कनेक्शन लिया. उसे लगातार छह रीफिल तक सब्सिडी मिलेगी. यानी पहले छह महीने में उसे सिलिंडर 440 रुपये में मिलेगा. 1,800 रुपया लोन नहीं कटेगा. यह लोन छह रिफील के बाद कटेगा. इसके बाद 1,800 का लोन कटेगा. यानी 320 रुपये की सब्सिडी नहीं मिलेगी. छह महीने में इसकी किश्त पूरी होती है. इन छह महीनों में उपभोक्ता को पूरे दाम पर यानी 760 रुपये में सिलेंडर ख़रीदने होंगे. यह क्यों किया गया? क्योंकि शुरू के महीनों में सिलेंडर का रिफील बढ़े. लगे कि उज्ज्वला ने क्रांति कर दी है. मगर बाद के छह महीने में फिर तो गाड़ी वहीं रूकनी थी. इसका कारण है लोगों की ग़रीबी. लोगों की आर्थिक स्थिति कितनी कमज़ोर है, आप उज्जवला के बहाने अंदाज़ा लगा सकते हैं. प्रियम नहीं बता पाईं कि आरती की मां आर्थिक कारणों से उज्ज्वला का इस्तेमाल नहीं करती हैं या फिर उस गांव में दूसरी औरतें नहीं कर पाती हैं.
आपने प्रियम की रिपोर्ट पढ़ते हुए उज्ज्वला की तारीफ तो जानी मगर न तो इस योजना के बारे में कुछ जान पाए और न ही इसकी सच्चाई के बारे में. एक अच्छी रिपोर्टर पता कर सकती थी कि उस अनाम गांव में 150 कनेक्शन में से कितने लोगों ने रीफिल कराए हैं. कितने लोगों ने दोबारा सिलेंडर ही नहीं लिए. अब प्रियम उज्ज्वला से आगे बढ़ती हैं तो गांव में एक लड़की रीमा से टकराती हैं जो सातवीं तक पढ़ी है. भैया स्कूल भेजने की बात करते हैं. “मैं फैसला उसी पर छोड़ आगे बढ़ आई.”
यह इस मुलाकात की अंतिम पक्ति है जो रिपोर्टर की है. रिपोर्टर ने यह चेक नहीं किया कि विकास को जिस गांव में मुस्कुराते देखा था वहां स्कूल है या नहीं. सातवीं से आगे पढ़ने के लिए रीमा जैसी लड़की को कितनी दूर जाना पड़ता है, या आगे की पढ़ाई की क्या जरिया है.
फिर प्रियम को रास्ते में कुछ युवक ताश खेलते हुए दिखते हैं जिन्हें छोड़ कर वह आगे बढ़ जाती है. प्रियम पूछती है कि गांव में खुले में शौच की स्थिति क्या है तो मुलहे प्रसाद रावत ने कहा कि हमारे घर में शौचालय नहीं है लेकिन बेटे के यहां है. ग्राफिक्स में लिखा है कि 550 शौचालय हैं. आबादी 900 बताई गई है. शौचालय का डेटा बताता है कि गांव में 550 घर तो हैं. जहां शौचालय बना है. एक घर में एक ही बनता है. अब इस डेटा को सामने रख ग्राफिक्स में दिए गए अन्य डेटा को देखिए. 550 घरों में से 150 में ही उज्ज्वला कनेक्शन है. क्या मान लें कि ज्यादातर घरों में कनेक्शन हैं या यह मान लें कि 150 को छोड़ बाकी 400 घर संपन्न हैं. अगर 400 घर संपन्न हैं तो फिर ग्राफिक्स क्यों कहता है कि 200 बिजली कनेक्शन हैं. यूपी तो दावा करता है कि 100 प्रतिशत बिजली कनेक्शन हैं.
ग्राफिक्स के आंकड़े बता रहे हैं कि रिपोर्टर अपनी नौकरी जाने के डर से आंकड़ों से छिपा लेना चाहती है. प्रियम के दिए गए आंकड़े बताते हैं कि वह जिस गांव में गई है वहां विकास रो रहा था मगर लिखना था इसलिए लिखा कि विकास मुस्कुरा रहा था. ज़रूर किनारे के बाक्स में महिलाओं का एक कमेंट है जिसमें वे कहती हैं कि सभी सरकारों ने काम किया, लाभ हुआ मगर काम तो अखिलेश ने भी किया. अगर पाठक बारीक फॉन्ट में लिखी इस बात तक पहुंचेगा तो ही समझ पाएगा मगर रिपोर्ट का व्यापक हिस्सा रद्दी पत्रकारिता और सरकार के प्रोपेगैंडा का परिणाम है. यह समस्या सिर्फ प्रियम की नहीं है बल्कि हिन्दी पट्टी के सभी पत्रकारों की है.
जो छात्र पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे हैं, उन्हें निजी तौर पर हिन्दी अख़बारों की एक ख़बर का इसी तरह विश्लेषण करना चाहिए. इससे उन्हें पता चलेगा कि अगर अखबार प्रोपेगैंडा कराए तो कैसे खबर लिख देनी है. इस लिहाज़ से प्रियम ने सच्चाई के कई निशान छोड़े हैं, बस यही कमी रह गई कि साफ-साफ नहीं कहा और जो कहा वो उनके अपने अनुभव के विपरीत था. यह काम पाठकों को भी करना होगा क्योंकि मेरा मानना है कि हिन्दी के अख़बार हिन्दी के पाठकों की हत्या कर रहे हैं. हिन्दी पट्टी के नौजवानों की बुद्धि में गोबर भर रहे हैं ताकि वे महानगरों के सुविधाओं से लैस तेज तर्रार छात्रों का मुकाबला न कर सकें.
Also Read
-
Road to Mumbai North: Piyush Goyal’s election debut from BJP’s safest seat
-
Hafta 485: Political ads, Amethi-Rae Bareli fight, Kejriwal’s return
-
TV Newsance 253: A meeting with News18’s Bhaiyaji, News24’s Rajeev Ranjan in Lucknow
-
Uttarakhand: Forests across 1,500 hectares burned in a year. Were fire lines drawn to prevent it?
-
दो रैलियां, एक से सवाल: मोदी-राहुल के समर्थकों के लिए क्या हैं बड़े मुद्दे?