Newslaundry Hindi
अखिलेश की अग्निपरीक्षा
लगभग 19 साल पहले जब अखिलेश यादव कन्नौज के उपचुनाव में पहली बार चुनाव मैदान में आये थे, तब नारा चला था— ‘साइकिल का बटन दबा दो, टीपू को सुल्तान बना दो.’ आज अखिलेश अपनी पार्टी के सिरमौर हैं. वो उत्तर प्रदेश जीत कर फिर हार भी चुके हैं, सेना (पार्टी) आधी हो चुकी है. परिवार के कुछ सदस्य भी अलग-थलग हो चुके हैं.
अखिलेश के लिए हालत विपरीत हैं. ये बात लखनऊ में सपा मुख्यालय के बाहर कुछ समर्थकों द्वारा बजाये जा रहे एक पुराने प्रचार गीत से साबित होती है— ‘गर्दन भी अगर कलम होगी, साइकिल की धार न कम होगी, इसकी मैं शान बढ़ाऊंगा, इसका सम्मान बचाऊंगा, एक बार फिर मुझे दिल दे दो, सबका प्यारा अखिलेश हूं मैं.’
कहते तो हैं कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश हो कर जाता हैं. यह प्रदेश सबसे ज्यादा 80 सदस्य लोकसभा में भेजता हैं. ऐसे में ज़ाहिर हैं सबकी निगाहें उत्तर प्रदेश के चुनावी संग्राम की तरफ हैं. ये चुनाव सबके लिए महत्वपूर्ण हैं लेकिन सबसे ज्यादा दांव पर अगर किसी का लगा है तो वो हैं समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव.
पांच साल प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे अखिलेश भी इस बात को बखूबी समझते हैं. उनके सामने एक ताकतवर विपक्षी है, और उनके साथ बहुजन समाज पार्टी का समर्थन है, अपनों की नाराज़गी हैं. इस बार वो पार्टी के अन्दर और विपक्ष दोनों के निशाने पर हैं. ये पहला लोकसभा चुनाव होगा जिसकी पूरी ज़िम्मेदारी उनके ऊपर है. मुलायम सिंह यादव नेपथ्य में हैं.
राजनीति में न कोई हारता हैं न कोई जीतता हैं. बस समय का चक्र घूमता रहता है और इस घूमते समय के साथ कभी भी भुलाया गया नेता फिर से जीवंत हो उठता है. बावजूद इसके इस चुनाव के परिणाम अखिलेश के राजनीतिक भविष्य को प्रभावित तो करेंगे ही, इसमें कोई संदेह नहीं है.
ये चुनाव अखिलेश के लिए ज़रूरी क्यूं?
चुनाव में प्रतिष्ठा तो तमाम नेताओं की लगी हैं. लेकिन अखिलेश के लिए ये चुनाव कई फैसले देगा. उनका राजनीतिक कौशल, अपने दम पर पार्टी चलाने, चुनाव लड़ने से लेकर गठबंधन और हर तरह के प्रबंधन की ज़िम्मेदारी आदि सबका इम्तेहान है.
ये पहला ऐसा लोकसभा चुनाव है जिसमें सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव हैं. पिछला 2017 का विधानसभा भी उन्होंने राष्ट्रीय अध्यक्ष की हैसियत से ही लड़ा था. इस बार सपा का मतलब पूरी तरह से अखिलेश हैं. साल 1992 में अपनी स्थापना से लेकर सपा पहली बार मुलायम सिंह यादव के बिना पहली बार किसी दूसरे नेता के अधीन चुनाव लड़ रही हैं. मुलायम का नाम इस बार सपा कि स्टार प्रचारक की सूची में भी नहीं है. सवाल उठ रहे हैं. सोशल मीडिया पर बहस चली तो एक समर्थक अनुराग यादव ने लिखा- ‘नेताजी स्टार नहीं हमारे चांद हैं, उनका आशीर्वाद ही प्रचार हैं.’ बाद में मुलायम सिंह का नाम भी स्टार प्रचारकों में शामिल किया गया.
परिवार भी अलग है. चाचा शिवपाल यादव अपनी अलग पार्टी बना कर मैदान में हैं. वो स्वयं फ़िरोज़ाबाद से भतीजे अक्षय यादव के सामने हैं. यानी सैफई परिवार पहली बार आमने सामने लड़ रहा हैं. शिवपाल के साथ लगभग हर जिले से सपा से जुड़ाव रखने वाले नेता/कार्यकर्ता भी बंट गए हैं. इस चुनाव में अखिलेश यादव को इस स्थिति को भी संभालना और झूझना है.
अपना पारंपरिक क्षेत्र छोड़ कर पहली बार अखिलेश खुद पूर्वांचल में आजमगढ़ से चुनाव लड़ने जा रहे हैं. ये सीट 2014 में मुलायम सिंह यादव ने जीती थी, अब अखिलेश यादव यहां से खुद उतर रहे हैं. जाहिर है इस सीट पर उनकी पार्टी का दबदबा रहा है और उनके जीतने की गांरटी भी है. पत्नी डिंपल यादव कन्नौज से एक बार फिर मैदान में हैं. मतलब पहली बार दोनों एक साथ मैदान में हैं. पारिवारिक उठापटक के बाद ये ज़रूरी भी हो चुका था. सपा के 5 सांसद 2014 में जीते और सब परिवार के सदस्य हैं. इस बार परिवार के छह सदस्य मैदान में हैं जिनमें से दो आमने-सामने हैं यानी एक को हारना ही होगा. पिछले पांच साल में सैफई परिवार के कई अन्य सदस्य भी चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो चुके हैं. इतनी बड़ी संख्या में सबको समेट पाना भी अखिलेश को ही झेलना है.
पार्टी स्तर पर सब कुछ अखिलेश के हवाले है. वो जिसे चाहें रखें, जिसे चाहे निकाल दें. अब सारी टीम उनकी हैं. टिकट वो दे रहे हैं. टिकट वो काट भी रहे हैं. मुलायम सिंह के दौर में पहले एक केंद्रीय पार्लियामेंट्री बोर्ड की बैठक होती थी, भले दिखावे के लिए ही सही, कई दिन चहल-पहल रहती थी लेकिन फैसला होता था कि सब निर्णय राष्ट्रीय अध्यक्ष लेंगे. इस बार फेसबुक पर सूची आ रही हैं, सीधे अखिलेश के जरिए. सपा के पूर्व सांसद बाल कुमार पटेल जिन्होंने अपना टिकट कटने कि वजह से कांग्रेस ज्वाइन कर लिया वो पार्टी कार्यालय के बाहर कहते सुने गए— एक बार अध्यक्षजी को सुनना चाहिए था. लोगों का आना जाना महत्वपूर्ण नहीं बल्कि ये महत्वपूर्ण है कि अब निर्णय भी आपके और उसका नतीजा भी आपका.
अखिलेश का मज़बूत पक्ष:
भले ही मुलायम सिंह ने कहा हो कि गठबंधन होने से सपा की हैसियत कम हो गयी हो. चाहे आरोप कितने लगे कि सपा को उसके अपने ही नुकसान पहुंचा रहे हैं लेकिन अखिलेश ने एक बात तो साबित कर दी कि वो राजनीतिक रूप से बड़े फैसले ले सकते हैं. पूरे 27 साल बाद बसपा प्रमुख मायावती के साथ रिश्ते बनाना और फिर उसे गठबंधन के मुकाम तक पहुंचाना उनकी सफलता में गिना जाएगा. राजनीतिक रूप से ये बहुत बड़ा फैसला माना जा रहा है. रणनीति यह है कि, सब सीटें लड़ कर हारने से अच्छा हैं कि आधी लड़ कर कुछ जीत ली जाय.
पार्टी में भगदड़ मचने के बाद उसे संभालना, जब तब मुलायम सिंह के विरोधाभासी बयान, सैफई की बहू अपर्णा यादव का चुनाव लड़ने के लिए जोर लगाना, आदि ऐसी घटनाएं हैं जिनसे कड़ाई से निपटकर अखिलेश ने अपनी पकड़ तो साबित कर ही दी है.
अब सपा भी नए दौर की हो चुकी हैं. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से अखिलेश यादव ट्विटर वार करने से पीछे नहीं हटते. एक नयी पीढ़ी जो अब मैदान में है, जो सोशल मीडिया से संचालित होती है, वहां सपा की ज़मीन अखिलेश ने ही बनायी है. ये पीढ़ी वो है जो सपा, मुलायम और उनके संघर्ष, लोहिया की यादगार बातें सिर्फ सुन लेती हैं लेकिन लड़ती-भिड़ती सिर्फ अखिलेश यादव के लिए हैं. निस्संदेह अखिलेश ने एक डायरेक्ट कनेक्शन तो जोड़ा हैं. वो व्हाट्सएप पर मेसेज का जवाब देते हैं.
सबसे बड़ी बात, अखिलेश ने इस पूरी प्रक्रिया में अपनी पार्टी के तमाम दूसरे सत्ता के केंद्र भी ख़त्म कर दिए. पहले वरिष्ठ नेताओं का अलग ग्रुप था, परिवार का हर व्यक्ति अलग पॉवर सेंटर था, मुलायम सिंह का अलग, यहां तक कि धर्मगुरुओं का अपना अलग ग्रुप— अब सब कुछ अखिलेश हैं. परिवार के लोग भी अखिलेश की तरफ देखते हैं, अगर कुछ चाहिए.
अखिलेश ने इस बार जो लचीला रुख अपनाया हैं वो काफी फायदेमंद साबित हो रहा है. बसपा का गठजोड़ इसका उदहारण है तो अन्य लोगों को मनाना भी बड़ा काम था. जयंत चौधरी भी एक मीटिंग में मान गए. तुरंत अखिलेश ने अपने कोटे से एक सीट दे दी. जनता के बीच ये सन्देश देना कि ये गठबंधन भाजपा को हराने में सक्षम है उन्होंने कर दिखाया है. इसीलिए भाजपा को तीन वो सीटें— गोरखपुर, फूलपुर, कैराना— जहां वो लोकसभा उपचुनाव हारी थी वहां से अपना प्रत्याशी बदलना पड़ा है.
अपने असली पक्ष— खुद को ‘मैं बैकवर्ड हिन्दू हूं’ कहना, विकास को मुद्दा बनाना, पिछली परिपाटी के अनुसार किसी मौलाना से प्रेस कॉन्फ्रेंस करवा कर सपोर्ट लेने की सपा की परंपरा को ख़त्म कर अखिलेश ने अपनी एक स्वतंत्र नेता की छवि निर्मित की है.
अखिलेश का कमज़ोर पक्ष:
भले ही अखिलेश हाई-टेक हों लेकिन ज़मीन पर अभी तक नहीं पहुंचे हैं. जनता से जुड़ाव उससे मिलकर होता हैं. अभी अखिलेश में वो बात नहीं आ पाई हैं. सपा को हमेशा से मज़बूत विपक्ष के लिए प्रदेश में जाना जाता था. जनता के बीच सड़क पर मौजूद रहकर विरोध प्रदर्शनों की अगुवाई में इसका कोई जोड़ नहीं है लेकिन वो स्पार्क अखिलेश के कार्यकाल में कहीं मद्धिम पड़ गया है.
जब लगता है कि सब कुछ ठीक है तभी कोई न कोई परिवार का सदस्य, जिसमें मुलायम सिंह भी शामिल हैं, कुछ न कुछ ऐसा कर देता है या बोल देता है जिससे विपक्ष को हमला करने का अवसर मिल जाता है और किए-धरे पर पानी फिर जाता हैं. जैसे मुलायम का संसद में मोदी को आशीर्वाद देना, रामगोपाल का पुलवामा हमले पर बोलना, अपर्णा यादव का जब तब भाजपा के नेताओं से मिलना आदि.
बसपा से गठबंधन करने में तो अखिलेश का कौशल समझ में आ गया लेकिन ये सन्देश कि सपा इसमें जूनियर पार्टनर के रूप में हैं ये गलत हो रहा हैं. खुद हर बार अखिलेश का मायावती के घर जाना इसका एक उदहारण है.
कांग्रेस से गठबंधन करने में लुका-छिपी रखना, उसके लिए दो सीट छोड़ना, फिर उसको नसीहत देना कि कंफ्यूज़न पैदा न करे- ये सब बातें और बेहतर तरीके से मैनेज हो सकती थीं, लेकिन इस पर भी मीडिया में काफी अटकलें और खिल्लियां उड़ी.
पार्टी में अपने नेताओं पर कुछ कठोर निर्णय लेना. पुराने समाजवादी (सपाई) बताते हैं कि मुलायम सिंह अगर किसी का टिकट काट देते थे तो भी उससे मिलते थे, आश्वासन देते थे, पत्र लिखकर उसको धन्यवाद देते थे. अखिलेश के नेतृत्व में अगर एक बार मना हो गया, या अगर किसी की विश्वसनीयता ज़रा भी संदिग्ध हुई, तो वो सीधे गया हाशिये पर और फिर बाहर. अगर सिर्फ अखिलेश ने फोन करना शुरू कर दिया होता तो शिवपाल यादव के साथ गए आधे से ज्यादा समर्थक आज भी इस ताक में हैं कि पुरानी पार्टी में वापसी हो जाय. उन्हें बस एक सम्मानजनक तरीका चाहिए.
भले अखिलेश सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हों लेकिन मुलायम का क़द अपने दौर में बहुत बड़ा था. गैर भाजपा पार्टियों के बीच उनका महत्व था. अभी अखिलेश को वहां पहुंचना है. राज्यों के बाहर जिस दर्जे का संपर्क मुलायम सिंह का था, अखिलेश का नहीं है. अखिलेश की कम उम्र भी इसका एक तकाजा है.
अखिलेश यादव की काफी हद तक निर्भरता प्रचार पर रहती है. हर टीवी चैनल के सम्मलेन में वो ज़रूर जाते हैं, अब तक सपा के 42 मीडिया पैनलिस्ट बना चुके हैं, धड़ाधड़ प्रेस कॉन्फ्रेंस करेंगे, भले ये कहते और मानते हो कि तमाम दुष्प्रचार भी हुआ है, लोगों पर जल्दी ही मेहरबान हो जाते हैं, पिछली सपा सरकार में उपकृत हुए तमाम व्यक्ति अब खुल कर इनके विरोध में आ चुके हैं. यानी अभी लोगों की परख उस स्तर की नहीं है जो गुण मुलायम सिंह यादव का अचूक हथियार था. राजनीतिक रूप से वो भले अपने निर्णय ले लें लेकिन इस मामले में अभी तक वो बड़ी लाइन नहीं खींच पाए हैं.
Also Read
-
A flurry of new voters? The curious case of Kamthi, where the Maha BJP chief won
-
Delhi’s demolition drive: 27,000 displaced from 9 acres of ‘encroached’ land
-
डिस्टर्ब्ड एरिया एक्ट: गुजरात का वो कानून जिसने मुस्लिमों के लिए प्रॉपर्टी खरीदना असंभव कर दिया
-
How Muslims struggle to buy property in Gujarat
-
Air India crash aftermath: What is the life of an air passenger in India worth?