Newslaundry Hindi
साझी विरासत की गूंज
दिल्ली और हिंदी बेल्ट के दूसरे बड़े शहरों में बसने वाले साहित्य-संस्कृतिकर्मी जिस एक ज़रूरत को बहुत शिद्दत से महसूस नहीं कर रहे हैं, वह है वहां जाकर बोलने की जिद्द-ओ-जहद, जहां सुनने वाले सचमुच सुनना चाहते हैं. इस तबके तक पहुंचने के संघर्ष से दूर हमारे बुद्धिजीवी उन मंचों पर ही ज़्यादातर मुतहर्रिक और मसरूफ़ नज़र आते हैं, जहां सुनाने और सुनने वाले दोनों ही अपनी-अपनी मूर्खता का अधिकांश प्रदर्शित करते रहते हैं.
लेकिन इन निराशाओं में नई आशाएं तब नज़र आती हैं, जब सामना कुछ आपात-छवियों से होता है. इस सिलसिले में वह 24 फ़रवरी 2019 की दुपहर के बाद का समय था. दिल्ली से कानपुर के लिए निकलते हुए इन पंक्तियों के लेखक ने यह क़तई नहीं सोचा था- हताशा और विचार इस तरह भी आकार ले सकते हैं कि उनके भीतर से एक नई नज़र और उम्मीद फूट पड़े. यह मौक़ा कानपुर के मर्चेंट चेंबर हॉल में साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका ‘अकार’ के सौजन्य से आयोजित ‘साझी विरासत’ शीर्षक एक गोष्ठी से गुज़रने का था. दिल्ली में रहते हुए किस तरह की संगोष्ठियां आपका संस्कार और निर्माण करती हैं, यह इस स्तंभ की पिछली कड़ी में कहा जा चुका है, इसे दुहराने की आवश्यकता नहीं है. पर यह कहना होगा कि अपने मौज़ू के मुताबिक़ ही शुरू से आख़िर तक ‘अकार’ के इस आयोजन में एक हिंदुस्तानी आवाज़ थी- एक ऐसी गूंज से भरी हुई जिसे सुनने की भूख अवाम में अब भी बहुत है, सुनाने की सुनाने वालों में भले ही न हो.
‘साझी विरासत’ विषय को प्रवर्तित करते हुए हिंदी कथाकार प्रियंवद जब कहते हैं कि ‘सबको समान अधिकार’ यह साझी विरासत की प्रस्तावना है जो संविधान से ली गई है… तब वह बहस की एक ऐसी बुनियाद रखते हुए नज़र आते हैं, जहां से मूल मुद्दे को किसी अंधेरी और कहीं न ले जाने वाली दिशा में घुमाया न जा सके. ये फ़िक्र से अस्ल सरोकार रखने वाले सकारात्मक क़दम हैं, इनमें वह कामचलाऊपन नहीं है जो बड़े-बड़े प्रतिरोधों को महज़ कुछ तस्वीरों और हैशटैग के सार्वजनिक प्रकटीकरण में बदलकर अपने कर्तव्य की इति समझ लेता है. यह कर्तव्य और इति कुछ भी नहीं है, यह महानगरीय प्रतिकार की प्रतीक-व्यवस्था है, जिसने हमारे कहन को प्रभावशून्य कर दिया है.
बहरहाल, प्रियंवद संविधान के 42वें संशोधन का ज़िक्र करते हुए हमारी साझी विरासत को सुरक्षित और संरक्षित न करने को ग़ैर-संवैधानिक बताते हैं. वह चंद्रगुप्त मौर्य से औरंगज़ेब के बीच के दो हज़ार सालों के भारतीय इतिहास और सभ्यता को ध्यान से देखने की बात करते हैं. वह कहते हैं कि चंद्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य की जो सीमाएं थीं, कम-ओ-बेश वही सीमाएं औरंगज़ेब छोड़कर मरा था. इन दो हज़ार वर्षों में अगर देश की सीमाएं कम नहीं हुईं, बंटी नहीं, तो यह साझी विरासत नहीं थी, तो और क्या था? प्रियंवद आज के उन चेहरों को पहचानने की बात करते हैं, जो हमारे इस ऐतिहासिक सामाजिक ताने-बाने को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं.
इसके बाद सांप्रदायिकता पर शोध कर चुके युवा लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता शरद जायसवाल के इस अवसर पर दिए गए वक्तव्य को सुनकर वे चेहरे स्पष्ट होते हैं जिन्हें पहचानने की बात प्रियंवद ‘साझी विरासत’ के मंतव्यों को खोलते हुए कर चुके थे. लेकिन शरद का स्वर कुछ अलग है, उनके पास ऐसे ज़मीनी ब्योरों की भरमार है जो सफ़र और पीड़ितों के बीच जाकर बटोरे गए अनुभवों से जन्मे हैं.
हमारी साझी विरासत के सूत्र इन दिनों कैसे टूट रहे हैं, इसे शरद हमारे लोक-जीवन, उसकी संस्कृति, मान्यताओं और इतिहास से पुष्ट करते हैं. इस संस्कृति और इतिहास में फेरबदल कर कैसे-कैसे नफ़रत और हिंसा के खेल देश भर में चल रहे हैं- जो बहुत बार हमारे सूचना-तंत्र और मुख्यधारा के मीडिया की प्राथमिकता से भी बाहर नज़र आते हैं- शरद उन्हें व्यक्त करते हुए हमारी साझी विरासत के हनन में सांप्रदायिकता की बड़ी भूमिका को रेखांकित करते है. यह उनके वक्तव्य का चुभने वाला असर ही रहा होगा जो सभागार में मौजूद कुछ-एक श्रोता उनके वक्तव्य के बीच में टीका-टिप्पणी कर उन्हें टोकते हैं. यह यों ही नहीं है कि इस वक्तव्य की शुरुआत शरद ने हमारी शैक्षिक संस्थाओं पर राज्य प्रायोजित हमले से की.
इस आयोजन के मुख्य अतिथि वरिष्ठ कवि-लेखक-चिंतक नंदकिशोर आचार्य शरद के वक्तव्य के बाद इस गोष्ठी के तनाव को कुछ सम पर लाने का यत्न करते हैं. वह उदाहरणों से ज़्यादा वजहों को तरजीह देते हैं. मानव-सभ्यता के विकास और इतिहास को समझने की चेष्टा उनके वक्तव्य का आधार-स्थल है. वह सभ्यताओं की निर्मिति, ईश्वर का जन्म, धर्म के उदय की प्रक्रिया को एक दार्शनिक अंदाज़ में समझाते हुए कहते हैं कि प्रकृति से अलगाव और असुरक्षा की ग्रंथि से समूहों का जन्म होता है. ऐसे में अपने विवेक को बचाना चाहिए. ‘हिंद स्वराज’ के हवाले से वह आगे कहते हैं कि इतिहास विकृतियों के अध्ययन से बनता है. करोड़ों लोग प्रेमपूर्वक रह रहे हैं, यह इतिहास का विषय कभी नहीं हो सकता.
नंदकिशोर आचार्य अहिंसा को समानता बनाए रखने की प्रक्रिया का अंग मानते हैं. वह क्रांतियों और साम्राज्य-निर्माण की प्रासंगिकता और महानता को प्रश्नांकित करते हुए इसके मूल में हिंसा को देखते हैं. वह साझी संस्कृति में न्याय की स्मृति को प्रस्तावित करते हैं. वह न्याय में बाधा को संविधान के पालन में बाधा मानते हैं. वह कहते हैं कि हमें इतिहास की गतियों के साथ नहीं बहना चाहिए. हमें इस तथ्य को समझना चाहिए कि आख़िर क्यों सीधे और सामान्य लोग भी दंगों के दौरान क्रूर और हिंसक हो जाते हैं? क्यों वे अपने विवेक को एक सुपर इगो में सम्मिलित कर लेते हैं? क्यों जनसमर्थन से ही तानाशाह निर्मित होते हैं?
वक्ता और सुनने वाले दोनों ही प्रवाह में हैं. बैठने की जगहें पूरी तरह भरी हुई हैं, खड़े होने की जगह भी कम है. कुछ जन अगली बार इस कार्यक्रम को किसी बड़े सभागार कराने की मांग करते हैं. कार्यक्रम का संचालन कर रहे हलीम मुस्लिम कॉलेज में प्राध्यापक ख़ान अहमद फारुक इस मांग से भावुक हो उठते हैं. कार्यक्रम में हर वर्ग की भागीदारी है और जो बोला जा रहा है, सुनने वाले को लग रहा है कि वह उसके लिए ही है.
इस गोष्ठी के अध्यक्ष वरिष्ठ साहित्यकार गिरिराज किशोर कहते हैं कि आज जिन हालात और मुद्दों का सामना हम कर रहे हैं, ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ़ पांच-सात सालों में पैदा हुए हैं. लेकिन यह ज़रूर कहा जा सकता है कि इन वर्षों में ये कम और कमज़ोर नहीं हुए, बल्कि सिर्फ़ बढ़े हैं. वह आगे कहते हैं कि हमारी जो फ़ितरत है, हमारी जो ज़ुबान है… उसे हम दूसरों के लिए क्यों छोड़ दें? आज जिस तरह से हमारे विद्यार्थियों के बीच फूट पैदा की जा रही, वह शोचनीय है. आज हालात हमारे हाथ से निकल रहे हैं. यह आयोजन इसलिए ही है कि इन मुश्किल हालात में हम अपनी बात कह सकें. उस समाज का कोई अर्थ नहीं है, जहां हम अपनी बात न कह सकें.
अमूमन यहां आकर तमाम गोष्ठियों का समापन हो जाता है, लेकिन अध्यक्षीय वक्तव्य के बाद यह गोष्ठी एक नई करवट लेती है, जहां श्रोताओं के प्रश्न और उनकी व्याकुलताओं से उनकी भागीदारी, उपस्थिति और विवेक का नया, सच्चा और गहरा अर्थ खुलता है. लगभग चार घंटे से जारी यह गोष्ठी इसमें शिरकत कर रहे जन को थकाने में कामयाब नहीं हुई, यह बताता है कि सीधे संवाद की शैलियां अब तक कहां सुरक्षित हैं. वे और सुनना चाहते हैं, उनके पास और प्रश्न हैं, वक्ता भी और बताना, और बहुत कुछ साझा करना चाहते हैं. यह कुछ इस तरह का मुखामुखम है, जहां एक स्तर पर आकर वक्ता और श्रोता का फ़र्क़ ही मिट जाता है. यह वक्तव्यों से संभव हुई विचार-उत्तेजना का और इस उत्तेजना से संभव हुए प्रश्नों का प्रभाव है. इसके नतीजे बेहद अच्छे हैं. इस पड़ाव से सबक़ लिया जाना चाहिए, ताकि इस तरह के पड़ाव और दूसरी जगहों पर भी डाले जा सकें और और यात्राओं पर निकला जा सके.
Also Read
-
4 years, 170 collapses, 202 deaths: What’s ailing India’s bridges?
-
2006 blasts: 19 years later, they are free, but ‘feel like a stranger in this world’
-
South Central 37: VS Achuthanandan’s legacy and gag orders in the Dharmasthala case
-
India’s dementia emergency: 9 million cases, set to double by 2036, but systems unprepared
-
Maulana assaulted in TV studio after remarks against Dimple Yadav