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सोलह पर्व स्वराज के: 1952 का पहला आम चुनाव
हम 1950 में गणतंत्र हुए और उसके दो साल बाद लोकतंत्र कहलाये. यानी पहले संविधान अमल में आया और फिर उसने हमें सरकार चुनने की व्यवस्था प्रदान की. पहले आम चुनाव के होते ही हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश कहलाये. ये हमारी बहुत बड़ी जीत थी. वो देश जिसे तकरीबन हर किसी ने ये कहकर खारिज कर दिया था कि चंद सालों में अपनी आंतरिक विविधताओं की भेंट चढ़, विघटित हो जाएगा, वो भारत इस साल सत्रहवीं बार अपनी सरकार चुनने जा रहा है.
ये कोई छोटी-मोटी बात नहीं है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद जितने भी देश उपनिवेशवाद से मुक्त हुए उन सभी में लोकतंत्र उस करीने से जड़ें नहीं जमा पाया. भारत, अपने तमाम विरोधाभासों के साथ, एक अपवाद है. तमाम विपरीत परिस्तिथियों के बाद भी 1952 में हुए पहले आम-चुनाव हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि वैश्विक लोकत्रांतिक मॉडल का सफल संचयन हैं.
अब जब हम सत्रहवीं बार चुनावी दंगल से रूबरू होंगे, ऐसे में पीछे मुड़कर पहले दंगल को देखना कम रोमांचकारी नहीं है.
क्या हालात थे?
देश को आज़ाद हुए कुल जमा 5 साल ही हुए थे. यूं तो चुनाव पहले भी चुके थे पर इस बार प्रबंधन अंग्रेज़ों के बजाय पूरी तरह भारतीय हाथों में था. राज्यों का भारत में विलय अभी पूरा हुआ ही था. जवाहरलाल नेहरु के सबसे बड़े प्रतिद्वंदी और उससे भी कहीं ज़्यादा उनकी हिम्मत कहे जाने वाले सरदार पटेल दिवंगत हो चुके थे, शिक्षा का स्तर महज 20 फ़ीसदी था. दूसरे शब्दों में 80% के आस-पास आबादी न पढ़ सकती थी, न लिख सकती थी. लेकिन इन्हें वोट देने का अधिकार दिया गया.
और महत्वपूर् बात यह कि सरकारी मशीनरी पूरी तरह से कार्यरत नहीं थी. सबसे बड़ी बात नेहरु चाहते तो देश की राजनैतिक दिशा और विचारधारा मोड़ सकते थे. पर उन्होंने लोकतंत्र में अपनी प्रतिबद्धता ज़ाहिर करते हुए चुनाव की मंशा पर मोहर लगा दी थी.
चुनाव आयोग का गठन और सुकुमार सेन
भारत के गणतंत्र बनने के एक दिन पहले चुनाव आयोग का गठन किया गया था और मार्च, 1950 को नेहरू ने सुकुमार सेन को पहला मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किया. सुकुमार सेन बेहद योग्य आईसीएस अफ़सर होने के अलावा विद्वान गणितज्ञ थे. नेहरु चाहते थे कि चुनाव 1951 में ही कराये जाएं पर सुकुमार जानते थे कि ये संभव नहीं है. लिहाज़ा उन्होंने अगले साल यानी 1952 के पहले महीने में इसे कराने का सुझाव दिया. लेकिन यह बात ठीक है कि चुनाव 1951 में ही शुरू हुए और 52 में जाकर संपन्न हुए.
भारत का राजनैतिक आकार
राजनैतिक भारत की भौगोलिक सीमा लगभग एक लाख वर्ग मील थी. यूं तो भारत में चुनाव की प्रक्रिया ब्रिटिश शासन काल में शुरू हो चुकी थी, तब इसका राजनैतिक दायरा ब्रिटिश हिंदुस्तान के 11 प्रान्तों तक ही महदूद था. आज़ाद रियासतों में चुनाव की प्रक्रिया नहीं होती थी. एकीकृत भारत के लिए पहला अवसर था. आज के मुक़ाबले तब देश की आबादी एक चौथाई थी, यानी 36 करोड़. लगभग 17 करोड़ लोग, यानी 47% वयस्क थे. सुकुमार सेन ने केन्द्र और राज्यों का चुनाव एक साथ कराने का बीड़ा उठाया. तब कुल 4,500 सीटों के लिये चुनाव होने थे जिनमें लोकसभा की 500 सीटें थीं और शेष राज्य विधानसभाओं की थीं.
क्या तैयारियां की गईं?
सबसे बड़ी चुनौती थी कि लोगों तक चुनाव की ख़बर कैसे पंहुचाई जाए और कैसे लोगों को मतदान केंद्र तक लाया जाए? पहली समस्या से निपटने के लिए देश भर के लगभग 3000 सिनेमा हॉलों में चुनावी डॉक्युमेन्ट्री चलाई गईं, रेडियो के ज़रिये सन्देश भेजे गए जिनमें चुनावी प्रक्रिया और इसकी अहमियत बताई गई. इसके लिए 2,24,000 मतदान केन्द्रों का गठन किया गया और 20 लाख मत पेटियों का निर्माण कराया गया. अनुमान के मुताबिक़ 8,000 टन स्टील का इस्तेमाल हुआ था इन पेटियों के निर्माण में, 56,000 चुनाव अधिकारियों और 16,500 क्लर्कों की नियुक्ति की गई. करीब सवा दो लाख पुलिस बल और 2,80,000 सहायकों को इस कार्य में लगाया गया.
दूर दराज़ के इलाकें, पहाड़ियां और नदियों के पार रहने वाले मतदाताओं तक पंहुचने के लिए कई पुलों का निर्माण हुआ. हिन्द महासागर में कई द्वीपों तक जाने के लिए जल सेना की मदद ली गई.
फ़ायदे का सौदा
चुनाव आयोग के सामने मतदाताओं की पहचान की पुष्टि करना एक बड़ी चुनौती थी, ख़ासकर महिलाओं में. इसलिए कि तब ग्रामीण ही नहीं, शहरी महिलाओं के नाम भी सरकारी खातों में दर्ज़ नहीं किये जाते थे. महिलाओं के नाम ‘अमुक की महिला’, ‘फ़लां की बेगम’ जैसे होते थे. यानी उनकी पहचान उनके पतियों, पिता या अन्य परिजनों से तय होती थी. सुकुमार सेन ने हालात भांपते हुए निर्णय लिया कि ऐसे कुल 22 लाख नाम वोटर लिस्ट में से हटा दिए जाएं. इस बात पर बड़ा हो-हल्ला मचा पर सेन ने अपनी बात ऊपर रखते हुए कहा कि इससे जागरूकता आएगी और अगली चुनाव तक वोटर लिस्ट में सभी अपना नाम लिखवाना शुरू कर देंगे. ये यकीनन फ़ायदे का सौदा था.
चुनाव चिन्ह की शुरुआत
80% जनता जहां पढ़ी लिखी नहीं थी, उसे अमुक पार्टी को पहचान कर वोट डालने में दिक्कत तो होनी थी. इससे निपटने के लिए हर पार्टी को अपना चुनाव चिन्ह बनाने का निर्देश दिया गया. चुनाव निशान ऐसे होने थे जो रोज़मर्रा की जिंदगी में इस्तेमाल किये जाते हों. किसी ने कुछ रखा और किसी ने कुछ. पर सभी चिन्ह ऐसे थे जो ग्रामीण भारत से जुड़ते थे.
हर पार्टी के लिए एक मतपेटी
ये भी इसलिए किया गया क्यूंकि जनता अशिक्षित थी. अगर एक केन्द्र पर एक ही मतपेटी का इस्तेमाल होता तो मतदाताओं के ग़लती करने की संभावना थी. इससे बचने के लिए, हर पार्टी के लिए अलग-अलग मतपेटियों का इस्तेमाल किया गया. एक मतदाता दो बार मतदान न कर सके इसके लिए अमिट स्याही का इस्तेमाल किया गया जिसे मतदाता की ऊंगली पर लगाया गया जो लगभग 2 हफ़्ते तक मिट नहीं सकती थी.
प्रमुख पार्टियां कौन सी थीं?
भारत का लोकतंत्र ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली पर आधारित है. पर जहां इंग्लैंड में द्विपार्टी व्यवस्था है, हमारे यहां बहुपार्टी व्यवस्था शुरुआत से ही हो गई थी. पहले आम चुनाव में कई प्रमुख पार्टियां थी. इंडियन नेशनल कांग्रेस के अलावा किसान मज़दूर प्रजातांत्रिक पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ और कम्युनिस्ट पार्टी इनमें से मुख्य थीं.
रेडियो पर प्रचार नहीं
आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सरकारी प्रचार-प्रसार का माध्यम बन गया है, लेकिन जवाहरलाल नेहरु ने रेडियो द्वारा किसी भी पार्टी को अपना प्रचार न करने का सरकारी निर्देश जारी किया था. कांग्रेस पार्टी को भी इसकी पालना करनी पड़ी थी. पर कम्युनिस्ट पार्टी ने ज़ोर-शोर से रेडियो पर अपना प्रचार किया था. दरअसल, उसे रेडियो मास्को का सहारा मिला था. सोशलिस्ट नेहरु चाहते तो इस तंत्र का इस्तेमाल कर सकते थे, पर उन्होंने नहीं किया. पार्टियों ने प्रचार के लिए घर-घर जाकर संपर्क साधे, चुनावी सभाएं की गईं.
नेहरु नाव में बैठकर लोगों तक पंहुचे
आज नरेंद्र मोदी की चुनावी यात्राओं और सभाओं का बढ़-चढ़कर प्रचार किया जाता है. पहले चुनाव प्रचार के लिए नेहरु ने 9 हफ़्तों में लगभग 25,000 मील की दूरी तय की. जिसमें 18,000 मील हवाई, 5,200 मील सड़क, 1,600 मील ट्रेन और 90 मील पानी के रास्ते वो मतदाताओं तक पंहुचे. 300 सभाएं की और 2 करोड़ लोगों तक अपनी बात रखी. उन्होंने ख़ुद को देश का भिखारी कहा जो देश की भलाई के लिए वोट की भीख मांगने आया था. पर विडंबना देखिये नेहरु वहां नहीं जा पाए जहां देश का पहला वोटर था. वो जगह थी हिमाचल की चिनी तहसील. यहां 25, अक्टूबर, 1951 को वोटिंग हुई थी और देश के सबसे पहले मतदाता थे- श्याम शरण नेगी. वो इस बार भी वोट डालने जा रहे हैं.
चुनाव का परिणाम तो सब जानते ही हैं. नेहरु के प्रति लोगों में जूनून था. उस साल कुल 489 सीटों के लिए लोकसभा के चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस पार्टी को 364 सीटें हासिल हुईं. हिंद के जवाहर देश के पहले प्रधानमंत्री बनें. यह हिंदुस्तान के साथ-साथ लोकतंत्र की भी पहली परीक्षा थी. दोनों ही पास हुए. दुनिया के नक्शे पर सबसे बड़े लोकतंत्र का उदय हुआ. हालांकि अब भी कई विदेशी विश्लेषक इसे तुक्का मान रहे थे.
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