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फिर से एबीपी के डेढ़ सौ कर्मचारियों पर लटकी बर्खास्तगी की तलवार
कोलकाता स्थिति एबीपी समूह के बहुमंजिला भवन में कामकाजी गतिविधियां सामान्य होने का इशारा करती हैं. लेकिन पूर्वी भारत के इस सबसे बड़े मीडिया घराने में सबकुछ ठीकठाक नहीं है. समूह के लगभग सात सौ कर्मचारी आसन्न बेरोजगारी के खतरे से दो-चार हैं. माहौल ऐसा है कि कब किसकी नौकरी चली जाये, पता नहीं.
6 मार्च को समूह के कोलकाता और नोएडा स्थित दफ्तरों से दसियों कर्मचारियों को निकाला जा चुका है. खबर है कि सैंकड़ों अन्य कर्मचारियों को निकाले जाने की तैयारी चल रही है. हालांकि, अंदर के कुछ लोगों का कहना है कि इतनी बड़ी संख्या में लोगों को नौकरियों से हटाना समूह को भारी पड़ सकता है. बताते चलें कि एबीपी 11 बड़े पब्लिकेशंस, तीन टीवी चैनलों और एक अग्रणी पुस्तक प्रकाशन हाउस के साथ काफी बड़ा मीडिया समूह माना जाता है और डिजिटल दुनिया में भी बड़ी दखल रखता है.
बंगाली दैनिक आनंद बाजार पत्रिका एवं पूर्वी भारत में सबसे ज्यादा बिकने वाले अंग्रेजी दैनिक ‘द टेलीग्राफ’ के संपादकीय एवं गैर-संपादकीय कर्मचारियों के लिए बीता बुधवार बुरी ख़बर लेकर आया, जब बिना किसी पूर्व सूचना के संपादकों, संवाददाताओं सहित बीस कर्मचारियों को बिना किसी पूर्व सूचना के तत्कालप्रभाव से निकाल दिया गया.
टेलीग्राफ के एक समाचार संपादक ने बताया, “बीती 6 मार्च को जब मैं अपने डेस्क पर बैठा काम कर रहा था, तो अचानक मुझे एक ईमेल प्राप्त हुआ, जिसमें तत्काल प्रभाव से मुझे अपने पद से हटाए जाने की जानकारी दी गई थी.” उन्होंने बर्खास्तगी की जानकारी मिलने के बाद एक दूसरी सहकर्मी को अपने डेस्क पर रोते हुए भी देखा. कुछ सहयोगी चिल्ला रहे थे, कुछ रो रहे थे. किसी को नहीं पता था कि बिना किसी नोटिस के उन्हें क्यों हटाया गया. कुछ तो समझ ही नहीं पाये कि हुआ क्या है और स्तब्ध बैठे हुए थे, विभागों में अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था.
कंपनी ने 10 साल या उससे अधिक समय तक काम कर चुके लोगों को एक साल का मूल वेतन देने का वादा किया है, और इससे कम समय से काम कर रहे लोगों को तीन महीने के मूल वेतन का वादा किया है. एक कर्मचारी ने बताया, “मुझसे कहा गया कि अगर मैं चाहता हूं मेरी बकाया राशि बिना किसी परेशानी के मिल जाये, तो बगैर कोई बतंगड़ बनाये इस्तीफा दे दूं.”
लागत घटाने का निर्मम तरीका
अतीत में भी एबीपी समूह द्वारा ऐसी कई कार्रवाइयां की गयी हैं. दिसंबर 2016 से लेकर मार्च 2018 के बीच समूह ने 1400 से ज्यादा कर्मचारियों को बर्खास्त कर दिया था. ऐसा कहा जा रहा है कि मैनेजमेंट ने प्रमुख संपादकों को नोटिस जारी करते हुए उन कर्मचारियों की लिस्ट तैयार करने के लिए कहा था, जिन्हें निकाला जा सकता है. आने वाले हफ्तों में भी, लगभग 150 कर्मचारियों को निकालने की तैयारी समूह ने की है. पिछले हफ्ते हुई बर्खास्तगी इसी दिशा में पहला कदम था.
एबीपी मैनेजमेंट इस पूरे घटनाक्रम पर चुप्पी साधे हुए है. संपर्क करने पर समूह के उपाध्यक्ष शिउली बिस्वास ने कहा कि कंपनी का उद्देश्य अपने खर्चों में कटौती करना है और साथ ही साथ समूह का पुनर्गठन भी. लेकिन, मैनेजमेंट ने यह नहीं बताया कि वे कुल कितने लोगों की छंटनी करने वाले हैं. ऐसा माना जा रहा है कि आने वाले हफ्तों में, दशकों से कंपनी में काम कर रहे मार्केटिंग और सर्कुलेशन विभाग से जुड़े कर्मचारियों को हटाया जा सकता है.
फिलवक्त, बिजनेस एवं डिजिटल डेस्क के सीनियर, जूनियर संपादकों व संवाददाताओं को हटाया गया है. वहीं, आनंद बाजार और टेलीग्राफ के ब्यूरो प्रमुखों को अपनी रिपोर्टिंग टीम को दस से पंद्रह लोगों तक सीमित करने के लिए कहा गया है. जबकि, समूह मेहनती पत्रकारों के बड़े समूह वाली टीमों के संचालन के लिए जाना जाता रहा है.
टेलीग्राफ, जिसे मीडिया इंडस्ट्री में काम करने के लिहाज से सबसे सुरक्षित जगहों में से एक माना जाता रहा है, कर्मचारियों ने उस पर सबसे कठोर रुख अपनाने का आरोप लगाया है. कर्मचारियों का आरोप है कि अपने संपादकीय पन्नों पर मानवता की बड़ी-बड़ी बातें करने के बावजूद, टेलीग्राफ ने अपने ही कर्मचारियों की स्थिति पर कोई दया नहीं दिखायी.
इस कदम की शुरुआत कब और कैसे हुई?
इस तरह की छंटनियों की शुरुआत अविक सरकार को उनके पद से हटाये जाने के साथ हुई थी, जिन्होंने पिता अशोक सरकार की मौत के बाद साल 1983 में बतौर प्रधान संपादक समूह का जिम्मा संभाला था. अवीक ने प्रिंट माध्यम के विस्तार और नियुक्तियों के जरिये बिजनेस को बढ़ाने की कोशिश की थी.
अंदर के लोगों का कहना है कि एबीपी समूह लगभग 100 करोड़ के घाटे में चल रही है. इसलिए, साल 2015 में एक प्राइवेट मल्टीनेशनल फर्म को वित्तीय घाटों से उबारने की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी, जिसने 6 महीने के अंदर मैनेजमेंट को अपने सुझाव सौंप दिये थे. फर्म की रिपोर्ट का कहना था कि कंपनी में लगभग 47.5% अतिरिक्त कर्मचारी काम कर रहे हैं. इसके बाद अवीक सरकार को पद से हटना पड़ा और उनके भाई अरूप सरकार ने कार्यभार संभाल लिया.
कंपनी के घाटे में आने की एक और बड़ी वजह ये भी रही कि तीन साल पहले तृणमूल कांग्रेस की सरकार बहुत बड़े बहुमत के साथ फिर से सत्ता में आ गई. तृणमूल और ममता बनर्जी के साथ समूह के संबंध कभी अच्छे नहीं रहे. इसका असर ये हुआ कि समूह को मिलने वाले विज्ञापनों में भारी गिरावट देखी जाने लगी.
दूसरी तरफ, साल 2012 के सितंबर महीने में बड़े जोर-शोर से लॉन्च किया गया 24 पन्ने का अखबार ई-बेला, बीते 6 मार्च को ही बंद कर दिया गया. इसका ऑनलाइन संस्करण तीन महीने पहले ही बंद हो चुका था और 15 कर्मचारियों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा था.
आगे की राह क्या होगी?
अरूप सरकार एवं उनके बेटे अतिदेब के नेतृत्व में मैनेजमेंट ने तय किया है कि वह अविक सरकार के वक्त में उठाये गये सभी घाटों की भरपायी के लिए जरूरी कदम उठाएगी. समूह के सीईओ दीपांकर दास पुरकायस्थ का कहना है कि कंपनी को उबारने के लिए ये बदलाव बहुत जरूरी है.
समूह के कुछ फैसले अप्रत्याशित भी रहे हैं. टेलीग्राफ एवं आनंद बाजार, दोनों ही अखबारों ने अपने डिजिटल संपादक को हटाया है, जबकि दोनों ही आनेवाले दिनों में डिजिटल प्लेटफॉर्म पर अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराना चाहते हैं. एक सीनियर बिजनेस एडिटर के मुताबिक, “जिन लोगों ने इस्तीफा देने से मना किया था, उनके साथ बहुत बुरा व्यवहार हुआ और जबरन बाहर कर दिया गया.”
(लेखक कोलकाता में रहकर स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं और 101Reporters.com से जुड़े हुए हैं.)
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