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‘सिन्फ़-ए-नाज़ुक’ कहने से नहीं बदलेगी सूरत-ए-फिज़ा

क़ुदरत ने जिसे इंसान बना कर भेजा है, उसे दुनिया महज औरत बनाने पर क्यों आमाद है? शायद इसलिए कि युगों से समाज ने औरत को औरत बना कर रखने में अपना स्वार्थ सिद्ध होता पाया है. स्त्री को किसी सजायाफ्ता क़ैदी की तरह घर में नज़रबंद करके रखा गया है पिछली शताब्दियों में. शिक्षा के अधिकार तक से वंचित रखा गया, जबकि हम जानते हैं कि शिक्षा ही इंसान को सही अर्थों में मुक्त करती है, इंसान बनाती है.

जब एक इंसान का सबसे पहला हक़, उसकी स्वतंत्रता उससे छीन ली जाय तब ज़ाहिर है कि ऐसा उसे एक सामान्य मनोदशा से असामान्य बनाने की साज़िश के तहत किया गया है. पुरुषों की प्रभुता वाला समाज औरत को एक विलास की सामग्री बना कर रखने के लिये उसे श्रृंगार से लादता गया और वह मूढ़मति उन आभूषणों के उपहार में उसके भौतिक मूल्य से कृतज्ञ होती रही.

स्त्री यह नहीं भांप पाई कि वह किस तरह मनोवैज्ञानिक दृष्टि से कमजोर की जा रही थी. उसे गुड़िया बना कर, हाथों का खिलौना बनाने की पुरुषवादी सोच की आसानी से पकड़ में आ जाने वाली ये भावुकता की शिकार औरतें!

स्थिति को अब भी अपने हाथ में नहीं लेकर वे सबसे पहले समाज की व्यवस्था में एक व्यक्ति के रूप में अपनी पहचान बनायें. यह समझना जरूरी है कि इस पुरुष प्रधान समाज में औरत कभी निर्णायक भूमिका में नहीं हो सकती जब तक वह पुरुष के मुक़ाबले अपना व्यक्तित्व खड़ा नहीं करती है.

वक्त आ गया है कि हर इंसान को एक व्यक्ति के रूप में पहचाना जाए, एक स्त्री या पुरुष के रूप में कतई नहीं. इस बात को स्त्री अब भी नहीं समझ पा रहीं हैं कि “महिला दिवस” उनके हित में नहीं है. इसी मानसिकता को अनुपात से ज्यादा बढ़ा कर उन्हें देवी का पद दिया गया है जिसने उन्हें भावनात्मक रूप से अपने शोषण से गौरवान्वित होने के लिए तैयार कर दिया है.

स्त्री होना व्यक्तिगत संबंधों की जरूरत होती है, उसके बाहर समाज में, अपने कार्यक्षेत्र में उसके व्यक्ति को ही सामने आना चाहिये. तभी उसके किरदार के साथ इंसाफ़ हो सकेगा. उसकी स्त्री के साथ इंसाफ़ कर पाने के लिये पुरुष को देवता जैसे मानवीय गुणों का विकास करना होगा. क्योंकि स्त्रीत्व पूजा और परस्तिश के क़ाबिल है, एक अकेली मां की भूमिका के सामने सारी कायनात सर झुकाती है, यहां कुछ प्रमाणित करने की जरूरत ही नहीं है. मगर इसे खुद को कमजोर करने की वजह बनने देना एक बडी बेवकूफ़ी होगी, जो आज तक औरत जारी रखे है. फिर तो महिला दिवस मनाने की जरूरत बनी रहेगी.

घर से बाहर निकलते वक्त औरत को घर में छोड़ आयें तो बेहतर होगा. उसे जिस सम्मान और सुरक्षा की ज़रूरत है वह बस वहीं मिलती है. बाहर इंसान बन कर निकलने से काम ही बनता है, बेहतर मुकम्मल होता है. पहले अपनी औरत पर मैं भी ज्यादा ही फ़िदा थी. क्या मज़ा आता था, नाक, पलक दुरुस्त कर बाहर निकलने में. मगर देहरी से बाहर निकलते के साथ सड़क पर आते ही छठी इन्द्रिय जाग्रत हो जाती थी. चतुर्दिक नज़रें जब खखोरने की कोशिश में लग जातीं  तब लगता कि अगली दफ़ा अपनी स्त्री को अनावश्यक ध्यानाकर्षण से बचाने की और कोशिश करूंगी.

सामने से चाचाजी, दादाजी या बेटे जैसा कोई आ रहा हो मगर बगल से गुज़रे तो पता चला कि इरादे से कुछ और है. तब यकबारगी यह समझ आया कि औरत का काम सिर्फ घर में है. पुराने लोग यही तो समझाते थे, मगर थोड़ा अधूरा. वो यह खुद नहीं समझते थे कि हर स्त्री, पुरुषों की तरह ही पहले व्यक्ति है.

किसी अपरिचित से पहला परिचय व्यक्ति के रूप में होता है क्या कभी? नहीं माफ़ करें, हमारे समाज में तो व्यक्ति को पहचान ही नहीं मिली है. “आपलोग औरत हैं” वाला जुमला हमेशा हमला करने को तैयार रहता है. ग़ौरतलब है कि “महिला दिवस” एक इम्पोर्टेड अवधारणा है, जिसे वोमेंस डे कहा जाता है. इसका सही अनुवाद “स्त्री दिवस” होना चाहिये.

वैसे भी महिला एक औपचारिक शब्द है और जो महिलायें शिक्षित और स्वावलंबी बन कर इंसान ही नहीं बन सकी हैं वे इस दिन से कैसे और क्यों खुद को जोड़ें?

उन औरतों को स्त्री का ओहदा हम तब दे सकेंगे जब उन्हें स्वंतंत्र होने दें, इंसान का दर्जा दें. स्वावलंबन की मज़बूती से उनके स्वाभिमान को जगाएं. फिर ऐसे किसी दिवस की जरूरत नहीं रह जाएगी जिसे स्त्री के बाकी तीन सौ चौसठ दिनों की क्षतिपूर्ति एक महिला दिवस से करने की कोशिश की जाए.

अपने साथी इंसान की बेबाक बयानी उसकी कविता की चंद पंक्तियों से कहना चाहूंगी इस संदर्भ में, जो औरत को झूठे महिमामंडन के पाखंड से निकालने का उपकार करती है, पदों और पाबंदियों के बोझ से जुदा फ़क़त एक औरत जिसे उसका इंसान अपने सुरक्षा कवच में महफ़ूज़ रखता है.

कविता कुछ यूं है-

मैं औरत के लिए ‘मर्दानी’ का लफ़्ज़ इस्तेमाल नहीं करता ,
उसे ‘सिन्फ़ ए नाज़ुक’ भी नहीं कहता ,
मैं उसे सेकंड सेक्स की गाली नहीं देता,
बेटर हाफ़ का ओहदा नहीं बख़्शता ,
मुझे ‘लेडीज़ फर्स्ट’ जैसे जुमलों से उबकाई आती है,
मैं उसे मां बना कर पूजना नहीं चाहता ,
बहन बना कर उसकी हिफ़ाज़त का खोखला दावा नहीं करना चाहता ,
बेटी बना कर उस पर अपनी इज़्ज़त का बोझ नहीं लादना चाहता ,
मैं लुटी हुई इज़्ज़तों से सजे हुए मंदिरों तक ,
औरत से नफ़रत और उसकी इबादत के मेयार का पाबन्द नहीं,
न वो घर की ज़ीनत है, न कायनात का रंग, न कोई मुक़द्दस दहलीज़,
बस एक ज़िंदा औरत काफ़ी है,
कुछ मुझसे बे-परवा और कुछ मेरी तलाश में,
कुछ मेरे साथ और कुछ मुझसे दूर ,
हंसती, रोती, चीख़ती, गाती या फिर ख़ामोश ,
रातों और दिनों के हिसाब से आज़ाद ,
पर्दों और पाबंदियों के बोझ से जुदा ,
मेरी ही तरह अपनी मर्ज़ी से जीने वाली,
और अपनी ख़ुशी से मर जाने वाली,

(तसनीफ़ हैदर)