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मूक क्रांति: कर्मकांड की दुनिया में ‘अछूत ब्राह्मणों’ की दस्तक
जानकारों का कहना है कि जाति तोड़नी है तो जाति से जुड़े धंधों पर एकाधिकार का ढांचा तोड़ना होगा. यह ऐसी ही एक रिपोर्ट है.
बिहार के समस्तीपुर जिले के नरघोघी गांव में रहने वाले अरुण दास जाति से दुसाध हैं, यानि दलित, लेकिन इलाके में उनकी एक और पहचान है कर्मकांडी पुजारी की. गांव में जहां हम उनसे मिले, वहीं पास में एक खाट पर ‘रविदास की रामायण’ पड़ी हुई थी.
यह सब जान-सुनकर आपको हैरानी हो रही होगी, यह स्वाभाविक भी है, लेकिन यह बिल्कुल सच है. बिहार के कई जिलों में दलित व अछूत मानी जाने वाली जातियों ने अपनी जाति के भीतर ही पंडे और पुजारी तैयार कर लिए हैं. इन जातियों के लोग अब स्वजातीय पंडितों के माध्यम से ही अपने सारे धार्मिक कर्मकांड पूरे करवाते हैं. इसमें मुंडन से लेकर श्राद्ध तक शामिल है.
अरुण दास (लाल स्वेटर में) और उनके चाचा सीताराम दास
अरुण दास उन्हीं पुजारियों में से एक हैं. दास के मुताबिक वे अपने परिवार की पांचवीं पीढ़ी हैं जो अपनी बिरादरी के यहां पूजा-पाठ, शादी-ब्याह व श्राद्ध कर्म आदि संपन्न करवाते हैं. अरुण दास कहते हैं, “हम लोग वैष्णव हैं और लंबे समय से पूजा पाठ करवा रहे हैं. पूजा-पाठ के अलावा खेती-बारी भी करते हैं.”
दास कहते हैं, “हम रोजी-रोटी के लिए नहीं बल्कि आत्मसम्मान के लिए कर्मकांड करवाते हैं. इसीलिए पुरोहितों की तरह दक्षिणा के लिए यजमान पर दबाव भी नहीं डालते. यजमान जितना दे देते हैं, उसी में संतोष कर लेते हैं.” वह बताते हैं कि उनके कुनबे के रत्ती दास से इस रवायत का आगाज हुआ था. फिलवक्त वे और उनका परिवार समस्तीपुर और वैशाली जिले के करीब 60 गांवों में अपनी बिरादरी के लोगों का पूजा-पाठ, धार्मिक कर्मकांड आदि करवाते हैं.
यह महत्वपूर्ण है कि दास कर्मकांड में पूजा-पाठ के अलावा अंतिम संस्कार से जुड़े श्राद्ध कर्म को भी करवाते हैं जबकि आम ब्राह्मणों में इस व्यवस्था में भी एक जातिगत बंटवारा है.
पूर्वांचल और बिहार के इलाके में हिंदू धर्म में श्राद्ध का काम अपेक्षाकृत निचले स्तर के ब्राह्मण करवाते हैं. इन्हें महापत्तर (महापात्र) कहते हैं. जबकि पूजापाठ, यज्ञोपवीत, सत्यनारायण कथा आदि तमाम कर्मकांड करवाने वाले ब्राह्मण को अपेक्षाकृत श्रेष्ठ माना जाता है. हिंदू धर्म की इन्हीं सब कुरीतियों को देखकर शायद दलित संत रविदास ने यह पंक्ति लिखी हैं- “जात जात में जात है, जस केलन के पात, रैदास न मानुष बन सके, जब तक जात न जात”. तो ब्राह्मणों की ऊंची जातियां जहां बाकी पूजा-पाठ करवाती हैं वहीं महापात्र अंतिम संस्कार और श्राद्ध की प्रक्रिया करवाते हैं. इसके विपरीत दुसाध अरुण दास अपनी जाति के लोगों के लिए श्राद्ध , शादी-ब्याह, गृह प्रवेश, सत्य नारायण कथा आदि सब करवाते हैं.
गांव में ही अरुण दास के 83 वर्षीय चाचा सीताराम दास से भी हमारी मुलाकात हुई. सीताराम छोटी उम्र से ही पंडिताई का काम करवाते रहे हैं. तबियत नासाज होने के कारण पिछले दो-तीन सालों से उन्होंने यह काम छोड़ रखा है.
सीताराम अपने शुरुआती दिनों को याद करते हुए कहते हैं, “मेरे पिताजी भी पंडिताई करवाते थे. वे जहां भी पूजा कराने जाते, मुझे अपने साथ ले जाते थे. बचपन से ही मैं दूसरे गांवों में पूजा कराने जाने लगा था. दूर-दराज के गांवों से लोग आते और मुझे पूजा-पाठ कराने के लिए अपने साथ ले जाते.”
नरघोघी का सदियों पुराना राम-जानकी मठ
नरघोघी में करीब सात सौ साल पुराना एक राम-जानकी मंदिर और मठ है. गांववालों के मुताबिक यह संस्कृत सीखने का एक बड़ा केंद्र हुआ करता था. दूर-दराज से साधु-संन्यासी यहां संस्कृत सीखने आते थे. ढाई-तीन सौ साल पहले नरघोघी की आबादी बहुत कम थी. बड़ा हिस्सा जंगलों से घिरा हुआ था. मठ में आनेवाले साधु-संन्यासी इन्हीं जंगलों में धुनी रमा कर संस्कृत के मंत्र आदि कंठस्थ किया करते थे.
पीढ़ियों से चली आ रही दंतकथाओं को सीताराम दास दोहराते हैं, “हमारे पूर्वज संन्यासियों का मंत्रोच्चार सुना करते थे. संन्यासियों ने ही उन्हें कुछ संकेत देकर खुद पूजा-पाठ शुरू करने को प्रोत्साहित किया. शुरुआत में आधे-अधूरे कर्मकांड कराये जाते थे, क्योंकि उन्हें पूरा नियम पता नहीं था, लेकिन धीरे-धीरे इसमें सुधार हुआ. बाद में तो सभी पूजा-पाठ की किताबें आ गईं. इन किताबों से बहुत मदद मिली.”
दलित पुजारियों की यह पूरी कहानी एक सुखद विरोधाभास रचती है. दलितों व अछूतों के ऊपर सदियों से हुए अमानुषिक अत्याचार और अपमान की करुण कहानी के लिहाज से उनका इस रूप में सामने आना एक सुखद अध्याय है.
बिहार में पिछड़ी जातियों की आबादी करीब 15 प्रतिशत है. 90 के दशक में बिहार में दलितों का सियासी उभार शुरू हुआ, जो बिहार की सियासी तारीख में एक अहम पड़ाव की शक्ल में दर्ज है, लेकिन दलितों द्वारा अपने पंडे-पुजारी खुद ही गढ़ लेने की कहानी तारीख में उस तरह से दर्ज नहीं हो पाई है. नतीजतन ज्यादातर दलित चिंतकों को इस बड़े बदलाव की स्पष्ट जानकारी नहीं है और अगर है भी तो बिल्कुल सतही.
पंडिताई शुरू करने की वजहों को रेखांकित करते हुए सीताराम दास कहते हैं, “अव्वल तो हमारे पूर्वजों की हिम्मत ही नहीं होती थी कि ब्राह्मणों के दरवाजे पर पहुंच कर धार्मिक कर्मकांड के लिए उन्हें निमंत्रित कर सकें. वे (ब्राह्मण) खुद भी दलितों के दरवाजे पर आना गुनाह मानते थे. फिर भी अगर बहुत मिन्नतें की जातीं, तो कहते कि वे अपने घर से ही मंत्र पढ़ देंगे. बाकी कर्मकांड उन्हें खुद अपने घर जाकर कर लेना होगा. कभी-कभार वे घर आने को तैयार हो भी जाते, तो इस शर्त पर कि वे हमारे घर का दाना-पानी नहीं छूएंगे. हमारे पूर्वजों को ये अपमानजनक लगता था.”
सीताराम दास के जेहन में उनके दादा पूरन दास की एक कोने से होकर पोखरे तक जाने की याद अब भी ताजा है. वह बताते हैं, “मेरे दादाजी गांव के पोखर में स्नान करने जाते थे, तो उस सीढ़ी से होकर नहीं गुजरते थे, जिससे होकर गांव के ब्राह्मण और बड़ी जातियों के लोग आते-जाते थे. बल्कि वे पोखरे के दूसरे सिरे पर एक कोने से पोखर में उतरते और मठ के मंदिर में विराजित मूर्तियों की दूर से ही बंदगी कर लिया करते थे.” सीताराम दास की कहानी से अन्य स्वजातीय लोग भी इत्तेफाक रखते हैं.
शशिभूषण दास चमार बिरादरी से आते हैं और 35 गांवों में पंडिताई कराते हैं
वैशाली जिले में पड़ने वाले महुआ प्रखंड के खीराचक गांव निवासी शशिभूषण दास भी कर्मकांडी पंडित हैं और उन्हें ये प्रथा अपने पूर्वजों से विरासत में मिली है. शशिभूषण बताते हैं कि उनका खानदान सिलाई-बुनाई के पेशे में भी रहा है, लेकिन अभी वे सिलाई का काम छोड़ चुके हैं.
वह चमार बिरादरी से आते हैं और 35 गांवों की दलित बिरादरी का पूजा-पाठ करा रहे हैं. शशिभूषण कहते हैं, “ब्राह्मणों ने हमारी अवहेलना की. जग-प्रयोजन में वे हमारे यहां आते तो थे, लेकिन न तो एक गिलास पानी पीते थे और न ही चाय. कई बार यह भी होता कि किसी कार्यक्रम के लिए उन्हें बुलाने जाते, तो वे टालमटोल करते थे. कई दफे तो वे अपने घर से मंत्र पढ़ा देने की पेशकश करते. उस समय हमारी जाति के जो थोड़ा-बहुत पढ़े लिखे लोग थे, उन्होंने आपस में बातचीत कर निर्णय लिया कि खुद ही पंडिताई कराई जाए.”
ब्राह्मणों और अन्य ऊंची जाति के लोगों द्वारा हिकारत की जड़ें कितनी गहरी हैं, इसकी मिसाल शशिभूषण एक सत्यकथा से देते हैं, जो कुछ दशक पहले हुसैनीपुर में हुई थी. शशिभूषण बताते हैं, “हुसैनीपुर में परमेश्वर राम नाम के व्यक्ति की पोती की शादी थी. उनके यहां पूजा-पाठ मेरे पिताजी कराते थे, लेकिन उन्हें डायरिया हो गया था. मेरे पिताजी ने कहा कि वे किसी अन्य ब्राह्मण से पूजा करा लें. शादी के रोज शाम को परमेश्वर राम ब्राह्मण के घर पहुंचे और विवाह कराने की गुजारिश की. मैथिल ब्राह्मण पहले तैयार हो गये और कहा कि वे थोड़ी देर में आ रहे हैं. आश्वासन मिलने पर परमेश्वर राम घर लौट आए, लेकिन काफी देर तक ब्राह्मण वहां नहीं पहुंचे. वे दोबारा गये, तो फिर वही आश्वासन मिला. इस तरह वे कई बार ब्राह्मण के यहां गए, लेकिन हर बार आने का आश्वासन ही मिला. इस तरह टाल-मटोल करते हुए रात के तीन पहर गुजर गए. परमेश्वर राम का धैर्य अब जवाब देने लगा था. वे आखिरी बार ब्राह्मण के यहां गए और विवाह कराने की गुजारिश की, तो उन्होंने कहा कि उनकी तबीयत खराब है. वह उनके घर नहीं जा सकते.”
उन्होंने आगे कहा, “रात के आखिरी पहर में ब्राह्मण ने एक उपाय सुझाया. उन्होंने कहा कि परमेश्वर सिंदूर ले आएं, वे मंत्र पढ़ देंगे. दूल्हा उसी सिंदूर से दुल्हन की मांग भर देगा. ब्राह्मण की यह सलाह उन्हें नगवार गुजरी. वह भारी मन से घर लौटे और दूल्हे से कहा कि बिना पंडित के ही वे दुल्हन की मांग में सिंदूर डाल दें. इस तरह बिना पंडित के शादी संपन्न हुई.”
अपनी बिरादरी के अलावा शशिभूषण के यजमान मुसहर, डोम, तमोली और कुम्हार भी हैं. लंबे समय से कर्मकांड कराने के कारण कुछ ऊंची जातियों में भी उनकी स्वीकार्यता होने लगी है. शशिभूषण दास बताते हैं, “कभी-कभार तो राजपूत भी हमें पूजा के लिए अपने घर बुला लेते हैं. वे सीधे कहते हैं कि उन्हें जाति से कोई मतलब नहीं है.”
शशिभूषण जब 10 साल के थे, तभी से धार्मिक कर्मकांड करवा रहे हैं. शुरुआती वक्त में उन्होंने गलतियां भी कीं. ऐसी ही एक गलती का जिक्र वह करते हैं, “मैं बचपन में एक शादी में घृतढारी-मटकोर कराने गया था. वहां गलती से मैंने यजमान के गलत हाथ में कंगन बांध दिया था. सुबह हुई, तो यजमान ने ध्यान दिलाया. इसी तरह गलतियां करते हुए मैंने पंडिताई सीखी है.”
पंडिताई से कितनी कमाई हो जाती है, यह पूछने पर उन्होंने बताया, “साल में 25-30 विवाह करा देते हैं. इसके आलावा अन्य पूजा-पाठ भी हैं. इनसे करीब 50 हजार रुपए आ जाते हैं. इससे घर तो नहीं चल पाता, लेकिन गृहस्थी की गाड़ी खींचने में मदद जरूर मिल जाती है.”
शशिभूषण से जब हमने पूछा कि क्या वह सभी तरह की पूजा कराते हैं, तो उन्होंने टेबुल पर तमाम किताबें बिखेर दीं, जो अलग-अलग पूजा से संबंधित थीं. इन्हीं किताबों में एक किताब संत रविदास कथा की भी थी. उन्होंने बताया कि दलित बिरादरी में संत रविदास की कथा का चलन जोरों पर है. लोग घृतढारी-मटकोर में सत्यनारायण कथा की जगह संत रविदास की कथा में दिलचस्पी ले रहे हैं.
हरिनारायण दास भी चमार बिरादरी के हैं और दलित जातियों में पूजा करवाते हैं
खीराचक गांव के ही 68 वर्षीय बुजुर्ग हरिनारायण दास (चमार बिरादरी) वैशाली व पास के जिले के 35 गांवों में पूजा-पाठ कराते हैं. उनका परिवार भी करीब चार पीढ़ियों से पंडिताई करा रहा है. हरिजनों के प्रति ब्राह्मणों की घृणा की मिसाल वह राजद के विधायक व पूर्व मंत्री शिवचंद्र राम से जुड़े एक किस्से के जरिए देते हैं.
हरिनारायण बताते हैं, “20 साल पहले की बात है. शिवचंद्र राम तब इतने बड़े नेता नहीं हुए थे. उनका विवाह था. उनका पंडित मैं था. जिस दिन उनका तिलक था, संयोग से उसी दिन मैं बाहर गया हुआ था. मैंने उनसे कहा कि वे मैथिल ब्राह्मण से पूजा करा लें. उनके परिवार के लोग ब्राह्मण के पास गए, तो उन्होंने कहा कि वे उनके यहां नहीं जा सकते, क्योंकि उनके पास स्वजातीय पंडित है. इसके बाद वे लोग एक मंदिर में गए. वहां मौजूद पंडित ने भी घर जाने से इनकार कर दिया और कहा कि फल व तिलक का सामान लेकर वे मंदिर में आएं, यहीं वह पूजा करा देंगे. शिवचंद्र राम का परिवार इसके लिए तैयार नहीं हुआ.”
शिवचंद्र राम इस घटना की तस्दीक करते हुए बताते हैं कि ब्राह्मण के नहीं आने के कारण आर्य समाज के पंडित को बुला कर तिलक कार्यक्रम को निपटाया गया था.
मूल ब्रह्मण क्या सोचते हैं?
दलित बिरादरी में अपने खुद के पंडित और पुजारी खड़ा होने को लेकर आम ब्राह्मणों की सोच बड़ी दिलचस्प है. सामाजिक पक्ष के साथ ही इस बदलाव का एक आर्थिक पक्ष भी है. जाहिर है दलित-पिछड़ी जातियों में खुद के पंडे-पुजारी खड़ा करने से उन ब्राह्मणों के कामकाज पर भी असर पड़ता है जिनका इस पेशे पर एकाधिकार रहा है. हमने इस संबंध में तमाम उन पंडितों से बात की जो इस इलाके में कर्मकांड के पेशे में हैं. दलित पंडितों को लेकर ब्राह्मण बिरादरी को ऊपरी तौर पर कोई दिक्कत नहीं दिखाई दी लेकिन ये जरूर है कि वे अब भी मानते हैं कि कर्मकांड करवाने का अधिकार सिर्फ पैदाइशी ब्राह्मण को मिला हुआ है.
वैशाली जिले का खीराचक गांव में 50 घर करीब ब्राह्मणों के हैं. इनमें से कई परिवार कर्मकांड के पेशे में हैं. 70 वर्षीय रामानंद झा भी एक कर्मकांडी ब्राह्मण हैं और पिछले 20 सालों से सवर्णों के यहां पूजा-पाठ करवा रहे हैं. उनकी यजमानी आस-पास के चार-पांच गांवों तक ही सिमटी हुई है.
झा कहते हैं, “सर्वाधिक ज्ञान ब्राह्मणों के पास था, इसलिए ब्राह्मणों को ही पंडिताई का काम मिला. अगर दलित भी पूजा-पाठ करवा रहे हैं, तो इससे हमें कोई दिक्कत नहीं है.”
उन्होंने आगे बताया, “वे (दलित) अपनी जातियों में पूजा-पाठ करवाते हैं. इससे हमें कोई दिक्कत नहीं है. वे अपनी जगह सही हैं. हम उनके यहां पूजा कराने नहीं जाते और वे हमारे यहां भी नहीं आते हैं.”
न्यूज़लॉन्ड्री ने झा से पूछा कि क्या वे दलितों के बुलाने पर उनके घर पूजा-पाठ करवाने जाएंगे? इस सवाल पर झा ने दो-टूक कहा, “जब हमारे बाप-दादा ने ही पूजा-पाठ नहीं कराया, तो हम क्यों करवाने जाएंगे?” जाहिर है जातीय श्रेष्ठता का सामाजिक भार अभी भी सवर्णों में मौजूद है. इस बोझ के चलते ही दलितों ने अपनी यह समांतर व्यवस्था खड़ी की है.
खीराचक गांव के लोगों (जिन्हें कर्मकांडी भाषा में यजमान कहा जाता है) के मुताबिक दलित पंडितों की परंपरा सदियों पुरानी हो चुकी है. इसलिए यहां के दलितों के मन में कभी ये कसक नहीं उठी कि ब्राह्मण उनके यहां पूजा-पाठ कराने नहीं आते.
स्थानीय निवासी जुगल किशोर पासवान से हमने बात की तो एक अलग ही नजरिया सामने आया. उन्होंने कहा कि दलित पंडित ही असल मायनों में पंडित हैं. अपनी बातों को पुख्ता करने के लिए वह तर्क देते हैं, “दलित पंडित वैष्णव होते हैं. वे मांस-मछली का सेवन नहीं करते हैं. दारू-ताड़ी को हाथ तक नहीं लगाते हैं. इसके उलट ब्राह्मणों में मांसाहर बढ़ रहा है. झा लोग मछली आदि का सेवन करते हैं.”
वो आगे कहते हैं, “हमें तो अफसोस की जगह खुशी होती है कि हमारे यहां कर्मकांड कराने के लिए वैष्णव पंडित आते हैं.”
एक अन्य यजमान सुरेंद्र पासवान शास्त्री ने भी कहा, “हमारे यहां हर धार्मिक कार्यक्रम में पारंपरिक तौर पर दलित पंडित ही आते रहे हैं, इसलिए हमें कभी महसूस नहीं हुआ कि ब्राह्मण कर्मकांड करवाते तो अच्छा होता.”
जानकारों का मानना है कि उत्तर बिहार के जिलों में स्वजातीय पंडितों का चलन ज्यादा है, हालांकि दक्षिण बिहार में भी कहीं-कहीं दलितों में स्वजातीय पंडित हैं. रोहतास जिले के दिनारा ब्लॉक के चहुआरी गांव निवासी दिनेश्वर राम ने बताया कि उनके गांव में ब्राह्मण पूजा कराते हैं, लेकिन एक अन्य ब्लॉक करगहर की तरफ स्वजातीय पंडितों से ही पूजा कराई जाती है.
दलित चिंतक स्वजातीय पंडितों की परम्परा के पीछे कई वजहें बताते हैं. प्रो. रामाशंकर आर्य कहते हैं, “ब्राह्मण अन्य सभी जातियों के यहां जाते हैं, लेकिन अछूतों व दलितों के यहां नहीं जाते. अछूत व दलित बिरादरी धार्मिक अनुष्ठानों को देखती रहती है और सोचती है कि उनके घरों में भी ये अनुष्ठान हों. चूंकि, उनके यहां पंडित नहीं जाते हैं, तो उसके विकल्प के रूप में उस जाति का पढ़ा लिखा व्यक्ति उठ खड़ा हो गया और फिर यह रवायत स्थापित हो गई.”
प्रो. आर्य के मुताबिक, दलितों व अछूतों की अवहेलना तो एक बड़ी वजह थी ही, अन्य कारण भी थे. वो आगे कहते हैं, “मसलन ज्यादातर दलित गांवों में ब्राह्मण नहीं रहते थे. ऐसे में दलितों-अछूतों को ब्राह्मण को बुलाने के लिए दूसरे गांवों में जाना पड़ता था. दूसरे गांव में जाने में समय और संसाधन खर्च होता था. यही नहीं ब्राह्मण के पास एकसाथ कई घरों में कर्मकांड कराने की मांग आती थी, तो जाहिर तौर पर कई बार ऐसा हुआ होगा कि ब्राह्मण ने अन्य जातियों को तरजीह दी होगी. इसका हासिल ये हुआ कि दलितों ने स्वजातीय पंडित तैयार कर लिया.”
पिछले चार-पांच पीढ़ियों चली आ रही यह परम्परा आनेवाले वक्त में क्या मुकाम हासिल करेगी, इसको लेकर बहुत आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता है क्योंकि इन दलित पंडितों की नई पीढ़ी कर्मकांडों में दिलचस्पी नहीं ले रही है.
अरुण दास कहते हैं, “नई पीढ़ी पूजा-पाठ में रुचि नहीं दिखा रही. यह हमारे लिए चिंता की बात है. हम अपने यजमानों से मिलते हैं, तो उनसे कहते हैं कि वे अपने बच्चों को हमारे पास भेज दें. हम उन्हें पंडिताई सिखाएंगे ताकि यह रवायत बरकरार रहे.”
दलित चिंतक व कई संगठनों से राब्ता रखनेवाले राम दयाल पासवान शास्त्री कहते हैं, “दलित बिरादरी में जो पंडित हैं, वे कबीरपंथ को मानने वाले हैं और दलितों के पंडिताई कराने की पूरी प्रक्रिया एक बड़े सामाजिक आंदोलन का परिणाम है.” उनका यह भी कहना है कि दलित पंडितों का कोई लिखित दस्तावेज मौजूद नहीं है.
ब्राह्मणों का दलितों के यहां पूजा-पाठ नहीं कराने को लेकर बिहार के अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति कल्याण विभाग के मंत्री डॉ रमेश ऋषिदेव कहते हैं, “कौन कहता है कि ब्राह्मण नहीं आते हैं? आप लोगों को क्या बैठे-बैठे पता चल जाता है? सब जगह पंडित आता है.”
जब इस रिपोर्टर ने उनसे कहा कि वह खुद ऐसे तमाम गांवों में गया है, और ऐसे तमाम लोगों से मिला है जो दलितों के यहां पंडिताई से इनकार करते हैं. ऐसे गांवो में दलित बिरादरी के लोग ही पंडिताई करा रहे हैं, तो उन्होंने बात बीच में ही काटते हुए अपना उदाहरण दिया, “मैं खुद दलित हूं. मेरे यहां तो शुरू से ब्राह्मण आते हैं. जो उन्हें बुलाता है, उसके यहां जाते हैं. जो नहीं बुलाता है, उसके यहां जबरदस्ती पूजा-पाठ कराने थोड़े जाएंगे?” खैर ऋषिदेव को नहीं मानना था, वो नहीं माने.
बिहार का खूनी जातीय इतिहास
ज्यादा नहीं महज 20 साल पहले तक का बिहार जातीय आधार पर बंटा एक ऐसा कबीला हुआ करता था जहां लगभग हर जाति की अपनी सशस्त्र सेनाएं हुआ करती थी. इन सेनाओं ने क़ानून और संविधान को ताक पर रखकर ऐसे अनगिनत नरसंहारों को अंजाम दिया जिसके औचित्य का पैमाना सिर्फ और सिर्फ जातियां थी. भूमिहारों की रणवीर सेना, कुर्मियों की भूमि सेना, यादवों की लोरिक सेना, ब्राह्मणों की ब्रह्मर्षि सेना, ठाकुरों की सनलाइट सेना, दलित, भूमिहीनों की नक्सल समर्थित एमसीसी जैसी अनगिनत सेनाओं ने 80 के दशक के अंत से ही आपसी हिंसा और मारकाट का सिलसिला शुरू किया. यह सिलसिला 90 के दशक के अंत तक चला.
इस मारकाट की तीव्रता को तेज करने में 90 के दशक में लागू हुए मंडल आयोग की सिफारिशों ने भी एक अदद भूमिका अदा की. इस फैसले से पिछड़ी जातियों में जागरुकता की जो नई लहर आई उसने इन्हें सिर्फ आर्थिक रूप से सक्षम नहीं किया बल्कि राजनीतिक रूप से भी मजबूत किया. छोटी जातियों के इस उभार से आतंकित हुई सवर्ण जातियों ने निजी सेनाओं के जरिए इसकी काट खोजने का यत्न किया. नतीजे में हम पाते हैं कि लक्ष्मणपुर बाथे, बथानी टोला, शंकर बिगहा जैसे नरसंहार हुए. रणवीर सेना उस दौर में हिंसा और बदनामी का पर्याय बन गया.
जातीय रूप से इतना गहराई तक बंटे बिहार में कर्मकांडों पर खत्म हो रहा ब्राह्मणों का एकाधिकार जाति की बेड़ी को तोड़ने या किसी बड़ी क्रांति की आहट भले न हो लेकिन एक धीमे बदलाव की सुगबुहाट जरूर है.
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