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क्या सुषमा स्वराज ने वाजपेयी का 1969 का बयान पढ़ा है?
सुषमा स्वराज ने इस्लामिक देशों के संगठन ओआईसी में अध्यक्षीय भाषण देकर एक नया अध्याय जोड़ दिया है. ध्यान रहे कि पाकिस्तान ने भारत को बुलाये जाने पर इसका बहिष्कार किया है. उसने कहा कि अगर भारत को बुलाया गया तो वो इस सम्मेलन में शिकरत नहीं करेगा. बदलते अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में इस्लामिक संगठन ने उसकी मांग ठुकरा कर अपनी पुरानी ग़लती को सुधारा है.
ओआईसी ने यह ग़लती 1969 में की थी. उस साल मोरोक्को की राजधानी रबात में पहला इस्लामिक देशों का सम्मलेन हुआ था और उसमें भारत को अनान-फ़ानन में निमंत्रण दिया गया था. भारत को निमंत्रित करने के सवाल पर पाकिस्तान उस समय बिगड़ गया था, और उसने सम्मलेन के बीच में ही घोषणा की कि अगले दिन से वह इसमें शामिल नहीं होगा.
पाकिस्तान द्वारा सम्मलेन का बायकॉट किये जाने के डर से ओआईसी ने अंतिम दिन भारत को सम्मलेन में आने से मना कर दिया. यह भारत के लिए बड़ी शर्मनाक स्थिति थी. पाकिस्तान के विरोध और भारत को सम्मेलन से दूर रखने के पीछे वजह ये बताई गई कि अहमदाबाद में उसी दौरान दंगे हुए थे जिसमें कई मुसलमान मारे गए थे. उस सम्मलेन में इज़राइल और भारत में रहने वाले मुसलामानों की हालत पर चिंता व्यक्त की गई. इससे देश के बाहर और भीतर भारत की बड़ी किरकरी हुई.
उस वक्त देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं. सरकार का बचाव करते हुए तत्कालीन विदेश मंत्री ने कहा कि कुछ मुसलमान दोस्तों के कहने पर रबात में भारत का डेलीगेशन भेज गया. ये बड़ी बचकानी बात थी. कांग्रेस के पूर्व मंत्री और सांसद मोहम्मद करीम छागला, जो अपने समय के बेहतरीन न्यायधीश माने जाते थे, ने सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा, “मुसलमान दोस्तों से सरकार का आशय क्या है? इन्हीं कारणों से संप्रदायिकता भड़कती है. हिंदू सोचते हैं कि मुसलमानों के कहने पर सरकार अपनी नीतियां बनाती है. किसी भी मसले पर हिन्दू या मुसलमान के नज़रिए से सोचने के बजाय एक भारतीय के नज़रिए से सोचा जाय. बहुमत को अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ मत भड़काइये.”
एक अतंरराष्ट्रीय फोरम पर हुई भारत की इस किरकिरी को लेकर अटल बिहारी वाजपेयी ने तत्कालीन संसद के सत्र में एक ज़बरदस्त भाषण दिया था जो संसदीय रिकॉर्ड में मौजूद है. वैजपेयी का वह भाषण 1969 और 2019 के लिहाज़ से तुलनात्मक अध्ययन का विषय है. आज ओआईसी पाकिस्तान की धमकी को नजरअंदाज कर भारत को आमंत्रित कर रहा है. साथ ही तब हुए अपमान को भूलकर फिर से ओआईसी में जाने के फैसले के औचित्य को भी परखना होगा.
वाजपेयी ने कहा: “अध्यक्ष महोदय, रबात में हुए राष्ट्रीय अपमान के लिए देश की जनता से क्षमा याचना करने के बजाय सरकार जले पर नमक छिड़कने का काम रही है. इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि रबात में जो कुछ हुआ, वह हमारी राष्ट्रीय नीति के कारण हुआ. रबात का सम्मलेन इस्लामी देशों का सम्मलेन था, वह इस्लामी देशों द्वारा बुलाया गया था और उसमें इस्लामी देशों की समस्याओं पर विचार होना था.”
वो आगे कहते हैं, “भारत, जो कि एक इस्लामी देश नहीं है, ऐसे सम्मलेन में सरकारी तौर पर जाए, इसके औचित्य का समर्थन नहीं किया जा सकता. इससे पहले भी दुनिया के अनेक देशों में इस्लामी सम्मलेन हुए थे और भारत से कुछ प्रतिनिधि गए थे. लेकिन ये पहला अवसर है जब भारत ने सरकारी प्रतिनिधि मंडल भेजा. प्रतिनिधि मंडल में नेता कैबिनेट-स्तर के मंत्री थे. प्रतिनिधि मंडल में विदेश मंत्रालय के राज्य मंत्री भी थे. क्या सरकार इस बात को स्पष्ट करने की तकलीफ़ करेगी कि हमने इस तरह के इस्लामी सम्मलेन में ग़ैर-सरकारी प्रतिनिधि मंडल को भेजने की नीति को क्यों छोड़ा?”
वो बोले, “भारत में मुसलमान रहते हैं, उनकी संख्या काफी है. वो सामान नागरिकता के अधिकारों का उपयोग करते हैं. उन्हें, राष्ट्र के प्रति समान कर्तव्यों का पालन करना है. मज़हब के आधार पर हम अपनी जनता में कोई भेदभाव नहीं करते. हमने भारत में एक असाम्प्रदायिक राज्य स्थापित किया है. अध्यक्ष महोदय, 1955-56 में स्वेज़ नहर के संकट के बाद काहिरा में आयोजित इस्लामी सम्मलेन में जब भारत का प्रतिनिधि मंडल भेजने का सवाल आया, तब पंडित जवाहरलाल नेहरु जीवित थे और मुझे बताया गया है कि उन्होंने कहा था कि हमें सरकारी प्रतिनिधि मंडल नहीं भेजना चाहिए. क्या वर्तमान विदेश मंत्री ने वह फ़ाइल देखी है, जिस पर हमारे स्वर्गीय प्रधानमंत्री ने नोट लिखा था? कहा जाता है कि उस फ़ाइल में से वो कागज़ ग़ायब कर दिए गए हैं.”
अटलजी कहते हैं, “कुआलालंपुर के सम्मलेन में मुझे याद है, मलेशिया के लोग हमें निमंत्रण देने के लिए आये थे. डॉ जाकिर हुसैन से उन लोगों ने कहा था कि आप मुसलमान हैं और देश के राष्ट्रपति हैं. आपको एक प्रतिनिधि मंडल भेजना चाहिए. मुझे यह भी याद है कि डॉ जाकिर हुसैन ने उनसे कहा था- “मैं मुसलमान हूं मगर में भारत का राष्ट्रपति हूं, हम एक सेक्युलर देश हैं और मुसलामानों के सम्मलेन में बुलाकर आप हमारी बेइज्ज़ती कर रहे हैं.” हमारी गुटनिरपेक्षता, सेक्युलरवाद की नीतियां विफल हो गयीं हैं. अध्यक्ष महोदय, अब तक जो सम्मलेन होते थे, उनमें शामिल होने के लिए हमारे पास बुलावे आया करते थे, हमें शामिल होने के लिए दावत दी जाती थी और हम जाने में संकोच करते थे, ग़ैर-सरकारी स्तर पर जाने की बात करते थे. लेकिन रबात में हमें निमंत्रण की भीख मांगनी पड़ी. पहले निर्णय लिया गया था कि हमें नहीं बुलाया जाएगा. फिर हमने उन देशों के दरवाज़े खटखटाए, हमने भारत में नयी दिल्ली स्थित दूतावासों की देहरियों पर माथे टेके. कहा जाता है हमें सर्वसम्मति से बुलाया गया था. मैं पूछना चाहता हूं कि ये सर्वसम्मति रात ही रात में कैसे बदल गई? इसका उत्तर ये दिया जाता है कि पाकिस्तान के प्रेसिडेंट पर वहां की जनता ने दवाब डाला और पाकिस्तान से तार गया कि अगर आप भारत को शामिल करना स्वीकार कर लेंगे तो आपकी खैर नहीं. पाकिस्तान में लोकतंत्र नहीं है, डिक्टेटरशिप है.”
वाजपेयी अपने संबोधन में आगे कहते हैं, “हमारे यहां की लोकतंत्रीय सरकार तार से नहीं हिलती, श्री पेरुमान मर जाएं तो यह टस से मस नहीं होती, तेलंगाना की जनता गोलियां खाती रहे, इस सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगती, हम हज़ारों लोगों को प्रधानमंत्री के दरवाज़े पर ले जायें और त्यागपत्र मांगे, लेकिन प्रधानमंत्री हमें अनुगृहीत नहीं करतीं. अध्यक्ष महोदय, ये लोकतांत्रिक देश का हाल है और हमसे ये कहा जा रहा है कि आप ये मान लीजिये कि पाकिस्तान के डिक्टेटर को कुछ तार मिले और पहले जिस पकिस्तान के डिक्टेटर ने हमारे राजदूत से हाथ मिलाया था और सर्वसम्मति से हमें बुलाने का फ़ैसला किया था, रात-ही-रात में उसको इल्हाम हुआ कि अगर सवेरे भारत आ गया तो उनकी तानाशाही ख़त्म हो जाएगी- ये हास्यास्पद बातें हैं.”
“मैं तो एक ही निष्कर्ष पर पंहुचा हूं- भारत को सर्वसम्मति से बुलाने का निर्णय एक चाल थी. यह एक जाल था हमें बुलाकर अपमानित करने के लिए और हम उस जाल में फंस गए. इस्लामी गुट में शामिल होने की कोशिश करके हमने यूनाइटेड नेशंस को कमज़ोर किया है. हमने अफ़्रीकी और एशियाई देशों की एकता पर चोट की है. हमने अरब देशों की एकता को भी भंग किया है. यूनाइटेड नेशंस के चार्टर में रीजनल ग्रुपिंग्स (समूह) की इजाज़त है, लेकिन मज़हबी ग्रुपिंग्स की नहीं. हमें इस इसका विरोध करना चाहिए. लेकिन हमारी सरकार उस हवा में उड़ गयी, उसके पैर उखड गए और अब उस ग़लती को मानने के बजाय उस पर लीपापोती की जा रही है.”
वाजपेई ने इतना बोला था कि उनके भाषण में व्यवधान पड़ गया. संसद में हो-हल्ला मच गया. पर जब वो बोलते थे तो विपक्षी भी सुनते थे. उन्होंने फिर बोलना शुरू किया. “युगोस्लाविया’ के अखबार का उदहारण देकर मैं अपने भाषण को समाप्त करना चाहूंगा. यह ‘रिव्यु ऑफ़ इंटरनेशनल अफ़ेयर्स’ है जो कि फ़ेडरेशन ऑफ़ युगोस्लाव जर्नलिस्ट द्वारा प्रकाशित किया जाता है. इस अंक में युगोस्लाविया के एक बड़े तत्वज्ञ लगोमिर मनोविच का लेख प्रकाशित हुआ है. मैं उनके विचार उद्घृत कर रहा हूं– ‘यदि मुस्लिम देशों की कोई सभा किसी धार्मिक मसले पर बुलाई जाती है, जैसे किसी धार्मिक स्थान… अल अक्सा या किसी दूसरे अंतरराष्ट्रीय स्तर के पवित्र स्थल जैसे जेरुसलम का कोई हिस्सा, तो यह तर्कपूर्ण कहा जा सकता है. लेकिन यहां तर्क स्पष्ट नहीं. सभा धार्मिक आधार पर बुलाई गई है और राजनैतिक समस्याओं पर विचार विमर्श होना है.”
वाजपेयी आगे कहते हैं, “मेरी एक और शिकायत है. सेकुलरवाद का मतलब देश के भीतर सभी धर्मों को समान समझना और मज़हब को राजनीति से अलग रखना. प्रधानमंत्री कहती हैं कि रबात में इसलिए गए की वहां पर राजनीतिक मसलों पर चर्चा होनी वाली थी. इसी स्थिति में हमारे वहां जाने पर तो और आपत्ति होनी चाहिए थी. उस सम्मलेन को इस्लामी देशों ने बुलाया. एजेंडा में इस्लामी देशों के सहयोग की चर्चा थी और बाद में जो घोषणा प्रकाशित की गई उसमें इस्लामी देशों का नाम लिया गया.”
जब इस्लामिक देश राजनीतिक सवालों पर चर्चा करते हैं तब हम वहां पर नहीं जा सकते- यह हमारी सेकुलरिज्म की नीति के ख़िलाफ़ है. वे इस्लाम की चर्चा करें तो हमारे देश के मुसलमान प्रतिनिधि बनकर जा सकते हैं, लेकिन वे जब राजनीति को मज़हब से मिलाते हैं, इस्लाम को राजनीति से मिलाते हैं तो हमारे लिए अपने दरवाज़े बंद कर देते हैं. लेकिन रबात में हम दरवाज़ा तोड़कर घुस गए और बेआबरू होकर वहां से निकले, इसके लिए माफ़ी मांगने की बजाय सरकार ग़लती दोहरा रही है और मुझे डर है भविष्य में ये विदेश मंत्रियों के सम्मलेन में भाग लेंगे. अगर सरकार ने सारी नीतियों और राष्ट्रीय हितों को ताक पर रखकर अंधेरे में छलांग लगाने का फ़ैसला कर लिया है तो हम उसे एक और धक्का देने के लिए तैयार हैं. लेकिन देश की जनता इस अपमान को कभी सहन नहीं करेगी. धन्यवाद.”
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