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आइए और अपना आरक्षण ले जाइए
राजस्थान में गुर्जरों ने आरक्षण की मांग का अपना पांचवां आंदोलन इस भाव के साथ वापस ले लिया है कि उनकी जीत हो गई है. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने पर गुर्जर समुदाय ने ही उनका सबसे मुखर स्वागत किया. उन्होंने राजस्थान ही बंद कर दिया. सड़कें बंद, रेलपटरियां बंद, आगजनी और गोली-बारी की! हमारे आरक्षण-आंदोलन का यह सफलता-सिद्ध नक्शा है – अपनी जातिवालों को इकट्ठा करना, स्वार्थ की उत्तेजक बातों-नारों से उनका खंडहर, भूखा मन तर्क-शून्य कर देना, किसी भी हद तक जा सकने वाली असहिष्णुता का बवंडर उठाना, सरकार को कैसी भी धमकियां दे कर ललकारना और अधिकाधिक हिंसा का नंगा नाच करना ! सभी ऐसा ही करते हैं, गुर्जरों ने भी किया.
गुर्जरों समेत 5 अन्य जातियों को 5% आरक्षण देने की घोषणा राजस्थान सरकार ने की. सबको पता है कि आरक्षण के बारे में 50 प्रतिशत की सर्वोच्च न्यायालय की लक्ष्मण-रेखा पार करने के कारण अदालत में ऐसे सारे आरक्षण गिर जाते हैं. ऐसा पहले हुआ भी है. अब फिर होगा ? केंद्र सरकार ने सवर्ण जातियों के लिए 10% चुनावी-आरक्षण की जो घोषणा की है, वह भी 50% की रेखा को पार करती है. दूसरे कुछ राज्यों ने भी इस मर्यादा से बाहर जा कर आरक्षण दे रखा है. इन सबके बारे में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ को कोई संयुक्त फैसला लेना है. वह जब लेगी तब लेगी लेकिन आज तो यह आरक्षण सबका सर्वप्रिय खेल बन गया है.
लेकिन मैं कहता हूं कि आइए, जिन-जिन को आरक्षण चाहिए, आइए और अपना-अपना आरक्षण ले जाइए. आखिर तो रोटी एक ही है और उसका आकार भी वैसा ही है. इसके जितने टुकड़े आप कर सकें, कर लीजिए. मैं तो कहता हूं कि सर्वोच्च न्यायालय 50% की अपनी लक्ष्मण-रेखा भी मिटा दे. फिर तो सब कुछ सबके लिए आरक्षित हो जाए ! फिर आप पाएंगे कि आरक्षण के इस जादुई चिराग को रगड़ने से भी हाथ में कुछ नहीं आया-न जीवन, न जीविका !
रोटी तो एक ही है और हममें से कोई नहीं चाहता है कि रोटियां कई हों और उनका आकार भी बड़ा होता रहे ताकि आरक्षण की भीख मांगने की जरूरत नहीं हो. सब चाहते यही हैं कि जो है उसमें से ‘हमारा’ हिस्सा आरक्षित हो जाए. यह सवाल भी कोई पूछना नहीं चाहता है और न कोई बताना चाहता है कि यह ‘हमारा’ कौन है ? जिनका आरक्षण संविधान-प्रदत्त है, उनके समाज में ‘हमारा’ कौन है ? पिछले कोई 70 सालों में वह ‘हमारा’ कहां से चला था और कहां पहुंचा ? पिछड़े समाज का पिछड़ा हिस्सा आरक्षण का कितना लाभ ले पा रहा है ? हर समाज का एक ‘क्रीमी लेयर’ है जो हर तरह के लाभ या राहत को कहीं और जाने से रोकता भी है और छान भी लेता है. दलित-पिछड़ों के समाज का भी अपना ‘क्रीमी लेयर’ है जहां पहुंच कर आरक्षण का लाभ रुकता भी है और छनता भी है. यह बात अदालत ने ही नहीं कही, हम चारों बगल देख भी रहे हैं. पिछड़ी जाति का नकली प्रमाण-पत्र बनवाने वाले सवर्णों की कमी नहीं है और हर तरह की धोखाधड़ी कर सारे लाभ अपने ही परिजनों में बांट लेने वाले पिछड़ों की कमी नहीं है.
आरक्षण की व्यवस्था पहले एक विफल समाज के पश्चाताप का प्रतीक थी, आज यह सरकारों की विफलता की घोषणा करता है. हर तरफ से उठ रही आरक्षण की मांग बताती है कि देश चलाने वाली तमाम सरकारें सामान्य संवैधानिक मर्यादाओ में बंध कर न तो देश चला सक रही हैं, न बना सक रही हैं. जब आप अपने पांवों पर चल नहीं पाते हैं तभी बैसाखी की जरूरत होती है. हम चूके कहां ? समाज के पिछड़े तबकों को आरक्षण की विशेष सुविधा दे कर सरकारों को, और समाज को भी सो नहीं जाना था बल्कि ज्यादा सजगता से और ज्यादा प्रतिबद्धता से ऐसा राजनीतिक-सामाजिक-शैक्षणिक चक्र चलाना था कि पिछड़ा वर्ग जैसा कोई तबका बचे ही नहीं. लेकिन ऐसा किसी ने किया नहीं. अगर शिक्षा में या नौकरियों में आरक्षण वाली जगहें भरती नहीं हैं तो सरकार को जवाबदेह होना चाहिए. उसे संसद व विधानसभाओ में इसकी सफाई देनी चाहिए कि ऐसा क्यों हुआ और आगे ऐसा नहीं हो इसकी वह क्या योजना बना रही है. लेकिन सत्ता की भूख ऐसे सारे सवालों को हजम किए बैठी है.
आरक्षण का सदा-सदा के लिए चलते रहना इस बात का प्रमाण है कि समाज के हर तबके को सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक अवसर का लाभ पहुंचाना इस व्यवस्था के लिए संभव नहीं है. लागू आरक्षण को जारी रखने के लिए आँखे तरेरते लोग और नये आरक्षण की मांग करते हिंसक आंनदोलनकारी, दोनों मिल कर कह तो यही रहे हैं न कि लोगों को भरमाने, खैरात बांटने और स्वार्थों की होड़ के अलावा दूसरा कुछ है नहीं कि जो हम कर सकते हैं. आरक्षण की यह भूख बताती है कि आजादी के बाद से आज तक जिस दिशा में सरकारें चली हैं वह समाज के हित की दिशा नहीं है. संविधान ने अपने पहले ही अध्याय में राज्यों के लिए जिन नीति-निर्देशक तत्वों की घोषणा की है, उन्हें देखें हम और अपने समाज को देखें तो यह समझना आसान हो जाएगा कि हमारा शासन कितना दिशाहीन, लक्ष्यहीन तथा संकल्पहीन रहा है. न सबके लिए शिक्षा, न सबके लिए स्वास्थ्य, न पूर्ण साक्षरता, न हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा, न संपू्र्ण नशाबंदी, न जाति-धर्म की दीवारों को गिराने की कोई कोशिश, न समाज की बुनियादी इकाई के रूप में गांवों की हैसियत को संविधान व प्रशासन में मान्यता- कुछ भी तो हमने नहीं किया. रोजगारविहीन विकास को हमने प्रचार की चकाचौंध में छिपाने की कोशिश की लेकिन भूख छिपाने से छिपती है क्या ? इसलिए सारी जातियों के गरीब आरक्षण की लाइन में वैसे ही खड़े हैं जैसे नोटबंदी में सारा भारत खड़ा था. और संसद व विधानसभाओ में वह लाइन बड़ी-से-बड़ी होती जाती है जिसमें गरीबों के करोड़पति प्रतिनिधि खड़े होते हैं.
आज आरक्षण वह सस्ता झुनझुना है जिससे सभी खेलना चाहते हैं लेकिन व्यवस्था की चालाकी देखिए कि वह सबको एक ही झुनझुने से निबटा रही है ताकि किसी को याद न रहे कि व्यवस्था का काम झुनझुने थमाना नहीं है.
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