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पुलवामा विस्फोट: भविष्य की भयावह आहटें

लेथपुरा में सीआरपीएफ के काफिले पर हुए हमले ने एक तरफ देश में एक तरह के युद्धोन्माद को जन्म दिया है तो दूसरी तरफ हमारी कश्मीर नीति पर कुछ बेहद गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं. साथ ही इस फिदाईन हमले ने नई आशंकाओं को भी जन्म दिया है. उमर अब्दुल्ला ने हमले की तीखी निंदा करते हुए इसे “2004-05 के पहले के दौर की याद दिलाने वाला” वाकया बताया तो इसकी जड़ में यहीं भयावह आशंका थी.

1986 के चुनावों में बड़े पैमाने पर धांधली के आरोपों के बाद कश्मीर में हिंसक आंदोलन की पहली सुगबुगाहटें मिली थीं. शेख़ अब्दुल्लाह के निधन के बाद घाटी में उस क़द का कोई नेता नहीं था और गिलानी सहित नए नेताओं की जो पौध आ रही थी वह कट्टर इस्लामी आंदोलनों से जुड़ी रही थी. डेविड देवदास की किताब “द स्टोरी ऑफ कश्मीर” उस दौर को समझने के लिए एक बेहद ज़रूरी किताब है. हिज्बुल मुजाहिदीन का नेता सैयद सलाहुद्दीन उसी चुनाव में धांधली से हराये जाने के बाद सीमा पार कर पाकिस्तान चला गया था. उसी चुनाव में सलाहुद्दीन के पोलिंग एजेंट रहे यासीन मलिक ने कुछ दूसरे युवाओं के साथ मिलकर जब जेकेएलएफ बनाई तो पाकिस्तान से भरपूर मदद मिली. 1989 आते-आते कश्मीर ज्वालामुखी के दहाने पर बैठा था और भारतीय राज्य का इंटेलिजेंस पूरी तरह फेल हो चुका था. डाउनटाउन में बसें “पिंडी पिंडी रावलपिंडी” का नारा लगाते हुए युवाओं को बॉर्डर के उस पार ट्रेनिंग के लिए ले जाती थीं और वे ग्रेनेड तथा एके-47 लेकर लौटते थे.

उस समय भी एक किस्म की पॉलिसी पैरालिसिस देखने को मिला था. पहले हार्डलाइनर माने जाने वाले जगमोहन और फिर रॉ के प्रमुख रहे जीके सक्सेना और फिर जनरल वीके कृष्णराव को राज्यपाल बनाया गया जिनका ज़ोर समस्या के सैन्य समाधान पर ही रहा. अगले दस-पंद्रह साल तक कश्मीर युद्ध स्थल बना रहा, कश्मीरी पंडितों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ. नतीजे में कश्मीर का राजनैतिक माहौल और अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो गई. अपने अंतिम दौर यानी 2002 से 04 के बीच में यह आंदोलन फिदाईन हमलों के रूप में चला.

यहां रुककर 90 के आतंकवाद का इतिहास देखें तो शुरुआत में जेकेएलएफ का दबदबा था जो आज़ादी की बात करता था और पाकिस्तान तथा भारत से अलग एक स्वतंत्र कश्मीर राष्ट्र की मांग करता था. लेकिन धीरे-धीरे इस आंदोलन पर हिजबुल मुजाहिदीन जैसे संगठनों का कब्ज़ा होता गया जो नारे भले आज़ादी के लगाते हों लेकिन स्पष्ट तौर पर पाकिस्तान के समर्थक थे. गिलानी इस समूह का वैचारिक लीडर बना और न केवल आतंकवादी कार्रवाइयों में भारतीय सेना को निशाना बनाया गया बल्कि जेकेएलएफ जैसे संगठनों और उन कश्मीरी नेताओं को भी नहीं बख़्शा गया जो पाकिस्तान विरोधी या कम से कम भारत से बातचीत के पक्षधर थे.

हुर्रियत के बेहद शुरुआती नेताओं में से एक फ़ज़ल उल हक़ कुरैशी पर जानलेवा हमला किया गया, वह बच तो गए लेकिन शरीर का एक हिस्सा अपाहिज हो गया. अब्दुल गनी लोन को जब मारा गया तो सबका शक गिलानी पर था. इसके पहले जब मीरवाइज़ की हत्या हुई थी तो भी कई लोगों का मानना था कि यह पाकिस्तान समर्थक ग्रुप की ही कार्रवाई है. भारत की एक बड़ी नाकामयाबी कश्मीर में अपने करीबियों की हत्या को न रोक पाना भी है. दुलत अपनी किताब में शब्बीर शाह को मुख्यधारा में लाने की वाजपेयी की कोशिश और मुख्यमंत्री बनाने की पेशकश की बात करते हैं. मुझे हमेशा लगा कि शायद यह डर भी शब्बीर के पीछे हटने की बड़ी वजह रहा हो.

ख़ैर, पाकिस्तान के सीधे दख़ल और बड़ी संख्या में अफगानी और पाकिस्तानी लड़ाकों का कश्मीर में आना भी लोगों के मोहभंग का कारण बना. दस साल से ज़्यादा चले आतंकवाद के दौर से लोग ऊब भी गए थे और इसमें इन लड़ाकों के स्थानीय लोगों के प्रति व्यवहार ने उन्हें आतंकवाद से दूर कर दिया. एक बार स्थानीय सपोर्ट ख़त्म हुआ तो आतंकवाद की चमक फीकी पड़ने लगी. इस दौर में बीसियों आतंकवादी संगठन बन गए थे और आपस मे भी खूनखराबा चलता रहता था. जैश ए मोहम्मद (अल्लाह की सेना) का मुखिया अज़हर मसूद भी ऐसे ही एक संगठन हरक़त उल मुजाहिदीन से जुड़ा था और जब अपहृत भारतीय जहाज के यात्रियों के बदले 1999 में उसे छोड़ा गया तो माना जाता है कि अल कायदा की मदद से पाकिस्तान में उसने यह तहरीक बनाई.

वाजपेयी के शासन काल में सैन्य नीति को बदलते हुए बातचीत की पहल के चलते उम्मीद का माहौल बना. यह नीति इतनी असरकारी हुई कि न केवल कश्मीर में एक बेहतर माहौल बना बल्कि 2007-08 के विधानसभा चुनावों में हुर्रियत के बहिष्कार के बावजूद जब बड़ी संख्या में लोग वोट देने निकले तो मीरवाइज़ की टिप्पणी थी कि हमें अपने तरीके बदलने होंगे.

दुर्भाग्य यह कि न तो वाजपेयी ही उस प्रक्रिया को किसी मुकाम तक पहुंचा सके न ही उनके बाद कोई बड़ी प्रक्रिया शुरू हुई. फिर भी 2004-05 के बाद का एक दशक लगभग शांति का दशक रहा. छिटपुट घटनाओं के अलावा कोई बड़ी वारदात नहीं हुई और सेना ने कई कल्याणकारी योजनाएं लागू कीं जिससे एक बेहतर माहौल बनता दिखाई दिया.

लेकिन 2016 में बुरहान वानी परिघटना के बाद से माहौल फिर से विस्फोटक होने लगा. बातचीत की किसी प्रक्रिया के अभाव में इसे हल करने की जिम्मेदारी पूरी तरह से सेना और अर्द्धसैनिक बलों को दे दी गई और हालात ऐसे बने कि एक तरफ़ तो स्थानीय लड़के लगातार बंदूक उठा रहे हैं तो दूसरी तरफ़ उनके जनाज़ों में भीड़ उमड़ रही है. चौंकाने वाली बात इनका दूर दराज़ के गांवों तक फैल जाना है. पिछले दिनों श्रीनगर में हुए ग्रेनेड हमलों और अब हाइवे पर हुई इस भयानक घटना के बाद यह डर बढ़ गया है कि यह एक और लंबे ख़ूनी दौर को जन्म न दे.

इस बार एक जो सबसे बड़ा अंतर देखने मे आ रहा है वह है स्थानीय लड़कों की इसमें भागीदारी. माना जाता था कि फिदाईन हमलों में कश्मीर के स्थानीय लड़कों ने कभी भागीदारी नहीं की. यह काम पाकिस्तान से रेडिक्लाइज़ करके लाये गए लड़कों से ही कराया जाता था. इसके अलावा नब्बे के दौर में पाकिस्तान और अफगानिस्तान से भारी संख्या में मिलिटेंट्स आये थे और उनकी वजह से भी स्थानीय जनता में रोष पैदा हुआ था.

आज हालात यह हैं कि जैश के मुखिया भले ही पाकिस्तान से नियंत्रित कर रहे हों लेकिन प्रत्यक्ष भागीदारी स्थानीय मिलिटेंट्स की है. जैश का ही उदाहरण लें तो 2013 में अफज़ल गुरू की फांसी के बाद जब इसे फिर से एक्टिव किया गया तो भर्ती स्थानीय ही हुई. 2017 में हिजबुल और लश्कर के 20 से अधिक कमांडर्स को मार देने के बाद जब सुरक्षाबल थोड़ा निश्चिंत हुए तो मुफ़्ती वक़ास, यासिर, अली भाई और नूर मोहम्मद तांत्रे जैसे जैश के कमाण्डरों ने मोर्चा संभाला.

2018 बीतते बीतते इन सभी के अलावा मसूद अज़हर के दो भतीजों को मारने के बाद जब लग रहा था कि यह ग्रुप कमज़ोर हो गया है तो अब आदिल अहमद दार ने यह भयावह कार्रवाई कर इस आशंका को जन्म दे दिया है कि कहीं जैश फिर से फिदाईन हमले की कड़ियां न शुरू कर दे. जिस तरह ये लड़के सोशल मीडिया पर फोटो अपलोड कर रहे हैं और इनके जनाज़े में भीड़ उमड़ रही है, साफ है कि स्थानीय समर्थन भी इन्हें मिल रहा है. साथ ही फिदाईन हमलों के लिए स्थानीय लड़कों का तैयार होना कश्मीर के भीतर रेडिक्लाइजेशन की ओर भी इशारा कर रहा है.

दूसरी तरफ़ यह भी सम्भावना है कि अपने प्रमुख कमांडरों को खो चुका आतंकवादी आंदोलन इस तरह के हमलों से ख़ुद को खबरों में बनाये रखने के साथ एक ओर पाकिस्तान के आकाओं से अधिक धन और समर्थन की मांग करना चाहते हैं तो दूसरी तरफ घाटी के अपने समर्थकों का उत्साह बढ़ाना चाहते हैं.

वैसे जिस तरह से यह हमला हुआ है वह अपने आप मे बेहद चौंकाने वाला है. सवाल यह है कि इतने बड़े काफिले को एक साथ क्यों भेजा गया और उनके रूट की जानकारी आख़िर आतंकवादियों तक पहुंची कैसे? आख़िर यह कोई दो चार दिन की तैयारी में किया गया हमला भी नहीं था. फिर जिस सड़क पर आमतौर पर हर गाड़ी चेक की जाती हैं वहां इतने विस्फोटक से भरी गाड़ी कैसे जा सकी? इंटेलिजेंस वार्निंग के बावजूद गहन जांच क्यों नहीं की गई? सीमाओं के इस क़दर संवेदनशील होने के बावजूद इतना एक्सप्लोसिव आया कैसे?

और इससे बड़े सवाल भी हैं. तीस साल से लगातार इतनी बड़ी संख्या में सेना और अर्द्धसैनिक बलों की तैनाती के बावजूद अगर कश्मीर में आतंकवाद पर नियंत्रण नहीं पाया जा सका तो कश्मीर समस्या के समाधान के लिए सैन्य रणनीति पर भरोसा कैसे और कब तक किया जाना चाहिए? अभी मीडिया में राज्यपाल बदलने और मलिक की जगह किसी सैन्याधिकारी को राज्यपाल बनाने की योजना की जो सुगबुगाहट मिल रही है वह नब्बे के दशक की उन नीतियों की ही याद दिलाती है,जिनकी सफलता हद से हद फौरी साबित हुई.

हुर्रियत के दोनों धड़ों और जेकेएलएफ के यासीन मलिक को मिलाकर बनी ज्वाइंट रेजिस्टेंस लीग ने इस हमले की कड़ी निंदा करते हुए कश्मीर समस्या के किसी स्थाई समाधान के लिए बातचीत की प्रक्रिया की शुरुआत की जो बात की है, क्या उसके बिना शांति की कोई उम्मीद है? इतने संसाधनों और इतनी जानों को क़ुर्बान कर आख़िर हमें क्या मिल रहा है!

शौरा में अपने घर पर बात करते हुए फ़ज़ल उल हक़ साहब ने मुझसे कहा था, “आज़ादी का मतलब है इस मसले का कोई ऐसा हल जो हिंदुस्तान के लिए भी सम्मानजनक हो और कश्मिरियों के लिए भी.” बदले की हुंकार और युद्ध के पागलपन में फंसे मध्यवर्ग और मीडिया को समझाना तो मुश्किल है लेकिन सरकार को यह समझना होगा कि बातचीत और मरहम की नीति से राजनीतिक प्रक्रिया की शुरुआत ही है जो ऐसे किसी हल तक पहुंचने में मदद कर सकती है.

अशोक कुमार पाण्डेय चर्चित किताब कश्मीरनामा के लेखक हैं.