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‘लड़के-लड़की की बराबरी ने मोहब्बत को वास्तविकता के धरातल पर ला दिया है’
गीतकार इरशाद कामिल अपने अलग अंदाज और शब्दों के साज से प्रेम की धरती पंजाब के जज़्बात, जोश और जिद को हिंदी फिल्मों में ले आते हैं. उनके प्रेम गीतों की जमीन और पहचान अलहदा है. बसंत के इस मौसम में बसंत पंचमी के दिन उनसे प्रेम और रोमांस पर चंद बातें हुई. प्रेम को देखने और लिखने का उनके पास अलग नज़रिया है. मैंने सवाल के साथ उन्हें एक संदर्भ दिया और फिर इरशाद बोलते चले गए. सोच की स्पष्टता उनकी बातों में छलकती रहती है. कामयाबी और शोहरत ने उन्हें जबरदस्त आत्मविश्वास दिया है.
मेरा मानना है की हिंदी फिल्म के शुरुआती दशकों में प्रेम वास्तव में विद्रोह की बात थी. उसे हम सामाजिक विद्रोह की तरह देख सकते हैं. आजादी के बाद के स्वर्णिम युग की फिल्मों में नायक नायिका प्रेम के लिए संघर्ष करते नजर आते हैं. आप क्या सोचते हैं?
मेरा ताल्लुक साहित्य से रहा है. थोड़ा गीतों से इतर भी है इरशाद कामिल. भारत के साहित्य की बात करें तो प्रेम हमारे साहित्य और नाटकों में सदियों से चला आ रहा है. प्रेम के साथ रोमांस के जुड़ने के अध्याय को यूं समझिए कि प्रेम किताब है तो रोमांस उसकी भूमिका. पहले के प्रेम में रोमांस को अधिक अवधि नहीं मिलती थी. धार्मिक और पौराणिक ग्रंथों के प्रेम चित्रण में रोमांस नहीं दिखता. नाटकों में भी रोमांस को अधिक जगह नहीं मिली. साहित्य में रोमांस अठारहवी सदी के मध्य में जुड़ा. साहित्य और दर्शन में प्रेम के साथ रोमांस के आने के बाद का सफर आज जहां पहुंचा है, वह समकालीन रोमांस से भी आगे का मुकाम है. वह ‘अब का रोमांस’ है (romace of now). क्योंकि अब से पुराना कुछ भी नहीं है. हम समकालीन की बात करते हैं तो भी एक जमाने की ही बात होती है. आपने बिल्कुल सही कहा कि साहित्य और फिल्मों में प्रेम और रोमांस एक विद्रोह के रूप में ही दिखता है. आप देखें कि परिवार और समाज में प्रेम के बारे में कुछ भी बताया और सिखाया नहीं जाता है. यह स्वयं प्रस्फुटित होने वाला अंकुर है. और फिर अंकुर से निकले पौधे और उसके फूल के रंग, खुशबू, घेरा और आकार-प्रकार के बारे में कोई भी अनुमान नहीं लगाया जा सकता.
प्रेम ने विद्रोह का रूप क्यों लिया? क्योंकि हमने अपने परिवार, परिवेश और समाज के हिसाब से कुछ मान्यताएं तय कर लीं. उन मान्यताओं में आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक चीजें आयीं. फिर इनकी वजह से विद्रोह की स्थिति बनी. आजादी के बाद की फिल्मों में नायक-नायिका के बीच प्रेम होते ही एक खलनायक खड़ा हो जाता था. वह कभी माता-पिता और परिवार या किसी और शक्ल में नजर आता था.
निश्चय ही तब के परिवेश और मान्यताओं की वजह से ज्यादातर फिल्मों में माता-पिता परिवार और समाज नायक-नायिका के प्रेम के खिलाफ नजर आते थे. वे उन्हें अलग करने की कोशिशों में रहते थे नायक-नायिका किसी भी तरह मिलने और साथ होने का यत्न करते थे.
बिल्कुल हमने समाज और फिल्मों में देखा कि कई बार मां-बाप अपने बेटे-बेटियों के प्रेम को स्वीकार कर लेते हैं. संयुक्त परिवारों के दौर में बाप इस बात से परेशान होता था कि ताया क्या कहेंगे? पड़ोसी क्या कहेंगे और गांव की पंचायत में क्या बातें होंगी? लोग क्या कहेंगे? इस फिक्र ने मोहब्बत को मोहलत नहीं दी. जाहिर है विद्रोह हुआ. विद्रोह आना ही था. लंबे समय तक हमारी फिल्मों की प्रेम कहानियों का यही आधार रहा. कहा भी जाता है हिंदी फिल्मों की एक ही कहानी होती है, एक लड़का होता है, एक लड़की होती है और बीच में उन दोनों को ना मिलने देने वाला कोई होता है. अब सवाल यह है प्रेम का आखिरी पड़ाव शादी है? मेरे ख्याल से प्रेम का आखिरी पड़ाव शादी नहीं है. प्रेम का आखिरी पड़ाव हमारी अंतिम सांसे हैं. अगर शादी को आखिरी पड़ाव मानोगे तो इसका मतलब है कि आपने प्रेम के पौधे को सींचना बंद कर दिया है. प्रेम महज शब्द नहीं है. वह मेहनत है. मेहनत लगातार करनी पड़ेगी. फिर एक दौर आया कि हमारी फिल्मों में प्रेम रैपर बन के रह गया. अब यह मोहब्बत रियल हुई है.
क्या यह 21वीं सदी में हुआ है?
21वीं सदी में मोहब्बत ने वास्तविकता के धरातल पर कदम रखा. मुझे लगता है यह मोहब्बत की सबसे बड़ी जीत है. हमारी आम जिंदगी और फिल्मों में रोमांस का मतलब चांदनी रात में महबूब का साथ मानते रहे. चांदनी रात हो और हम झील के किनारे टहल रहे हो. या फिर चांदनी रात हो और हम छत पर खामोश लेटे चांद देखते रहें. ये सारी बातें हकीकत से परे थी. पुरानी तरह के रोमांस में कोई भी लड़की या लड़का रियल नहीं लगते. चांदनी रात में अकेली सड़क पर दो लोग टहलते जा रहे है. यह विजुअल अच्छा और आकर्षक है, पर व्यवहारिक नहीं है. अब के लड़की-लड़के इस दुनिया के हैं. उन्हें मोहब्बत करने के साथ जीना भी है. उन्हें शाम में बैठकर साथ में कॉफी पीनी है तो सुबह उठकर दफ्तर भी जाना है. उन्हें एक-दूसरे की डिमांड पूरी करनी है तो बॉस का टारगेट भी पूरा करना है. इन चीजों को आज के जमाने में इग्नोर नहीं कर सकते. आज की चुनौतियां अलग है. माहौल अलग है. अवसर अलग हैं. पहले की मोहब्बत में पुरुषों की बात चलती थी. वह भी बदली है. अब दोनों बराबर के पार्टनर हैं. पहले की कहानियों में प्यार के बाद शादी और शादी के बाद दो नन्हे-मुन्ने बच्चे. वही बात रुक जाती थी. अब बात आगे तक जाती है. उन्हें किस स्कूल में पढ़ाएंगे? उनके बीच क्या अंतर होगा? उनको एक अच्छा नागरिक कैसे बनाएंगे? तुम काम करोगे या मैं काम करूंगी या दोनों काम करेंगे? बच्चों के होमवर्क की जिम्मेदारी तुम कितने दिन लोगे और मैं कितने दिन लूंगी? इस बराबरी ने मोहब्बत को वास्तविकता के धरातल पर ला दिया है.
क्या इस मोहब्बत में रोमांस कायम है या स्वरूप बदल गया है?
मैं यही कह रहा हूं कि रोमांस के मायने बदल गए हैं. आज की लंबी वॉक किचन और कमरे में होती हैं. साथ में डिनर बनाते हुए रोमांस चलता है. दोनों काम से लौटे हैं. घर में दोनों बातें भी कर रहे हो शरारतें भी कर रहे हो. शरारतें तो जरूरी है जिंदगी के लिए. साथ में कुकर की सीटियां भी बज रही हैं. परेशानियों से निकलने की बातों और सलाह में रोमांस है. यहां चांद-तारों की बात नहीं हो रही. फूल भी नहीं खिल रहे हैं. आज के प्रेमी लंबी रोमांटिक मोहब्बत वाली जमीन को असली खाद-पानी दे रहे हैं. सींच रहे हैं. प्रेमी सिर्फ प्रेमी नहीं है. वह घर का फाइनेंशियल मेनेजर भी है. वह ड्राईवर और शेफ भी है. दोनों अपनी ज़िम्मेदारी निभाते रहते हैं और प्रेम भी करते हैं. आज की फिल्मों में प्रेमिका अपने प्रेमी को उठना-बैठना और आचार-व्यवहार भी सिखा रही है. रोमानी बातों में रियलिटी आ गयी है.
इस बदले माहौल में आप प्रेमी-प्रेमिकाओं को क्या सलाह देना चाहेंगे ?
पूरी गंभीरता से मैं यह बात कह रहा हूँ कि मोहब्बत करते समय कभी खुद से यह सवाल पूछना चाहिए कि आप क्यों मोहब्बत करते हैं? इस सवाल से स्पष्टता मिलेगी. भ्रम टूटेगा. खुद से पूछा सवाल ही मोहब्बत को जांचने की कसौटी है. क्यों का जवाब मिलते ही मोहब्बत मजबूत हो जाती है या ख़त्म हो जाती है. अभी मोहब्बत में बराबर की हिस्सेदारी और हक है. अभी बाज़ार हावी है. इस सवाल से ही आप बाज़ार से बच सकते हैं. बाज़ार गलतफहमियां फैला रहा है. यह नया खलनायक है. बाज़ार मोहब्बत की ज़मीन को उबड़-खाबड़ करता रहता है. मोहब्बत एहसास के साथ ज़िम्मेदारी भी है. उसे क़ुबूल करना ही होगा.
आप ने इम्तियाज़ अली, अली अब्बास ज़फर, आनंद राय और अनेक फिल्मकारों की फिल्मों के लिए गीत लिखे. उन सभी का प्रेम के प्रति नजरिया अलग रहा होगा…
मेरे दो डायरेक्टर हैं, इम्तियाज़ अली और अली अब्बास ज़फर. मैंने इनकी सारी फिल्मों के लिए गीत लिखे हैं. दोनों के साथ मेरा सिलसिला चल रहा है. किसी की भी फिल्म हो, मैंने हमेशा रोमांस को फ्रिविलस होने से बचाया है. कोशिश रहती है कि वह झूठा न लगे. अपने गीतों के जरिये फिल्म को संभालता हूं. गीत फिल्म के स्तम्भ होते हैं. एक गलत गीत से पूरी फिल्म झूल सकती है. ‘सोचा न था’ का गीत देखें…
मैं सीधे-सादे ढंग से करता हूं अपनी बात,
एक घर बनाना चाहता हूं मैं तुम्हारे साथ,
क्या दोगी मेरे हाथों में बोलो तुम अपना हाथ.
इससे सीधी बात नहीं कही जा सकती. अली अब्बास ज़फर की फिल्म में- कैसा ये इश्क है / अजब सा रिस्क है. हाल ही में आई आनंद एल राय की ‘जीरो’ में- मेरे ही घेरे में घूमेगी तू ऐसे / सूरज के घेरे में रहती है ये धरती जैसे. मेरे रोमांस में तर्क रहता है. मेरे लिए प्रेमी हो या प्रेमिका, दोनों ही सब्जेक्ट होते हैं. मैं किसी को ऑब्जेक्ट नहीं बनाता. आगे की बात करूं तो- मांगा जो मेरा है, जाता क्या तेरा है, मैंने कौन सी तुझसे जन्नत मांग ली. मैंने लिखा- सर्दियों में जो गालों पर आती है वो लाली तू.
अपने गीतों में जब लड़कियों की जुबां से बोलते हैं तो वे मुखर और आश्वस्त नज़र आती हैं. उनका नजरिया आता है और खुले शब्दों में आता है. मुझे तो लगता है कि आप के गीतों के बोल नायिकाओं का चरित्र गढ़ते हैं और उनसे प्रभावित होकर डायरेक्टर तब्दीलियां करते?
ऐसा बहुत बार हुआ है. अभी कोलकाता में लड़कियों ने कहा कि हम जो कहना चाहती हैं, वही आप बोल देते हो. मैंने अनकही ज़िम्मेदारी ले ली है कि नायिकाओं के लिए मुझे खड़ा रहना है. वे मेरे लिए वस्तु नहीं हैं. मेरे गीतों में बात करने का यह तरीका है कि मैं लड़कियों की सीधी बात करता हूं. मैं उनके बारे में बात नहीं करता. कोई दुराव-छिपाव नहीं होता.
यह कहां से आया है? लगता है मजबूत औरतें आसपास रही हैं… और आप की अपनी सोच आम शायरों जैसी नहीं?
यह लड़कियों के ऑब्जेक्टिफिकेशन की ऊब से आया है. ऊब से यह सोच बढ़ी कि मैं तेरे बारे में बात नहीं करूंगा. मैं तेरी बात करूंगा. मैं बहुत सारे लोगों की सोच और विचारधारा के खिलाफ खड़ा हूं. मेरी सोच बनाने में मां का बड़ा हाथ रहा है. वह अपने ज़माने की बहुत मजबूत औरत रही हैं. या मेरी बीवी हैं. दूसरे मेरी पढाई. मुझे प्रेमचंद की ‘निर्मला’ बहुत पसंद है. सिमोन द बुआ की ‘सेकेंड सेक्स’. किताबों के किरदारों के साथ अपने आसपास भी ऐसी औरतें देखी है मैंने. कई बार लगता है कि मेरा सच और ज़माने का सच इतना अलग क्यों है? हम साहित्य या गीत क्यों लिखते हैं? हमें लगता है कि कहीं कुछ कम है. हमें उसे भरना होता है.
पुरानी फिल्मों को याद करें तो कौन से किरदार या फ़िल्में याद आती हैं प्रेम और रोमांस की?
आप ‘मुगले आज़म’ देख लें. अनारकली कितनी मजबूत है. वह इतनी ताकतवर है कि अपनी मोहब्बत से किनारा कर लेती है. ‘शोले’ की बसंती को देख सकते हैं. वह सामान्य नायिका नहीं है. ‘जब वी मेट’ की गीत को लें. ‘टाइगर जिंदा है’ में कट्रीना का ही किरदार लें. ये सभी मजबूत लड़कियां हैं. मैं समाज में ऐसी लड़कियों को देखना चाहता हूं. मैं इज्ज़त करता हूं. लड़कियों की इच्छाओं का हनन होते नहीं देख सकता. इच्छाओं का हनन करें और नारी को महान कहते रहने से बात नहीं बनेगी.
इम्तियाज अली की ‘तमाशा‘ ने आज की लड़कियों को बहुत प्रभावित किया. इस प्रभाव को बढ़ने में आप के गीतों का भी योगदान है. ‘तमाशा‘ के किरदारों और उनके संबंध को आप कैसे देखते हैं?
‘तमाशा’ अपने समय की बेहद खूबसूरत फिल्म है. ऐसी फ़िल्में बाद में एहसास दिलाती हैं कि वह एक अहम् फिल्म थीं. वेद और मीरा के बीच मीरा आजाद लड़की है. वह परिवार के साथ नहीं आई है. वह जीना चाहती है. उसकी यह चाहना पूरी फिल्म में है. वह वेद को सिखाती है कि अपने लिए जियो. उसने आज की लड़कियों को इसलिए भी प्रभावित किया कि वह हर सुरक्षा घेरे के बाहर थी. लड़कियों को किसी भी परिस्थिति के लिए तैयार करना बेहतर है. उन्हें डरना और सुरक्षा देना तो कमज़ोर करना है. ‘तमाशा’ ने धारणाएं तोड़ी है. ‘हाईवे’ की लड़की परिवार में सुरक्षित नहीं है. वह खुली सड़क पर आवारगी करते हुए खिलती है. लड़कियों को एहसास होना चाहिए कि वे खास हैं. तभी आत्मविश्वास आएगा. बाज़ार से बचना ज़रूरी है.
इरशाद कामिल के पसंदीदा पांच रोमांटिक गीत:
1. पांव छू लेने दो, फूलों को इनायत होगी
फिल्म: ताजमहल (1963)
गीतकार: साहिर लुधियानवी
संगीतकार: रोशन
गायक: मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर
निर्देशक: एम सादिक
2. तुम पुकार लो, तुम्हारा इंतजार है
फिल्म: ख़ामोशी (1970)
गीतकार: गुलज़ार
संगीतकार: हेमंत कुमार
गायक: हेमंत कुमार
निर्देशक: असित सेन
3. जब प्यार किया तो डरना क्या
फिल्म: मुगले आज़म (1960)
गीतकार: शकील बदायूंनी
संगीतकर: नौशाद
गायक: लता मंगेशकर
निर्देशक: के आसिफ
4. तू कहां ये बता
फिल्म: तेरे घर के सामने (1963)
गीतकार: हसरत जयपुरी
संगीतकार: सचिनदेव बर्मन
गायक: मोहम्मद रफ़ी
निर्देशक: विजय आनंद, बीरेन नाग
5. पहला नशा, पहला खुमार
फिल्म: जो जीता वही सिकंदर (1992)
गीतकार: मजरूह सुल्तानपुरी
संगीतकार: जतिन ललित
निर्देशक: मंसूर खान
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