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कृष्णा सोबती: अब यादों के घेरे में

आज से क़रीब 30 वर्ष पूर्व प्रकाशित अपनी गद्य-कृति ‘ऐ लड़की’ में कृष्णा सोबती (18 फ़रवरी 1925—25 जनवरी 2019) ने मृत्यु की प्रतीक्षा में डूबी एक बूढ़ी स्त्री के आख्यान को व्यक्त किया था. इस बूढ़ी स्त्री की जिजीविषा मृत्यु के सम्मुख ज़िंदगी के ताप के विजयी होने का उल्लेख है. इस कथा के आलोक में अगर हम कृष्णा सोबती के नाम-ओ-काम और उनकी मृत्यु की ख़बर को देखें, तब देख सकते हैं कि यह ख़बर कृष्णा सोबती के न रहने से ज़्यादा सदा उनके जीते चले जाने के विवरणों से भरी हुई है. अब तक नुमायां हुई श्रद्धांजलियां इसकी तसदीक़ करती हैं कि वह हर लिहाज़ से हिंदी की सबसे सम्मानित और सफल साहित्यकार हैं. इस पर उनकी ख़ूबी यह है कि वह सदा मानवीय मूल्यों के पक्ष में मुखर रहीं और प्रतिरोध के स्वर में अपना स्वर मिलाती रहीं.

कृष्णा सोबती का जन्म 18 फ़रवरी 1925 को वर्तमान पाकिस्तान के एक क़स्बे में हुआ था और अपनी ज़िंदगी का तवील वक़्त उन्होंने दिल्ली में गुज़ारा, जहां आज सुबह साढ़े आठ बजे उन्होंने अंतिम सांस ली. कई दिनों से उनके अस्वस्थ रहने की सूचनाएं और उनकी नई किताबें साथ-साथ आ रही थीं. ये सूचनाएं उनकी रचनात्मक निर्भयता का निष्कर्ष हैं.

कृष्णा सोबती को साल 1980 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और 2017 में ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ, लेकिन कृष्णा सोबती सरीखे लेखक अपने लिए सबसे बड़ा पुरस्कार ‘सर्जक की आंख’ को मानते हैं और उनका सारा संघर्ष इस केंद्रीय लक्ष्य से ही गतिशील रहता है. क्योंकि, ‘‘कलाकार की आंख साधना लेखक के परिश्रम का सुफल और इन दोनों में संतुलन द्रष्टा की सामर्थ्य का संयोग, इन भरपूर क्षमताओं से लगभग परे लेखक को मात्र एक शिक्षार्थी की तरह जीवन भर सीखते चले जाना है. कोई भी रचनात्मक टुकड़ा अपने बीज और प्रकृति में, क़िस्म में एक साथ सार, संक्षिप्त, विस्तार और सघनता से प्रस्तुत किया जाए तो लेखक की मानसिक संलग्नता और रचना की सहवर्तिता एक-दूसरे के समानांतर रहते हैं. लेखक लिपिक होकर रचना से डिक्टेशन लेता है. इसी से संवेदनात्मक जोड़, योग और चित्ताकाश पर फैले बहु-संयोग रचना में जज़्ब हो जाते हैं.’’

ऊपर उद्धृत कथ्य कृष्णा सोबती के आत्मकथ्य से है और इसे पढ़कर एक साहित्यकर्मी की साधना समझी जा सकती है. एक ऐसा साहित्यकर्मी जिसके पास ऐसी आंख है कि वह ग़लत के सामने समूचे वजूद को इस बात के लिए विवश करती है कि वह प्रतिकार के साथ हो जाए. वह जहां उसकी ज़रूरत हो मौजूद रहे.

यही वह बिंदु है जहां हिंदी साहित्य के आधुनिक इतिहास में जब हर लिहाज़ से हिंदी के सबसे सम्मानित और सफल साहित्यकारों का ज़िक्र होगा, तब कृष्णा सोबती इस वजह भी सबसे अलग नज़र आएंगी कि वह सदा ‘अजातशत्रुता’ जैसे दुर्गुण को दूर से ही फटकारती रहीं.

वे मुद्दे जिनसे देश और दृश्य जूझ रहा होता उन पर उन्होंने ज़बान हिलाने से कतराने की जगह एक राय, गोशानशीनीं के बजाय जनता के बीच जाना और तटस्थता की जगह पहल को बरता. उन्हें विवादों में पड़ना और पाए गए को ठुकरा-लुटा देना आता था.

इस दुखद घड़ी में जनवादी लेखक संघ की ओर से ज़ारी विज्ञप्ति से वाक्य लेकर अगर कहें तो कह सकते हैं: ‘‘मौजूदा भाजपा निज़ाम की असहिष्णुता के ख़िलाफ़ जब-जब लेखकों-संस्कृतिकर्मियों ने आवाज़ उठाई, कृष्णा सोबती की आवाज़ उसमें सबसे मुखर रही. प्रोफ़ेसर कलबुर्गी की हत्या के बाद शासक दल की क्रूरता और अपनी स्वायत्तता का समर्पण करती साहित्य अकादेमी की चुप्पी का उन्होंने पुरजोर विरोध किया और अकादेमी की महत्तर सदस्यता से इस्तीफ़ा दिया. सरकार के ख़िलाफ़ प्रतिरोध के कार्यक्रमों में वह अपनी पहिया-कुर्सी पर बैठकर शामिल भी होती रहीं.’’

‘ज़िंदगीनामा’, ‘दिलो-दानिश’, ‘डार से बिछुड़ी’, ‘समय सरगम’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘ऐ लड़की’, ‘बादलों के घेरे’ और ‘हम हशमत’ जैसी कृतियों की रचयिता कृष्णा सोबती हिंदी साहित्य संसार से कभी बिछुड़ने वाली नहीं हैं. आख़िर में ‘ऐ लड़की’ का यह संवाद:

‘‘सिर-मस्तक-मुख-नेत्र-नाक-कान-कपोल-हाथ-पांव-कटि, रचने वाले ने भी क्या रच डाला! अंदर लगा दी पल-छिन वाली घड़ी. न एक सांस ज़्यादा और न कम. जो इस दुनिया में घर बनाकर बैठते हैं, उन्हें आख़िर तो सरकना ही पड़ता है.’’