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कॉलेजियम सिस्टम के रहते न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता संभव नहीं

सुप्रीम कोर्ट में न्यायिक नियुक्तियां, नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया एक बार फिर से सवालों के घेरे में है. हालिया विवाद उन दो नियुक्तियों को लेकर हुआ है जिन्हें इस शुक्रवार देश के मुख्य न्यायाधीश ने शपथ दिलवाई है. ये दो नाम हैं- कर्नाटक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस संजीव खन्ना.

जस्टिस माहेश्वरी और जस्टिस खन्ना की नियुक्ति पर यह विवाद इसलिए हो रहा है क्योंकि बीते दिसंबर महीने में कॉलेजियम ने दो अन्य लोगों के नाम पर मुहर लगाई थी. दिसंबर में हुई कॉलेजियम की बैठक में तय हुआ था कि राजस्थान हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश प्रदीप नंद्राजोग और दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश राजेंद्र मेनन को सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्त किया जाएगा. लेकिन इस फ़ैसले के एक महीने बाद ही कॉलेजियम ने अपना फ़ैसला बदलते हुए दो बिलकुल नए नामों पर मुहर लगा दी है. यही अब विवाद का कारण बना गया है.

सुप्रीम कोर्ट के कई पूर्व न्यायाधीशों, वरिष्ठ वकीलों और क़ानूनी मामलों के जानकारों ने इस नियुक्ति पर सवाल उठाए हैं. देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा ने इस तरह की नियुक्तियों को अपारदर्शी बताया है. पूर्व अटर्नी जनरल सोली सोराबजी ने इन नियुक्तियों को दुर्भाग्यपूर्ण कहा है. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एसके कौल ने भी इन नियुक्तियों पर आपत्ति ज़ाहिर की है और दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश कैलाश गम्भीर ने तो इन नियुक्तियों को रोके जाने को लेकर राष्ट्रपति को चिट्ठी तक लिखी डाली है.

अपनी चिट्ठी में जस्टिस में गंभीर ने लिखा है कि ‘अगर इन नियुक्तीयों को रोका नहीं जाता तो यह भारतीय न्यायिक इतिहास का सबसे काला अध्याय होगा.’ हालांकि इन तमाम अपत्तियों के बावजूद भी ये नियुक्तियां हो चुकी हैं और अब इन्हें वापस लिए जाने का कोई प्रावधान नहीं है.

इन नियुक्तियों पर मुख्यतः दो कारणों से सवाल उठ रहे हैं. पहला तो यही कि जब बीते दिसंबर में कॉलेजियम ने दो नाम चुन लिए थे तो फिर अचानक इन्हें बदला क्यों गया. यह सवाल इसलिए भी गम्भीर माना जा रहा है क्योंकि दिसंबर में जिस कॉलेजियम ने जजों की नियुक्ति की थी, वह कॉलेजियम अब बदल चुका है. जस्टिस मदन बी लोकुर का कार्यकाल पूरा हो जाने के चलते कॉलेजियम में उनकी जगह जस्टिस अरुण मिश्रा ने ले ली है. इसलिए कई जानकार यह सवाल उठा रहे हैं कि अगर कॉलेजियम को अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करना भी था तो यह जस्टिस लोकुर के रहते ही हो जाना ज़्यादा उचित था.

इन नियुक्तियों पर सवाल उठने की दूसरी वजह वह दो नाम ख़ुद ही हैं जिन्हें सुप्रीम कोर्ट का नया जज नियुक्त किया गया है. जस्टिस माहेश्वरी की नियुक्ति पर इसलिए सवाल उठ रहे हैं क्योंकि दो महीने पहले ही उन्हें नज़रंदाज़ करते हुए उन्हीं के हाईकोर्ट से जस्टिस अजय रस्तोगी को नियुक्त किया गया था. इसलिए जस्टिस गंभीर समेत कई लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि ‘दो महीनों में ऐसा क्या बदल गया कि अचानक जस्टिस माहेश्वरी अयोग्य से योग्य हो गए?’

जस्टिस संजीव खन्ना की नियुक्ति पर इसलिए सवाल उठ रहे हैं क्योंकि उनसे वरिष्ठ कई जज विभिन्न हाईकोर्टों में मौजूद हैं. दिल्ली में ही उनसे वरिष्ठ तीन जज हैं और देश भर में 30 से ज़्यादा जजों को नज़रंदाज़ करते हुए उन्हें यह नियुक्ति मिली है. यही कारण है कि जस्टिस चेलमेश्वर और जस्टिस एपी शाह जैसे प्रख्यात नामों ने भी इन नियुक्तयों को अपारदर्शी बताया है.

वैसे यह पहली बार नहीं है जब न्यायिक नियुक्तियों पर सवाल उठ रहे हैं. बीते तीन-चार सालों में देश की न्यायपालिका पर कई गंभीर सवाल खड़े हुए हैं. कई बार तो मोदी सरकार पर यह आरोप भी लगे हैं कि वह न्यायिक स्वतंत्रता के लिहाज़ से एक स्वस्थ माहौल बना पाने में नाकाम रही है.

वर्तमान केंद्र सरकार और न्यायपालिका ज़्यादा समय टकराव की स्थिति में ही नज़र आए हैं. यह टकराव लगभग तभी शुरू हो गया था जब केंद्र में भाजपा की इस सरकार ने अपना कार्यकाल शुरू किया था. नरेंद्र मोदी सरकार ने आते ही न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया को पूरी तरह से बदलने के लिए कॉलेजियम व्यवस्था की जगह न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाने का प्रयास शुरू कर दिया. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के इस क़दम को असंवैधानिक क़रार दे दिया और कॉलेजियम की व्यवस्था को ही जारी रखा.

इसके बाद से सरकार के पूरे कार्यकाल के दौरान न्यायिक नियुक्तियां सवालों से ही घिरी रही. कभी सरकार पर आरोप लगे कि वह सिर्फ़ अपने चहेते लोगों के नाम पर मुहर लगा रही है तो कभी आरोप लगे कि सरकार ज़रूरत से ज़्यादा हस्तक्षेप कर रही है और नौबत यहां तक आ गई कि देश के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के सबसे वरिष्ठ जजों को जनता के सामने आकर प्रेस वार्ता करनी पड़ी जिसमें उन्होंने बताया कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता ख़तरे में है.

न्यायिक नियुक्तियों को लेकर यह स्थिति इसलिए भी है क्योंकि हमारी व्यवस्था में यह नियुक्तियां बिलकुल भी पारदर्शी नहीं हैं. और न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता की कमी के लिए किसी भी सरकार से ज़्यादा ख़ुद भारतीय न्यायपालिका ही ज़िम्मेदार है.

मोदी सरकार पर यह आरोप ज़रूर लगते हैं कि उसने कई बार न्यायिक नियुक्तियों को प्रभावित करने के तमाम प्रयास किए हैं. जस्टिस केएम जोसेफ़ और और गोपाल सुब्रमण्यम की नियुक्ति के मामले में सरकार का रवैया इन आरोपों को बल भी देता है. लेकिन एक हक़ीक़त यह भी है कि न्यायिक नियुक्तियों को पारदर्शी बनाने की दिशा में जो क़दम मोदी सरकार ने उठाया था, उसमें सुप्रीम कोर्ट ने सहयोग किया होता तो यह समस्या हमेशा के लिए सुलझ सकती थी.

जिन हालिया नियुक्तियों को लेकर विवाद चल रहा है, उसके लिए भी सरकार नहीं बल्कि ख़ुद न्यायपालिका और न्यायिक नियुक्ति के लिए अपनाई जाने वाली कॉलेजियम व्यवस्था ही ज़िम्मेदार है. कॉलेजियम व्यवस्था हमेशा से ही सवालों से घिरी रही है. देश के संविधान में भी जजों की नियुक्ति के लिए इस तरह की किसी व्यवस्था का ज़िक्र नहीं है. संविधान के अनुछेद 124 और 217 में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया बताई गई है. इसके अनुसार जजों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा देश के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के बाद की जाएगी. 1970 के दशक तक ऐसा ही होता भी था लेकिन आपातकाल के बाद परिस्थितियाँ बदली और धीरे-धीरे नियुक्तियों की प्रक्रिया पूरी तरह बदल गई और कॉलेजियम की व्यवस्था स्थापित हो गई.

आपातकाल के दौरान तत्कालीन राष्ट्रपति ने विभिन्न हाईकोर्ट के 16 जजों के तबादले कर दिए थे. हालांकि 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो इन सभी 16 जजों को इनके मूल प्रदेशों में वापस भेज दिया गया. लेकिन इस प्रकरण के बाद सबको यह बात समझ आ गई कि न्यायिक व्यवस्था में कार्यपालिका का हस्तक्षेप कितना घातक सिद्ध हो सकता है. यहीं से इस सवाल पर विचार होना शुरू हुआ कि संविधान में जजों की नियुक्ति और तबादले के लिए राष्ट्रपति या केंद्र सरकार द्वारा मुख्य न्यायाधीश से ‘परामर्श’ की जो व्यवस्था दी गई है, उसमें ‘परामर्श’ शब्द के क्या मायने हैं.

क्या राष्ट्रपति यह परामर्श मानने के लिए बाध्य हैं, यदि नहीं तो किन परिस्थितियों में? इसी सवाल का जवाब सुप्रीम कोर्ट ने तीन अलग-अलग फ़ैसलों में तलाशने का प्रयास किया है जिन्हें ‘थ्री जजेस केस’ भी कहा जाता है. इन तीन मामलों में से दूसरा मामला था ‘सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया’. इस मामले को ‘सेकंड जजेस केस’ कहा जाता है और कॉलेजियम व्यवस्था की असल शुरुआत इसी मामले के बाद हुई थी. इस मामले के बाद से जजों की नियुक्ति में केंद्र सरकार की भूमिका लगभग समाप्त हो गई और फिर थर्ड जजेस केस के बाद तो कॉलेजियम ने अपना वो स्वरूप पा लिया जो आज भी बना हुआ है.

लेकिन कॉलेजियम व्यवस्था हमेशा से ही सवालों से घिरी रही. ‘जजों द्वारा जजों की नियुक्ति’ किए जाने की ऐसी व्यवस्था पर देश के ही नहीं बल्कि दुनिया भर के तमाम कानूनविदों ने सवाल उठाए. प्रख्यात कानूनविद एचएम सीरवाई ने कॉलेजियम व्यवस्था स्थापित करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बारे में यहां तक लिखा कि ‘सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में न्यायिक अक्षमता का इससे बाद उदाहरण नहीं है’ और जस्टिस कृष्णा अय्यर ने इस फ़ैसले को संविधान के साथ धोखा बताया था. लेकिन इसके बाद भी कॉलेजियम व्यवस्था अगर आज तक बनी हुई है तो इसके पीछे क़ानून के जानकार न्यायपालिका की ‘तानाशाही’ को मुख्य वजह मानते हैं. इस व्यवस्था में जजों को नियुक्त करने का पूरा अधिकार जजों के ही पास है और इस अधिकार को चुनौती देने या इस पर नियंत्रण रखने की कोई व्यवस्था नहीं है. यही कारण है कि इस व्यवस्था में पारदर्शिता की भी भारी कमी है.

कॉलेजियम व्यवस्था के बारे में यह बात लगातार उठती रही है कि इस व्यवस्था में नियुक्ति का कोई तय आधार नहीं है, नियुक्तियां अक्सर व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर होती हैं, पूर्व जजों के बच्चे-भाई-भतीजे ही ज़्यादातर नियुक्त किए जाते हैं और इन नियुक्तियों में जजों की क़ाबिलियत, उनका अनुभव, काम और निष्ठा जैसे महत्वपूर्ण पहलू नज़रंदाज़ कर दिए जाते हैं.

कॉलेजियम व्यवस्था पर आज से ही नहीं बल्कि इसकी शुरुआत से ही सवाल उठते रहे हैं. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान इस व्यवस्था को परखने के लिए जस्टिस वेंकटचलैया आयोग का गठन किया गया था. इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कॉलेजियम व्यवस्था को समाप्त कर एनजेएसी यानी ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग’ के गठन की सलाह दी. लेकिन 2004 में यूपीए सरकार बनने के बाद वेंकटचलैया आयोग की रिपोर्ट ठंडे बस्ते में चली गई.

2004 से 2014 तक देश की सत्ता में रही मनमोहन सिंह सरकार ने इस दिशा में कोई काम नहीं किया. लेकिन 2014 में मोदी सरकार ने आते ही प्राथमिकता से कॉलेजियम व्यवस्था को समाप्त करके इसकी जगह एनजेएसी के गठन का मन बनाया. इसके लिए संविधान में संशोधन भी जल्द ही कर लिया गया और संसद के दोनों सदनों के साथ ही देश भर के 20 राज्यों ने एनजेएसी को पास कर दिया.

एनजेएसी छह सदस्यों का एक आयोग था जिसका अध्यक्ष देश के मुख्य न्यायाधीश को होना था. इसके अलावा इस आयोग में सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश, देश के कानून मंत्री और दो ‘गणमान्य नागरिक’ शामिल थे. इन दो गणमान्य नागरिकों का चुनाव प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और मुख्य न्यायाधीश की एक समिति को करना था. एनजेएसी में यह भी व्यवस्था थी कि यदि इसके कोई भी दो सदस्य किसी नियुक्ति पर आपत्ति कर दें, तो वह नियुक्ति नहीं हो सकती थी.

एनजेएसी का गठन हो चुका था लेकिन इसकी पहली बैठक से पहले ही इसकी संवैधानिकता को चुनौती दे दी गई और सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया. इस फ़ैसले के साथ ही कॉलेजियम व्यवस्था फिर से लागू हो गई. लेकिन एनजेएसी को असंवैधानिक घोषित करने वाली पीठ में जस्टिस चेलमेश्वर भी शामिल थे जिन्होंने बहुमत से अलग फ़ैसला दिया था और जो इस पक्ष में थे कि एनजेएसी ही न्यायिक नियुक्तियों का सबसे अच्छा विकल्प है. उनके इस फ़ैसले की काफ़ी सराहना हुई थी और आज भी क़ानून के कई जानकार यह मानते हैं कि न्यायिक नियुक्तियों का स्थायी समाधान एनजेएसी में किए जाने वाले वही बदलाव हो सकते हैं जिनका ज़िक्र जस्टिस चेलमेश्वर ने अपने फ़ैसले में किया था.

जस्टिस एपी शाह ने हाल ही में अपने एक लेख में लिखा है कि “एनजेएसी को असंवैधानिक घोषित करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक नियुक्तियों में सुधार का एक बहुत बड़ा मौक़ा गंवा दिया.” इस लेख में उन्होंने लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट चाहता तो उस वक़्त एनजेएसी को कुछ बदलावों के साथ स्वीकार कर सकता था जिससे न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता भी आती और न्यायिक स्वतंत्रता भी बनी रहती. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने एनजेएसी को संविधान सम्मत बनाने की बजाय इस पूरी व्यवस्था को ही ख़ारिज कर दिया. जस्टिस शाह इस लेख में यह भी कहा है कि हमें एनजेएसी में बदलावों के साथ अब इस व्यवस्था को अपना लेना चाहिए. ऐसे ही बदलावों की बात जस्टिस चेलमेश्वर ने भी कही थी.

एनजेएसी के पक्ष में अपना फ़ैसला देते हुए जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा था, “कार्यपालिका को नियुक्तियों से पूरी तरह अलग करना बेहद अतार्किक और लोकतंत्र की मूल भावनाओं के खिलाफ है. जितने भी लोकतांत्रिक देशों का अध्ययन हमारी संविधानसभा ने किया था, उनमें से कहीं भी कार्यपालिका को नियुक्तियों से इस तरह अलग नहीं रखा गया है.”

इस फ़ैसले में उन्होंने यह भी कहा, “न्यायिक शक्तियों सहित दुनिया की किसी भी शक्ति का दुरूपयोग संभव है. लेकिन इसका उपाय यह नहीं कि ऐसी शक्तियां देना ही बंद कर दिया जाए. उपाय यही है कि ऐसी शक्तियों के दुरूपयोग की संभावनाएं कम करने के बारे में विचार किया जाए और इसके लिए एक व्यवस्था बनाई जाए.”

जस्टिस चेलमेश्वर ने न्यायिक नियुक्तियों को बेहतर और पारदर्शी बनाने के लिए एनजेएसी में कुछ बदलाव भी सुझाए थे. मसलन उन्होंने कहा था कि चयन समिति में दो गणमान्य लोगों को शामिल करने का जो अधिकार सरकार के पास है उसे सरकार को न देकर यह किया जा सकता है कि कुल छह लोगों के नाम सुझाए जाएं और फिर सर्वोच्च न्यायालय के जज इन छह लोगों को वोट करें. जिन दो लोगों को सबसे ज्यादा वोट मिलें उन्हें एनजेएसी का सदस्य नियुक्त किया जाए. जस्टिस चेलामेश्वर का मानना था कि ऐसी व्यवस्था से चयन समिति की प्राथमिकता भी बनी रहेगी और किसी गलत व्यक्ति के चयन की संभावनाएं भी नगण्य हो जाएंगी.

ऐसे ही कुछ और बदलाव भी जस्टिस चेलमेश्वर ने सुझाए थे जिन पर विचार किया जाता तो आज न्यायिक नियुक्तियां ज़्यादा पारदर्शी हो सकती थी. लेकिन कॉलेजियम व्यवस्था जजों को अपने साथी जजों को नियुक्त करने का जो एकाधिकार देती है, उसका टूटना कई जजों को स्वीकार्य नहीं है. यही कारण है कि कॉलेजियम व्यवस्था की जगह एनजेएसी व्यवस्था को लागू करने के पक्ष में अक्सर जज नहीं रहते. ऐसे में न्यायिक नियुक्तियों में हस्तक्षेप के आरोप भले ही सरकारों पर लगते हों लेकिन इन नियुक्तियों में अपारदर्शिता के लिए सरकार से ज़्यादा ख़ुद न्यायपालिका ही ज़िम्मेदार है.