Newslaundry Hindi
मेले का मकसद
हिंदी के एक कवि हैं- समाज और साहित्य की समस्याओं से वैसे ही ग्रस्त जैसे एक ज़िम्मेदार कवि को होना चाहिए. वह रात होते-होते जब बहुत बेचैन हो उठते हैं, तब इस समाज या कहें अपने फ़ोन-कॉन्टेक्ट में कुछ इस प्रकार के एक व्यक्ति की तलाश शुरू करते हैं, जिसके साथ वह अपनी सामाजिक और साहित्यिक व्याकुलताएं बांट सकें. लेकिन इस समय आस-पास जिस तरह की गतियां-दुर्गतियां हैं, उनमें बहुत सारी व्याकुलताएं व्यर्थ हो चुकी हैं. तब इसके नतीजे कुछ यों निकलते हैं कि कवि सिद्धार्थ से अपनी व्याकुलताएं बांटना चाहता है, लेकिन कॉल ग़लती से सिद्धांत को लग जाती है, इस पर कवि कहता है कि ख़ैर कोई बात नहीं, अब तुम ही सुनो…
दिल्ली के प्रगति मैदान में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ का नया नाम) के मार्फ़त आयोजित विश्व पुस्तक मेला-2019 का रविवार को समापन हो गया. 5 से 13 जनवरी की अवधि में संपन्न हुए इस पुस्तक मेले में युवाओं की ख़ासी संख्या और भागीदारी रही. इस बार 700 प्रकाशकों ने लगभग 1350 बुक स्टॉल लगाए और मेले की थीम रही—‘रीडर्स विद स्पेशल नीड्स’. शारजाह बतौर ‘अतिथि देश’ इस दफ़ा मेले का हिस्सा रहा.
प्रगति मैदान से कुछ दूर मंडी हाउस का गोल चक्कर. जहां से भगवानदास रोड, कॉपरनिकस मार्ग, फ़िरोज़शाह रोड, बाराखंभा रोड, तानसेन मार्ग और सफ़दर हाशमी मार्ग जैसे सांस्कृतिक रास्ते मुड़ते हैं; कई वर्षों से विश्व पुस्तक मेले के प्रचार की जगह रहा है. लेकिन इस बार इस जगह पर विश्व पुस्तक मेला के नहीं, कुंभ मेला और अयोध्या पर्व के होर्डिंग्स-पोस्टर लगे नज़र आए. जबकि इन होर्डिंग्स-पोस्टर से अलग विश्व पुस्तक मेले के अंदर गए सालों के अनुपात में हिंदूवादी उत्तेजना शिथिल दिखाई दी.
इस समय प्रगति मैदान में निर्माण-कार्य के सिलसिले में तोड़-फोड़-जोड़ के दृश्य हैं, वहां कुछ विशाल बन रहा है जो शायद विश्व पुस्तक मेले को लील जाएगा, इस प्रकार की चर्चाएं और शंकाएं हैं. इस बीच अब यह बहुत साफ़ है कि ‘पुस्तक संस्कृति’ नाम की पत्रिका निकालने वाला राष्ट्रीय पुस्तक न्यास यह मेला पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए नहीं, बल्कि स्टॉल्स के ज़रिये होने वाली भारी आमदनी के लिए आयोजित करता है. प्रकाशकों-लेखकों के बयान और किताबों की बढ़ती क़ीमतें इसका प्रमाण हैं.
बहरहाल, शुरू होने से पहले ही सिमटे हुए नज़र आए इस वर्ष के पुस्तक मेले के गए वर्ष की भांति ही तीन प्रमुख विभाग रहे- प्रकाशन, लोकार्पण, तस्वीरें. लोकार्पण की भयावहता का अंदाज़ इस दारुण दृश्य से लगाया जा सकता है कि हॉल नंबर आठ के सेमिनार कक्ष में रज़ा फ़ाउंडेशन के सहयोग से राजकमल, वाणी और नई किताब से प्रकाशित 40 से अधिक पुस्तकों के लोकार्पण में 40 जन भी नहीं थे.
प्रकाशन, लोकार्पण और तस्वीरों के साथ-साथ मेले के पक्ष में एक तर्क यह भी फैलाया जाता है कि यह मिलने-जुलने का मौक़ा भी है, इस पर यह कहते हुए अफ़सोस होता है कि यह मौक़ा गंवा दिया गया है. इस बार मेले में देखा-देखी और हाय-हेलो से आगे कुछ जाता हुआ नज़र नहीं आया. इसके लिए मेला-स्थल से बाहर निकलना पड़ा; क्योंकि मेले में सहूलियत से मिलने, बैठने और बतियाने की कोई जगह इस बार थी ही नहीं. चाय जैसी सामान्य तलब के लिए भी बहुत संघर्ष की ज़रूरत बनी रही.
इस तरह सब भीड़ से निकलकर भीड़ में खो जाते दिखे. अलबत्ता बहुत परिचित और आत्मीय-सा एक कुत्ता हॉल नंबर 12ए में बार-बार दिख जाता रहा- मेलाघुमनियों के मनोरंजन के केंद्र में, अपनी मूल आदतें भूल चुका- भ्रमित-सा.
इस अर्थ में देखें तो यह मेला उनका नहीं रहा जिनकी किताबें आईं या जिनकी किताबों पर चर्चा हुई या जिनकी किताबें आने की घोषणा हुई, यह मेला उनका रहा जिन्हें उनके मन की किताबें मिल गईं.
यहां आकर हिंदी साहित्य के लिहाज़ से देखें तो विश्व पुस्तक मेला एक ख़ौफ़नाक जगह है. वह क़रीब क़रीब क़त्लगाह है. वह इस बात की तस्दीक़ करता है कि हिंदी में प्रकाशित हो रही किताबों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन उनकी उम्र कम होती जा रही है. वे प्रकाशित होकर बस कुछ रोज़ ज़िंदा रहती हैं, कुछ लोकार्पित होते ही मर जाती हैं. अगर लोकार्पण सुबह हुआ तो वे शाम को मर जाती हैं और अगर शाम को हुआ तो सुबह.
सब कुछ एक व्यावसायिक बुद्धि से संचालित है और पूरा व्यवसाय बुद्धि-विरोध से. यह यों ही नहीं है कि सबसे प्रतिष्ठित प्रकाशन समूह इस दौर के सबसे निकृष्ट कवि के लिए मंच और मुद्रण की व्यवस्था कर रहा है.
बक़ौल संजय चतुर्वेदी:
“कैसा ये बड़ा दौर गुटुरगूं का चल पड़ा
हमने कबूतरों को महाकवि बना दिया
चालाक लोमड़ी को दिया मर्तबा अज़ीम
हर्राफ़ जोकरों को महाकवि बना दिया.”
निकृष्टताएं ही अब लोकप्रिय और सहज सुलभ हैं; उनकी क़तारें, उनकी सीमाएं, उनकी शक्तियां और अंततः उनकी पराजय देखने की सही जगह सिर्फ़ और सिर्फ़ विश्व पुस्तक मेला है, जहां से बहुत दूर एक ज़िम्मेदार कवि सिद्धार्थ से अपनी व्याकुलताएं बांटना चाहता है, लेकिन कॉल ग़लती से सिद्धांत को लग जाती है और यह बात कितनी अजीब है कि इससे किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता- न सुनने वाले को, न सुनाने वाले को.
Also Read
-
Gurugram’s waste crisis worsens as garbage collection stalls
-
Two years on, ‘peace’ in Gaza is at the price of dignity and freedom
-
4 ml of poison, four times a day: Inside the Coldrif tragedy that claimed 17 children
-
Delhi shut its thermal plants, but chokes from neighbouring ones
-
Hafta x South Central feat. Josy Joseph: A crossover episode on the future of media