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बिन रोजगार आरक्षण के क्या मायने?
सोमवार को कैबिनेट चर्चा के दौरान, अनारक्षित वर्ग को आर्थिक आधार पर 10% आरक्षण दिये जाने का फैसला हुआ. बुधवार तक संसद के दोनों सदनों में इसे पारित भी करवा लिया गया. इसे लेकर, सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया चलती रही, कुछ प्रतिक्रियाएं ऐसी भी थी की हिन्दू सवर्णों को ही आरक्षण का लाभ मिलने जा रहा है.
खैर, ये केवल सवर्णों का आरक्षण ही नही हुआ है, बल्कि इसे अनारक्षित वर्ग में आर्थिक आधार पर प्रस्तावित पहला जातिहीन आधारित आरक्षण कहना चाहिये. जिसकी परिधि में 26% सवर्ण हिंदुओं के अलावा, 60% मुसलमान, 33% ईसाई, 46% सिखों, 94% जैन, 2% बौद्ध, और 70% यहूदियों के वंचित समाज को इसका लाभ मिलेगा. इसमें भी मुस्लिमों को जिनकी वास्तविक आय स्थिति विभिन्न सम्प्रदायों में सबसे बदतर है, सीधे-2 इसका सबसे ज्यादा लाभ मिलेगा.
यही कारण है कि पूर्व में कांग्रेस से लेकर, सीपीआईएम, यहां तक की रामविलास पासवान तक आर्थिक आधार पर अनारक्षित वर्ग में आरक्षण के पक्षधर रहे है. लेकिन बड़ा प्रश्न है कि बिना रोजगार के आरक्षण का होगा क्या?
एक सर्वे में बताया गया की लाखों नौकरियां खत्म कर दी गई है, और जब नौकरियां रहेंगी ही नहीं तो आरक्षण का इस्तेमाल कहां होगा? फिर भी आशावादी होना अच्छा है, मान लेते है कि आर्थिक वंचितों को आरक्षण के साथ-2 नई नौकरियां भी आयेंगी, लोगों को आरक्षण का लाभ लेने हेतु अंततः सरकार रोजगार के कुछ अवसर भी लाएगी.
अभी पिछले हफ्ते की ही बात है जब दिल्ली में टाइम्स ऑफ इंडिया के पूर्व वरिष्ठ पत्रकार संग चर्चा में उन्होंने यही कहा कि मोदीजी का चुनावी कार्ड अभी आना बाकी है, मुझे लगा शायद वे किसानों के लिये कुछ ऐसा करें जो कर्जमाफी की रस्मअदायगी से कुछ ज्यादा हो.
फिलहाल तर्क ये दिया जा रहा है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण की अद्वितीय पहल है. सर्वप्रथम, ये आर्थिक आधार पर जातिविहीन समाज का पहला प्रयास तो है, लेकिन जातिगत आरक्षण का पहला प्रयास नही है. आर्थिक आधार पर आरक्षण का पहला प्रयास ओबीसी ग्रुप पर किया गया था, जहां क्रीमी लेयर को आरक्षण के लाभ से बाहर रखने का प्रावधान आया. लेकिन परिणाम ये हुआ की फ़र्जी आय प्रमाण पत्र के साथ कुछ “क्रीमीलेयर” वाले भी पिछड़े होकर, आरक्षण की लाइन में लग गए, और आर्थिक आधार पर रिजर्वेशन पर तरह-तरह के तर्क दिये जाने लगे. गरीब पिछड़ों के लिए दिए गए आरक्षण पर इन्हीं तर्कों या फिर कुतर्कों के साथ, क्रीमीलेयर के लोग वंचितों का हक़ मारने लगे.
अब सरकार ओबीसी आरक्षण का यही फार्मूला अनारक्षित वर्ग, जिसे सामान्य वर्ग भी कहते है, के ऊपर यही प्रयोग करने का मन बना रही है. हालांकि ये भी सच है कि पूर्व में ओबीसी को दिए गए आरक्षण का आधार सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन था, तथा बाद में उसमें 8 लाख का स्लैब लगाकर आर्थिक आधार जोड़ा गया.
आरक्षित वर्ग की जो शर्तें तय की गई है, वो करीब-करीब ओबीसी क्रीमी लेयर के लिए तय शर्तों की तरह ही है. जहां 8 लाख वार्षिक आय का एक स्लैब फिक्स किया गया है.
सरकार के गरीबी के आंकड़े भी जबरदस्त है, कभी 90 हज़ार महीने कमाने वाले को गरीब समझा जाता है, और 4 लाख तक के व्यक्ति से कोई अपरोक्ष कर नही लिया जाता, और एक तरफ अब 8 लाख सालाना आय तक के व्यक्ति को गरीब समझा जाता है.
एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की 70% आबादी 50 हजार से 4.5 लाख वार्षिक आय पर गुजारा करती है, यानि 105 करोड़ लोग गरीबी रेखा के दायरे में आते थे, अब 8 लाख वाले स्लैब को लेकर अनुमानतः ये आंकड़ा 130 करोड़ के आसपास बैठेगा, यानी कुल 5 या 7 करोड़ लोगो ही देश में ऐसे हैं जो फ़िलहाल आरक्षण की श्रेणी से खुद को बाहर कह सकते हैं.
आईडीएफसी और इंडियन रूरल डेवलपमेंट की रिपोर्ट के अनुसार भारत के गांवों में खेतिहर सहित अन्य जमीनों की जातिगत सेंसस रिपोर्ट क्या कहती है? इंडियन रूरल डेवलपमेंट रिपोर्ट 2013-14 की माने तो देश की जाति आधारित गांवों की जमीन के बंटवारे में ओबीसी के पास 44.2% ज़मीन, जबकि अनुसूचित जाति के पास 20.9%, अनुसूचित जनजाति के पास 11.2% जमीन जबकिं विभिन्न सम्प्रदायो, धर्मो के सामान्य सहित अन्यों के पास 23.7% जमीन प्राकृतिक संसाधनों के रूप में अधिग्रहित है.
जबकि धार्मिक आधार पर देश की 85% जमीन हिंदुओं, 11% मुस्लिमों, शेष 4% अन्य धर्मावलंबियों के पास है.
ये भी वाकई दिलचस्प आंकड़ा है कि यदि आरक्षण वर्ग में 10% आरक्षण को स्वीकृति मिली है तब देश में कितने प्रतिशत लोगों को आरक्षण नही मिल रहा होगा. कुछ 95% बता रहे, तो कुछ 98%, लेकिन इसके सही आकड़े क्या हो सकते हैं?
इनकम टैक्स के आकड़ों के अनुसार देश में .91% ऐसे लोग है, जिनकी आमदनी 10 लाख़ वार्षिक से ज्यादा है. ये आंकड़े 2 साल पुराने हैं, और यदि 8 लाख वाले लोगों की संख्या का अनुमान लगाये तो बमुश्किल 2% के आसपास ऐसे लोग हैं. हिन्दू धर्म से विभिन्न धर्मों में धर्मपरिवर्तन किये हुये लोगो को आरक्षण का लाभ नही मिलता है. और चूंकि हमारे यहां संवैधानिक रूप से ऐसा प्रावधान है कि आप धर्म तो बदल सकते लेकिन जाति नही.
चूंकि इस्लाम में दलित वर्ग जैसा कोई प्रावधान आधिकारिक रूप से नहीं है, लेकिन पिछले सेंसस के सरकारी आकड़ों से उनमे भी 0.8% सामाजिक दलित वर्ग के लोग है, जिसका अर्थ है कि ये सभी लोग हिन्दू धर्म से धर्म परिवर्तन करके गये है, और जिनकी वर्तमान में संख्या 17 लाख़ होगी.
बुद्ध, ईसाई में तो पिछड़ा जैसा भी कोई वर्ग नही होता. उन्हें भी आरक्षण नही मिलता है. 84 लाख बुद्धिस्ट में से 75 लाख बिना आरक्षण वाले है, जबकि 2.8 करोड़ ईसाइयों में से 66% धर्म परिवर्तित करके गये है, यानि 1.9 करोड़ भी आरक्षण का लाभ नही पाते हैं.
सभी आकड़ों को जोड़े तो कुल मिलाकर 5 करोड़ 61 लाख लोग ऐसे है जिन्हें अपरोक्ष रूप से आरक्षण अब नही मिलेगा, वैसे काफी ऐसे भी लोग है जो सामान्य से भी अन्य धर्मो में धर्मांतरण करके गए हैं. जिनकी गणना फ़िलहाल असंभव है, लेकिन एक अनुमान के अनुसार इनकी संख्या 0.5 से 1% तक हो सकती है. यानि देश में अभी केवल 4% लोगों को ही आरक्षण नही मिल रहा है.
वैसे इस बात की भी क्या गारंटी है कि ओबीसी की तरह ही, कोई अनारक्षित वर्ग का व्यक्ति फ़र्जी आय प्रमाण पत्र बनवाकर आरक्षण की लाइन में लग कर वंचितों का हक ना मार ले?
जिस देश में बिना लोन लिये लिये हुये किसान का कर्ज माफ कर दिया जाता है, और लोन लेने वाला फांसी पर लटक जाता है, जहां किसान और नौजवानों की याद केवल चुनावी मौसम में आती है, जहां लोग भगवान तक की जाति तय करने लगते है, वहां तो कुछ भी हो सकता है.
विडम्बना देखिये, जो बहुसंख्यक सामान्य वर्ग अभी तक आरक्षण का विरोध करता था, वे भी अब इन चुनावी मनोहर वाक्यों पर खुश हो रहा है, और नव अम्बेडकर जैसी उपमायें दे रहा है.
ये तर्क तो सही है कि जातिविहीन समाज में ग़ैरबराबरी तब दूर होगी, जब बिना जातिगत, धार्मिक, सम्प्रदायिक भेदभाव के वंचितों तक जरुरी सुविधा का लाभ पहुंचे.
मान भी ले की सरकार की नीयत चुनावी जलेबी तक सीमित नही है, तो भी सामान्य को आर्थिक आधार पर 10% आरक्षण मूल रूप से फ़िलहाल केवल चुनावी जुमला ही प्रतीत होता है, इसके मूल कारण हैं:
1- आरक्षण को किसी भी सूरत में 50% से ज्यादा करने की मनाही है, ऐसे में सुप्रीम कोर्ट आदेश को रद्द कर सकती है.
2- कुछ ऐसा ही जुमला हार्दिक पटेल ने कांग्रेस के समर्थन से गुजरात विधानसभा चुनाव में फेंका था, जिसपर भाजपा नेताओं की प्रतिक्रिया रही की किसी भी कीमत पर आरक्षण 50% से ज्यादा का हो ही नही सकता, ऐसे में भाजपा नेताओं की अब की प्रतिक्रिया की तुलना की जा सकती है.
3- सवर्ण आरक्षण ऐसा मुद्दा है, जिसपर बहुसंख्यक राष्ट्रीय दल खुलकर भले ही विरोध ना करें लेकिन जातिगत राजनीति पर आधारित ख़ासकर छत्रपों का खुलकर समर्थन मिलना भी मुश्किल ही है.
4- यदि सबकुछ सकारात्मक रहा भी, और यदि कुछ राज्यों के तर्ज पर केंद्र में भी 50% से ज्यादा का आरक्षण लागू हो गया, तो इससे एक बात तय हो जायेगी की देश के संसाधनों में वंचितों का प्रतिनिधित्व 60% होगा, जबकि योग्यता की तर्ज पर प्रतिनिधित्व करने वालों की संख्या केवल 40% ही होगी.
मेरे विचार से जातिगत आरक्षण से कभी भी वंचितों की पूर्ण समस्या हल नही हो पाती है. कारण भारत जैसे देश में जुगाड़ टेक्नोलॉजी सबसे हावी है, और जुगाड़ भी उन्हीं के पास सहज उपलब्ध है जो सक्षम हैं, संसाधनयुक्त हैं. ऐसे में उनके पास इस भ्रष्ट तंत्र में सुविधाओं को पाने के सदैव ज्यादा अवसर होते हैं. और ये संसाधनयुक्त लोग हर जाति, सम्प्रदाय, वर्ग में है, जबकि वंचितों तक सुविधाओं के पाने हेतु प्राकृतिक ढांचे का ही अभाव रहता है.
विभिन्न जातियों के बहुसंख्यक वंचित सुविधा लेने की स्थिति तक भी नही पहुंच पाते हैं. जातिगत आरक्षण उन वर्गों के लिए तो ठीक है जो वाकई पिछड़े हैं. लेकिन जहां गैरबराबरी की रेखा एकदम महीन है, वहां इसका लाभ वंचितों तक पहुंचना मुश्किल है. और इसकी परिधि पीढ़ी दर पीढ़ी कुछ समूह विशेष तक सीमित हो जाती है. जो की किसी भी तरह के आरक्षण के मूल सिद्धांतो के विपरीत है.
भारत जैसे देश में जहां मूल समस्या संसाधनों के असमान बंटवारे की है, इंडिकापोस्ट और गिन्नी रिपोर्ट के आंकड़ों की माने तो एक वक्त 1922 में जब ब्रिटिश राज था, तब के आंकड़े कहते थे कि 1% आबादी 22% सम्पत्ति पर कब्ज़ा जमाये बैठी है. इनमें अंग्रेज व्यापारी भी थे, फिर एक दौर नेहरू की सोशलिस्ट नीतियों से लेकर इमरजेंसी का भी आया जब 1980 तक शीर्ष 1% आमिर आबादी के पास सिर्फ 6% संसाधनों की जागीर थी. अब 2019 का दौर है जहां शीर्ष 1% से भी कम आबादी का 40% से भी ज्यादा संसाधनों पर कब्जा है. इन आंकड़ों का सबसे दुखदाई पक्ष ये है कि लगभग 70 करोड़ जनसंख्या यानि देश की 50% आबादी के पास देश के 10% से भी कम संसाधन मौजूद हैं. इनमें विभिन्न जातियों, वर्गों, धर्मो, समूहों के लोग हैं.
असली चुनौती इन्हीं समस्याओं से निपटने की है, लेकिन ऐसा लगता है कि फिलहाल राजनैतिक दलों के लिये सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण अपने चुनावी समीकरण को मजबूत करना है. ‘ब्रिटिश राज’ से आजाद हुआ देश, आज ‘बिलेयनेयर राज’ का गुलाम बनता जा रहा है, और राजनैतिक दल लोगों को चुनावी जुमलों से फुसलाने में लगे हैं. ‘फ़्रीबीज’, की राजनीति अक्सर नाकामियों को छुपाने के लिये की जाती है. फिर भी अगर आर्थिक आधार पर राजनीति को वंचितों की नई पहल मान लें तो भी बिना नौकरियों के इसका प्रभाव कितना होगा?
अगर वाकई सरकार वंचित तबके तक सुविधा का लाभ पहुंचाना चाहती है तो कम से कम उसे नौकरियों के सृजन पर ध्यान देना चाहिए.
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