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सियासत का कुंभ: हिंदू आस्था में हिंदू अस्मिता का संगम
इलाहाबाद (मौजूदा प्रयागराज) के मूलतः दो यथार्थ हैं. एक है पूरब का ऑक्सफ़ोर्ड कहा जाने वाला इलाहाबाद विश्वविद्यालय और उसकी बमबाज़ी. इस इलाहाबादी बमबाजी में कुछ देर के लिए विश्वविद्यालय और कचहरी के आसपास का इलाक़ा जाम हो जाता था जब दो गुटों के बीच देसी बम चला करते थे. इसे मजाक में इलाहाबादी अमरूद भी कहा जाता है. आसपास से गुज़रने वालों को लोगों को यह कहकर रोक देते थे कि आगे न जाएं, उधर “सांस्कृतिक कार्यक्रम” चल रहा है. गुटों के सदस्यों के कान उड़ जाते थे, ऊंगली उखड़ जाती थी और कभी-कभार पूरा “कार्यक्रम” हो जाता था.
इलाहाबाद का दूसरा यथार्थ है गंगा-यमुना का ‘संगम’ और यहां हर छह साल पर लगने वाला अर्धकुंभ, बारह सालों पर लगने वाला महाकुंभ और हर साल माघ मेला. ममफोर्डगंज के पास रहने वाले दिनेश कुमार सोनकर अब इलेक्ट्रिक ऑटो चलाते हैं. उन्होंने इलाहाबाद के इन दोनों ही यथार्थों को जिया है. दिनेश कुमार सोनकर ख़ुद ही बताते हैं, “हम अब अपने गांव नहीं जाते. पोस्टर चिपकाने की लड़ाई में अपने किराएदार को बम मार दिए थे. मरा या नहीं, नहीं पता, लेकिन पता करने की हिम्मत भी नहीं हुई. तब से यहीं हैं और हर साल का माघ मेला घूमते हैं और घुमाते हैं.”
अब इलाहाबाद का नाम ‘प्रयागराज’ हो गया है. बमबाजी अब तेजी से लुप्त हो रही ‘सांस्कृतिक विरासत’ है. और सरकार ने कुम्भ के नाम पर बेधड़क ऐसा भ्रम फैलाया है कि अब कुछ लोग यह सोचकर परेशान हैं कि 2019 में अर्धकुंभ का आयोजन किया जा रहा है या महाकुंभ का. इलाहाबाद में रहकर तैयारी करने वाले छात्र आपस में मज़ाक करते मिलते हैं कि अगर किसी परीक्षा में प्रश्न आ जाए कि 2019 में इलाहाबाद में किस कुम्भ का आयोजन हो रहा है तो कई लोग चक्कर में पड़ जाएंगे.
दिनेश कुमार सोनकर इलाहाबादी में बोलते हैं, “गज्जब कनफ़्यूजन कर दिहिस है. क्या प्रयाग है और क्या प्रयागराज? क्या कुंभ है और क्या महाकुंभ? किसी को कुछ मालुमै नै.”
इलाहाबाद इस समय अपने इतिहास के सबसे बड़े बदलावों से गुजर रहा है. “प्रयागराज” नाम के साथ-साथ इस शहर को भारतीय जनता पार्टी ने एक नई पहचान भी दी है. वह पहचान तीन राज्यों- मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हुई भाजपा की हार से जुड़ी हुई है. इन तीन राज्यों में हार के बाद अब भाजपा ने अपने चिरपरिचित हिन्दू वोटबैंक की ओर पूरी ताकत से रुख किया है. इस वोटबैंक को साधने के लिए कुंभ पर्व का सहारा लिया जा रहा है.
इलाहाबाद / प्रयागराज का नज़ारा बदला हुआ है. शहर की कई सड़कें चौड़ी की गयी हैं, चौराहों को बड़ा किया गया है, उनका सुंदरीकरण किया गया है. कई दीवारों, भवनों और चारदीवारियों पर रंग-बिरंगे चित्र बनाए गए हैं. यहां तक कि झूंसी के शास्त्री पुल के खम्भों पर भी यूं ही चित्र बने हुए हैं. कई जगह नयी लाइटें लगी हुई हैं.
संगम पर मेलों के दौरान लोहे के ख़ाली पीपों के पुल बनाए जाते हैं. कई पीपे वक़्त बीतने के साथ जर्जर हो जाते हैं और पंक्चर हो जाते हैं. प्रदेश सरकार के आदेश के बाद इन ख़राब पीपों को इलाहाबाद में सड़क के किनारों पर लगाया जा रहा है, जिससे इलाहाबाद बतौर “संगम-नगरी” पहचाना जा सके.
इलाहाबाद के मशहूर मनोहर दास नेत्र चिकित्सालय में टेक्नीशियन के पद पर कार्यरत अजीत चित्रामसी कहते हैं, “इलाहाबाद में बहुत कुछ हो रहा है. ये सब बदलाव होने के बाद इलाहाबाद में बहुत कुछ बदल जाएगा. मुझे तो लगता है कि इलाहाबाद देखने लायक शहर होगा तब.”
लेकिन अजीत चित्रामसी की समझ इस दिशा में साफ़ है कि ऐसा चुनावों के मद्देनज़र किया जा रहा है. वे कहते हैं, “पार्टी तो फ़ायदा उठाना ही चाह रही है. पहले शहर का नाम इलाहाबाद था, अभी भी हम लोग इलाहाबाद के ही नाम से जानते हैं. ऐसा तो था नहीं कि ‘इलाहाबाद’ बोलने-सुनने में ऐसा लगता था कि किसी मुस्लिम शहर में रह रहे हों, या उसके बारे में बात कर रहे हों. जब से नाम ‘प्रयागराज’ हुआ है, तब से लोग इसे हिंदू अस्मिता और गर्व से जोड़कर देख रहे हैं. और इसका फ़ायदा किसे मिलेगा, ये भी आप जान रहे हैं.”
इलाहाबाद के निवासियों के लिए कुंभ का नया हिसाब-किताब समझ के थोड़ा बाहर है. इस शहर ने सदियों के दौरान अनगिनत महाकुंभ और अर्धकुंभ देखे हैं. आख़िरी महाकुंभ 2012-13 में संपन्न हुआ था, जिसकी व्यवस्था समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव की तत्कालीन सरकार ने की थी. लेकिन उसके ठीक छह साल बाद पड़ रहे इस अर्धकुंभ के पोस्टरों में से “अर्ध” ग़ायब है और इसे “कुंभ” कहकर मनाया जा रहा है.
पहली बार प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इतनी सक्रियता दिखा रहे हैं. अख़बारों-पोस्टरों में कुंभ में विज्ञापन बहुत प्रमुखता से छापे जा रहे हैं. दिसम्बर में इलाहाबाद आए नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में इसे “अर्धकुंभ” तो कहा, लेकिन योगी आदित्यनाथ अपने कई वक्तव्यों में इसे “महाकुंभ” या “कुंभ” ही कहते चले आ रहे हैं. योगी चूंकि एक संत परंपरा से भी जुड़े हुए हैं इसलिए उनका इसे कुंभ या महाकुंभ कहना सोची-समझी रणनीति का हिस्सा लगता है. इलाहाबाद में यह मज़ाक भी आम हो गया है कि नाम बदलने की ख़ब्त में योगी ने कुंभ पर्व का ही नामकरण कर दिया है.
लेकिन यह भी तय है कि योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में चल रहे इस कलेवर परिवर्तन से उनका वोटबैंक कुछ-कुछ सधता हुआ नज़र आ रहा है. संगम पर मेले के पहले जुटने वाली भीड़ को यह इल्म है कि भले ही कुछ न हो, लेकिन इस नामकरण और कुंभ में पैसों की बारिश से हिंदू अस्मिता का प्रचार-प्रसार हो रहा है.
सतीश कुमार मिश्रा इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकील हैं. संगम में अपने परिवार के साथ आए सतीश कुमार मिश्र कहते हैं कि शहर का नाम बदलने के पीछे जो भी कारण हों, लेकिन शहर को उसकी पुरानी पहचान वापिस मिल गयी है. वे कहते हैं, “जिसको देखिए, वही अल्पसंख्यकों को साधने पर तुला रहता है. बहुसंख्यकों की भावनाओं का ख़याल किसी को तो करना होगा. कोई और करता, इससे पहले योगी-मोदी ने ही इस कार्य को पूरा करने की ज़रूरत समझी.”
वे आगे कहते हैं, “देश में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन उसमें सबसे अधिक दिक़्क़त लोगों को तभी होती है जब हिंदुओं के हित में कुछ होता है. ऐसा क्यों?” यह पूछने पर कि “इलाहाबाद” का नाम “प्रयागराज” कर देने से हिंदू समुदाय का कौन-सा हित होता है, सतीश कुमार मिश्रा बातें घुमाने लगते हैं, “…आप बात पकड़कर ही बैठ गए. अस्मिता भी कोई चीज़ होती है या नहीं.”
असल में इलाहाबाद का नाम प्रयागराज करके योगी आदित्यनाथ ने हिंदू अस्मिता को भले ही संबोधित ना किया हो, लेकिन यह तय है कि वे संतों-पंडों की परंपरा में भरपूर भरोसा रखते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि अखाड़िया संतों के साथ-साथ बिना अखाड़ों के संतों-महंतों-साधुओं के बीच इलाहाबाद बहुत पहले से ही ‘प्रयाग’ के नाम से जाना जाता है.
इलाहाबाद से सटे हुए करछना के रहने वाले राम सजीवन दास वैसे तो भ्रमण करते रहते हैं, लेकिन कुंभ और माघ मेलों के दौरान संगम क्षेत्र में ही उनकी रिहाईश जमती है. बातचीत के दौरान वे एक बार भी “इलाहाबाद” शब्द मुंह से नहीं निकालते. इस शहर को वे लगातार “प्रयाग” कहते रहते हैं. कारण पूछने पर वे कहते हैं, “हम लोग तो लम्बे समय से इसे प्रयाग ही जानते आ रहे हैं. इलाहाबाद कहना या प्रयागराज नामकरण कर देना तो नयी नौटंकी है, प्रयाग तो हम लम्बे समय से जानते रहे हैं.”
संतों के लिए भी 2019 का कुंभ एक नए नखरे की तरह है. इसमें इतनी राजनीति और भाजपा का चुनावी एजेंडा पहली बार शामिल दिख रहा है. राम सजीवन दास ही कहते हैं, “इतनी नौटंकी पहले तो कभी नहीं देखे. जहां देखो वहां प्रचार का पोस्टर टांग दिया गया है. लग रहा है कि अगले ही महीने चुनाव होने जा रहा है.”
बीते साल राजस्थान, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, तेलंगाना और मिज़ोरम में चुनावों के ठीक पहले भाजपा ने अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन को एक नया रूप दिया था. 25 नवम्बर को अयोध्या में विश्व हिंदू परिषद के बैनर तले एक विराट आंदोलन का आयोजन किया गया था, जिसका उद्देश्य राम मंदिर के निर्माण के लिए प्रदर्शन करना था. साथ ही साथ 25 नवम्बर के बाद भी भाजपा, विहिप, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इनके तमाम संगठनों ने कई तरीक़ों से दिल्ली में केंद्र सरकार के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ़ प्रदर्शन किया ताकि अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए बतकही तेज़ हो सके. संघ में मौजूद सूत्रों की माने तो इस आंदोलन का प्रमुख उद्देश्य मध्य प्रदेश और राजस्थान के हिंदू वोटरों को भाजपा के पक्ष में एकजुट करना था.
लेकिन चुनाव परिणाम में भाजपा राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में अपनी सरकार गंवा बैठी, और हिंदू वोटरों पर कोई ख़ास असर देखने को नहीं मिला. इसी दौरान योगी आदित्यनाथ, जो भाजपा के स्टार प्रचारक भी हैं, ने कुंभ को एक औजार की तरह इस्तेमाल करने का तरीक़ा निकाल लिया. प्रदेश के अख़बारों में योगी आदित्यनाथ के चेहरे के साथ विज्ञापन आने लगे कि कुंभ को लेकर क्या तैयारियां हो रही हैं? मसलन, इलाहाबाद आने वाली बसों के किरायों में कटौती करना और सभी को रहने और कुंभ का “आनंद” लेने की सुविधा मुहैया कराना आदि.
विधानसभा चुनावों के परिणाम आने के साथ ही यह साफ़ हो गया कि भाजपा समर्थित राम मंदिर की रणनीति कोई कमाल नहीं दिखा सकी. तो योगी आदित्यनाथ और भाजपा के कुंभ एजेंडे ने अपना रास्ता अख़्तियार किया. इलाहाबाद शहर का माहौल देखें तो लगता है कि 15 जनवरी से 4 मार्च तक चलने वाले कुंभ में भाजपा हिंदू आस्था को बतौर चुनावी एजेंडा इस्तेमाल करने के लिए लालायित है.
कुंभ में जगह- जगह राम मंदिर के निर्माण के लिए “भाईयों को जगाने” वाले पोस्टर लगे हुए हैं. स्थानीय लोगों की मानें तो कई अखाड़ों के तंबू-शिविर पिछली बार से ज़्यादा भव्य बनाए गए हैं. स्वामी नरेंद्राचार्य की ओर से पूरे मेला क्षेत्र में लगाए गए इस आशय के बड़े-बड़े पोस्टर इलाहाबाद में चर्चा में हैं.
कुंभ की तैयारी में इलाहाबाद को प्रयागराज की तरह तैयार किया जा रहा है. सड़कें चौड़ी की जा रही हैं. उन्हें फिर से बनाया जा रहा है. चूंकि अभी इक्का-दुक्का जगहों पर ही “प्रयागराज” लिखा दिखायी दे रहा, इसलिए अधिकतर जगहों पर ‘प्रयागराज में आपका स्वागत है’ के फ्लेक्स रखे जा रहे हैं. भवनों-मकानों की दीवारों पर रंगीन चित्र बनाए जा रहे हैं. संगम तक कई गाड़ियां जा सकें इसलिए पेड़ काटे जा रहे हैं. संगम पहुंचने के दौरान हमें एक पेड़ आरे से काटा जाता हुआ दिखायी दिया. पेड़ की कटाई को काफ़ी लोग खड़े होकर देख रहे थे, जब हमने तस्वीर लेने की कोशिश की तो वहीं मौजूद ठेकेदार ने रोकने की कोशिश की, लेकिन नाम-परिचय पूछने पर उक्त ठेकेदार वहां से किनारे हट गया.
बाद में स्थानीय लोगों से बातचीत में पता चला कि जिस पेड़ को काटा जा रहा था, वह “घंटहा” पेड़ के नाम से इलाहाबाद में मशहूर था, जिस पर अंतिम संस्कार के बाद घंट बांधे जाते थे. पेड़ की कटाई स्थल के पास ही मौजूद राजेश अग्रहरी कहते हैं, “पूरा इलाहाबाद उलट दिए हैं ये लोग. हम लोग कुंभ के नाम पर इतना बवाल पहली बार देख रहे हैं. हरा पेड़ काटने तक की नौबत आ गयी है.”
एक और नज़रिए से देखें तो कुंभ बस भाजपा के चुनाव प्रचार ही नहीं, बल्कि भाजपा की अंदरूनी लड़ाई को भी जीतने का एक बहुत बड़ा टूल साबित हो रहा है. प्रदेश भाजपा में योगी आदित्यनाथ उर्फ़ अजय सिंह बिष्ट और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या के बीच की खाई सर्वविदित है.
तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्या की अगुवाई में भाजपा ने 2017 विधानसभा चुनावों में शानदार जीत दर्ज की, लेकिन केशव प्रसाद मौर्या की संस्तुति को दरकिनार करते हुए भाजपा ने योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया. ऐसे में मौर्या और बिष्ट का संघर्ष और मुखर हो गया. यह संघर्ष तब और भी साफ़ हो गया, जब यह ख़बर आयी कि अपने लोकसभा क्षेत्र फूलपुर- जो इलाहाबाद का ही हिस्सा है- में 2018 में हुए उपचुनाव को जीतने के लिए केशव प्रसाद मौर्या ने बाहुबली अतीक अहमद को गुपचुप तरीक़े से समर्थन दिया, जिससे मुस्लिम वोटों के विभाजन का लाभ भाजपा को मिल सके. कहते हैं कि योगी आदित्यनाथ को यह रणनीति पसंद नहीं आयी.
कुंभ पर वापिस लौटें तो मौर्या ने कुंभ को संतों-महंतों से लॉबींग करने के हथियार की तरह इस्तेमाल किया है. कुंभ में कई प्रमुख अखाड़ों के शिविरों के आसपास मौर्या के बेटे योगेश मौर्या की भी तस्वीरें लगी हुई हैं. बीते साल फूलपुर सीट से योगेश मौर्या ख़ुद चुनाव लड़ना चाहते थे, लेकिन ऐसा संभव न हो सका. पार्टी में मौजूद सूत्र बताते हैं कि योगेश मौर्या इलाहाबाद को केंद्र बनाकर अपनी राजनीतिक-पारिवारिक सत्ता को साधना चाह रहे हैं. ऐसे में वे कुंभ में मौजूद संत समाज पर अपनी पकड़ बनाकर इलाहाबाद को एक गढ़ में तब्दील करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं, जिसमें योगी आदित्यनाथ की सत्ता किसी रूप में न शामिल है, और न ही आगे शायद होगी.
पार्टी के एक नेता बताते हैं, “आप कुंभ के तमाम विज्ञापन देख लीजिए. योगी आदित्यनाथ दिख जाएंगे, नरेंद्र मोदी दिख जाएंगे. यहां तक कि उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा भी दिख जाएंगे लेकिन बेहद कम जगहों पर केशव प्रसाद मौर्या को जगह दी गयी है.”
पार्टी के साथ-साथ कुंभ ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी अपना एजेंडा साधने की पृष्ठभूमि मुहैया करायी है. इस अर्धकुंभ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक नेत्र कुम्भ का आयोजन कर रहा है, जिसमें कुंभ की पूरी अवधि में आने वाले श्रद्धालुओं की आंखों की जांच मुफ़्त में की जाएगी. संघ के काशी प्रांत की इकाई में वाराणसी, इलाहाबाद, भदोही, मिर्ज़ापुर, चंदौली, बलिया समेत कई शहर आते हैं. अर्धकुंभ में समुचित सहयोग देने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी काशी प्रांत पर है.
काशी प्रांत के सह प्रांत प्रचारक मनोज कुमार बताते हैं, “संघ का सबसे बड़ा काम नेत्र कुंभ का है. इसमें हम प्रदेश और बाहर के बड़े अस्पतालों से नेत्र विशेषज्ञों को आमंत्रित कर रहे हैं और हम रोज़ाना औसतन दो हज़ार आंख के मरीजों का चेकअप करेंगे. इस तरह हम पचास दिनों के दौरान तक़रीबन एक लाख मरीज़ों की मुफ़्त में जांच करेंगे, उन्हें मुफ़्त में दवाएं दी जाएंगी और यही नहीं, सभी एक लाख मरीजों को मुफ़्त चश्मे भी बांटे जाएंगे.”
संघ के सूत्रों के अनुसार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पचास हज़ार से ज़्यादा स्वयंसेवक सादे वस्त्रों में व्यवस्था और बाक़ी सहायताओं के लिए तैनात कर रहा है. इसका प्रमुख उद्देश्य बिना संघ के गणवेश का प्रयोग किए हिंदू वोटर को रिझाना, उसकी मदद करना और केंद्र सरकार की उपलब्धियों से उसे परिचित करवाना है. इस तथ्य के बारे में पूछने पर मनोज कुमार कोई भी जवाब देने से इंकार कर देते हैं. लेकिन वे यह कहते हैं, “अब संघ की छत्रछाया में जो हिंदू स्वयंसेवा करना चाहे, उसका स्वागत है.”
अर्धकुंभ में कई सारे सांस्कृतिक और सांगीतिक कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं. इन कार्यक्रमों में प्रदेश ही नहीं, प्रदेश के बाहर के भी कलाकारों को कुंभ में शामिल होने और यहां अपनी कलाओं का प्रदर्शन करने के लिए बुलाया गया है. इसे आयोजित करने में संस्कृति मंत्रालय के साथ-साथ संघ के सांस्कृतिक अनुषंगिक संगठन ‘संस्कार भारती’ की भूमिका अहम है. कलाकारों और कार्यक्रमों के चयन में संस्कार भारती के पदाधिकारियों की अहम भूमिका है. लेकिन इसमें बुलाए गए कलाकारों की मानें तो इन कार्यक्रमों की पृष्ठभूमि में संस्कार भारती और संस्कृति मंत्रालय में जिम्मेदारी एक दूसरे पर डालने की होड़ मची हुई है.
कुंभ में आमंत्रित एक कलाकार नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, “मुझे आयोजन में आमंत्रित करने के लिए पत्र संस्कृति मंत्रालय ने भेजा है, लेकिन पत्र में उन्होंने लिखा है कि मेरे आने-जाने और रहने की व्यवस्था का ज़िम्मा संस्कार भारती का है. अब इसका क्या मतलब निकालूं?”
फिर वे आगे कहते हैं, “लगता तो ऐसा है कि दोनों ही अपनी जिम्मेदारी से बचना चाह रहे हैं ताकि कुछ ऊंच-नीच होने पर ठीकरा अगले के सिर फोड़ा जा सके.” इस बारे में पूछने पर न संस्कार भारती के पदाधिकारी कोई जवाब देते हैं और न ही संस्कृति मंत्रालय के अधिकारी.
अयोध्या के राम मंदिर आंदोलन को देखें तो उत्तर प्रदेश में विश्व हिंदू परिषद हिंदू वोटर को रिझाने का काम करती रही है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जितना मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र राज्यों में सक्रिय है, उतनी मुखर सक्रियता उत्तर प्रदेश में इससे पहले देखने को नहीं मिली थी. अर्धकुंभ में पहली दफ़ा संघ इतने मुखर स्वरूप में सामने आ रहा है. संघ के एक पदाधिकारी कहते हैं, “संघ को ऐसा लग रहा है कि अगर अभी चीज़ों को हाथ में नहीं लिया जाएगा, तो कुछेक महीनों बाद आने वाले चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को नुकसान उठाना पड़ सकता है. इसलिए अब संगठन भी मुखर रूप से सामने आ रहा है.”
जिस अर्धकुंभ को भाजपा संजीवनी बूटी की तरह इस्तेमाल में लाना चाह रही है, उस कुंभ के तेवर भी बदले हुए हैं और पैसे लगाने-कमाने के बहुत सारे उपक्रम इस कुंभ में मौजूद हैं. देश के कई सारे बड़े घराने अपने टेंट-तंबू मेला क्षेत्र में लगा चुके हैं और पंद्रह से बीस हज़ार रुपए के प्रति रात मूल्य में ये तंबू-टेंट रहने के लिए उपलब्ध हैं. “ए हाउस अलॉन्ग द संगम” जैसी टैगलाइन के साथ ये टेंट ऑनलाइन बुक की जा सकती हैं.
लेकिन इलाहाबादियों ने कुंभ के नए कलेवर के पीछे की प्रेरणा को खोजने-पकड़ने में कोई देर नहीं लगायी है. बॉबी सिंह दारागंज मोहल्ले में रहते हैं, जो मेला क्षेत्र में ही स्थित है. ख़ुद का एक छोटा-सा जिम चलाने वाले बॉबी कहते हैं, “एक तो अखिलेश यादव थे, जो सैफई महोत्सव और ताज महोत्सव कराते थे. उसमें कितने सुपरस्टार टाइप लोग आते भी थे. अब योगी आए हैं तो अर्धकुंभ को सैफई की तर्ज़ पर रेल दिए हैं.”
योगी आदित्यनाथ की कुंभ व्यवस्था पर यह सवालिया निशान लग रहे हैं कि जिस तरह से उन्होंने लोगों को बुलावा भेजा है, उस हिसाब से हुई कमज़ोर व्यवस्था में यदि उतने लोग आ जाएं तो इलाहाबाद में कुछ भी हो सकता है. समाजवादी पार्टी की प्रवक्ता ऋचा सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्रसंघ अध्यक्ष रह चुकी हैं और पार्टी के टिकट पर उन्होंने 2017 के विधानसभा चुनावों में इलाहाबाद पश्चिम से चुनाव लड़ा था, लेकिन हार गयी थीं. न्यूज़लॉंड्री से बातचीत में ऋचा कहती हैं, “एक इलाहाबादी होने के नाते मुझे डर लगता है कि यदि प्रदेश सरकार कुंभ की भीड़ को सम्हाल न सके तो क्या होगा? क्योंकि देखने में लगता है कि तैयारियां पुख़्ता हैं नहीं.”
ऋचा सिंह आगे कहती हैं, “मेरी छवि एक राजनीतिक पार्टी के प्रवक्ता की है और परस्पर एक छवि एक इलाहाबादी की है, जो मूलतः हिंदू है. सपा के प्रवक्ता की छवि को एक मिनट के लिए हटाकर भी देखें तो मैं जानती हूं कि 2013 में महाकुंभ का आयोजन किया गया था. उस समय आज़म खान को महाकुंभ मेला कमेटी का चेयरमैन नियुक्त किया गया था. पूरा महाकुंभ अपार रूप से सफल रहा था. लेकिन अभी अर्धकुंभ में देखिए कि क्या हो रहा है, और क्या होगा, कुछ नहीं कह सकते हैं.”
2013 महाकुंभ के दौरान इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर हुई भगदड़ में 40 लोगों की मौत हो गयी थी. चूंकि घटनास्थल और घटना का अधिकार क्षेत्र दोनों ही आज़म खान और कुंभ क्षेत्र के बाहर का था, इसलिए आज़म खान की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती थी. फिर भी, नैतिक आधार पर आज़म खान ने अपना इस्तीफ़ा दिया, जिसे नामंज़ूर कर दिया गया. ऋचा सिंह कहती हैं, “ख़ुद मुस्लिम होते हुए आज़म खान ने इतनी बेहतरी से मेले की तैयारियों को अंजाम दिया था और अपनी जिम्मेदारी को समझा था. ख़ुद को हिंदूप्रिय बताने वाली सरकार तो एक शहर और पूरे पर्व का बाज़ारीकरण करने पर उतारू है.”
इलाहाबाद के दोस्तों को समर्पित अपनी कविता “ऊधो, मोहि ब्रज” में हिन्दी के कवि वीरेन डंगवाल लिखते हैं:
अब बगुले हैं या पण्डे हैं या कउए हैं या हैं वकील
या नर्सिंग होम, नए युग की बेहूदा पर मुश्किल दलील
नर्म भोले मृगछौनों के आखेटोत्सुक लूमड़ सियार
खग कूजन भी हो रहा लीन!
ऐसा लिखते हुए वीरेन डंगवाल इस शहर को थोड़ा दूर से देखते हैं. और अब, लगभग हर इलाहाबादी इस शहर को वैसे ही देखता है. ग़ाज़ियाबाद में रहने वाले नवीन कुमार लगभग पंद्रह साल पहले इलाहाबाद छोड़कर दिल्ली आ बसे. अब वे यहीं अपना छोटा-मोटा व्यापार चलाने की कोशिश में हैं. वे कहते हैं, “इलाहाबाद का नाम सुनो तो सब सामने आ जाता है. संगम, कॉफ़ी हाउस, और इलाहाबादी अमरूद. आप प्रयागराज को इस नाम से और किस काम से याद करेंगे? बस यही कि इस शहर का नाम पहले इलाहाबाद हुआ करता था?”
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