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‘बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौरान मैं शायद अकेली मुस्लिम महिला पत्रकार थी’

(इस सीरीज़ का पहला भाग यहां पढ़िये)

जब बाबरी मस्जिद के ऊपर कारसेवक चढ़कर हथौड़े, फावड़े चला रहे थे उस समय वरिष्ठ पत्रकार साजिदा मोमिन ‘द टेलीग्राफ’ अख़बार के लखनऊ संस्करण में संवाददाता थी. मोमिन ने न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए बताया, “मुझे 1992 का वो दिन याद है, उस समय अयोध्या में जो माहौल बनाया बनाया गया था वो काफी डराने वाला था. संघ परिवार के कार्यकर्ता जो वहां मस्जिद गिराने के लिए आए थे, हम सभी को एक समूह में शामिल कर विवादित स्थल से दूर ले गए. हमने बाबरी मस्जिद का विध्वंस अपनी आंखो से देखा. हमें एक मदिर की छत पर ले जाया गया, वहां से मस्जिद साफ दिखती थी. एक पत्रकार के नजरिए से देखा जाए तो वो एक दम सही जगह थी, जहां से हम सभी तरह की गतिविधियों को अच्छी तरह देख सकते थे.”

आप यहां मोमिन की आपबीती पढ़ सकते हैं. मोमिन बताती है कि कैसे उस दिन उन्हें अपनी मुस्लिम पहचान छुपाने के लिए सुजाता मेनन बनाना पड़ा था. वो बताती हैं, “उस दिन अयोध्या में, मैं शायद अकेली मुस्लिम, महिला पत्रकार थी, कारसेवकों से मुझे अपनी पहचान छुपानी पड़ी, मेरे दोस्तों को भी मुझे गैर-मुस्लिम नाम से पुकारना पड़ा. उन्हें इस बात का अंदाज़ा था की बाकियों की अपेक्षा मैं उस माहौल में ज़्यादा असुरक्षित थी.” पत्रकारों पर किए गए हमलों के बावजूद उन्हें सभी पत्रकारों ने सुरक्षा और समर्थन दिया.

“6 दिसम्बर को टीवी के कैमरामैन और मेरे साथी फोटोग्राफर आलोक मित्रा सहित सभी फोटोग्राफरों पर हमला हुआ. आलोक की कैमरा रील छीन ली गई. उसे काफी चोट भी आई और साथ ही साथ उसके गले की चैन और पर्स चोरी हो गया. इस तरह के छोटे-छोटे अपराध भी वहां हो रहे थे,” साजिदा बताती हैं.

मोमिन कहती है कि विध्वंस कि रिपोर्टिंग करना काफी मुश्किल था. वे लोग अपनी कार्यवाही का कोई भी सबूत नहीं छोड़ना चाहते थे. इसीलिए उन्होंने सभी पत्रकारों के कैमरे छीन लिए. हमारे कैमरे और रीलों को दूर कर दिया गया. हमें नोटबुक पर पेन से लिखने की अनुमति भी नहीं थी. यहां तक कि उन्होंने हमारे बैग की भी तलाशी ली.

मोमिन ने बताया, “उन दिनों अधिकतर पत्रकार निष्पक्ष थे, उन्होंने कभी किसी एक का पक्ष नहीं लिया. अधिकतर पत्रकार जो देखते थे, वही रिपोर्ट करते थे. वह किसी पार्टी से संबंधित नहीं हुआ करते थे. अधिकतर पत्रकार तटस्थ थे. दूसरी बात, हम बहुत निडर थे, हम परवाह नहीं करते थे कि अगर हम सच लिखेंगे तो हम पर हमला भी हो सकता है.”

मोमिन को लगता है कि 24×7 के समाचार युग ने ख़बरों की गुणवत्ता को प्रभावित किया है, “इससे पहले, आपके पास‌ स्थिति को ध्यान में रखकर ख़बर समझने, लिखने का समय था. आपको पता था कि आपके शब्द लोगों की भावनाओं को भड़का सकते हैं, इसलिए आप अपने शब्दों को जिम्मेदारी से इस्तेमाल करेंगे.” 24/7 के इस समाचार चक्र ने कौन सबसे पहले ब्रेकिंग न्यूज़ देगा इसकी होड़ बढ़ा दी है.

मोमिन बताती हैं कि इससे दो समस्याएं पैदा हुई हैं एक तो गुणवत्ता कमी, दूसरा अनुसंधान और दृष्टिकोण की कमी. “आपके पास 24 घंटे ब्रेकिंग न्यूज़ नहीं होती हैं. उसकी कमी को पूरा करने के लिए, युवा पत्रकारों द्वारा, जिनके पास अनुभव नहीं है, उनके दिमाग में जो कुछ भी आता है, बस कह देते हैं. इसके परिणामस्वरूप खराब शोध वाली सामग्री प्रसारित होती है. इसके अलावा, अनुसंधान की कमी का मतलब है कि पत्रकार आज बाबरी मस्जिद विध्वंस जैसे ऐतिहासिक और संवेदनशील मुद्दों को कवर करने के लिए आवश्यक दृष्टिकोण प्रदान करने में विफल रहते हैं,” वे कहती हैं.

“कवरेज़ का तरीका थोड़ा बदलना चाहिए, इसके लिए आज के पत्रकारों को उस विषय के इतिहास से सीखने की ज़रूरत है जिसके बारे में वह रिपोर्टिंग कर रहे हैं. उन्हें सवाल करने की ज़रूरत है, एक ढर्रे पर चल कर केवल एक विषय पर राजनेताओं की टिप्पणी लेना बंद करें नए पत्रकार,” मोमिन कहती हैं कि पत्रकारों को अपने विषय के बारे में समझने की आवश्यकता है न कि केवल लोगों कि बाइट इकट्ठा करना.

पुरानी पत्रकारिता का उदाहरण देते हुए वह कहती है कि 1992 में अशोक सिंघल (जो उस समय विहिप के महासचिव थे) की बात पर अगर विश्वास किया जाय तो बाबरी मस्जिद विध्वंस पूरी तरह अनियोजित था, वह केवल भावनाओं में बह कर की गई कार्रवाई थी. लेकिन वहां जो हमने देखा उससे बिल्कुल ऐसा नहीं लगता था कि यह सब अनियोजित था. कारसेवकों के पास रस्सी, कुल्हाड़ी और विस्फोटक जैसे इमारत गिराने वाले सभी उपकरण मौजूद थे. इससे यह साफ पता चलता है कि इस विध्वंस को पूरी योजना के तहत अंजाम दिया गया. अगर आज के पत्रकार होते तो शायद वही लिख देते जो अशोक सिंघल ने कहा.

वह कहती हैं कि इस बदलाव का एक और कारण मीडिया का बदलता स्वामित्व और मीडिया के समीकरणों में आया बदलाव है. “आज अधिकतर मीडिया हाउस कारपोरेट कंपनियों के स्वामित्व में हैं, जिनके अन्य व्यावसायिक हित होते है. वही न्यूज़रूम का एजेंडा तय करते हैं. पत्रकारों बताया जाता है कि वह किसके बारे में लिख सकते हैं और किसके बारे में नहीं. जब हम इसे कवर कर रहे थे तो हमें कभी इस तरह के आदेश नहीं दिए गए थे. न तो हमारे अखबार मालिकों से और न ही संपादकों से. हम तटस्थ थे और हमने जो देखा वैसा ही लिख दिया. वह कहती हैं कि पत्रकारों की नई फसल को मीडिया नैतिकता और अंग्रेजी भाषा के उपयोग में प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है.

न्यूज़लॉन्ड्री ने एशियन एज के संजय काव से भी बात की, जो अंडरकवर कारसेवक के रूप में अयोध्या गए थे. उस समय, काव के पास बीजेपी की अंबेडकरनगर इकाई से परिचय पत्र के रूप में अपना पहचान प्रमाणपत्र था, यह कारसेवकों के परिचय पत्र जैसा था. उन्होंने कश्मीर का एक इंजीनियरिंग छात्र होने का नाटक किया, जो उग्रवादियों के कारण भागकर दिल्ली आ गया था.

संजय काव उस वक़्त को याद करते हुये कहते है कि अयोध्या में रहने के दौरान मुझे मजबूरन कई बार झूठ बोलना पड़ा, “मैं विवादित ढांचे के करीब एक तम्बू में रह रहा था और वहां पर सैंकड़ों लोग ज़ोर ज़ोर से ‘जय श्री राम’ के नारे लगा रहे थे. उन लोगों के हाथों में ढांचे को तोड़ने के लिए औज़ार थे. उन्होंने मस्जिद के पास की कब्रों को तोड़ना शुरू कर दिया था .

संजय काव आगे बताते हैं कि डर के कारण उन्हें कारसेवा में भी हिस्सा लेना पड़ा, साथ ही साथ और उन्होंने पास के एक तालाब में मलवा फ़ेकने में भी मदद की थी. एक दिन पहले ही काव से कहा गया था कि जो भी पत्रकार फैजाबाद के शान-ए-अवध होटल में ठहरे हुए थे उन सभी पत्रकारों पर पैनी नज़र रखें.

काव कहते हैं आज समाचार चैनलों में होने वाली सभी बहसें एक तरफ़ा हो रही हैं. हर व्यक्ति किसी न किसी के पक्ष में खड़ा है. मुश्किल से ही कोई व्यक्ति इस मुद्दे पर निष्पक्षता से बात कर रहा है. वह आगे कहते है, “समाचार एंकर ऐसे बात करते हैं जैसे कि वह एंकर न होकर राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ता हों. अक्सर वे पार्टियों के प्रवक्ताओं से भी ज्यादा बोलते नज़र आते है. मैं वास्तव में अभी तक ये नहीं समझ पाया हूं, उन्हें अपने आकाओं को खुश करने के लिए इस हद तक जाने कि ज़रूरत नहीं है.”

काव आगे कहते हैं, “न्यूज़रूम की इस स्थिति के दो मुख्य कारण हैं. पहला टीआरपी का पागलपन और दूसरा सोशल मीडिया का बढ़ता प्रभाव. अब दर्शकों को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी, दर्शक ऐसे चैनल देखें जो केवल न्यूज़ दिखाएं न कि किसी पार्टी का चेहरा बन कर समाचार बेचने वाले न्यूज़ चैनल.” वह चेतावनी देते हुये कहते हैं, “हमें अब एक सीमा निर्धारण करने की जरूरत है नहीं तो बहुत देर हो जाएगी.”

बाबरी मस्जिद जैसे संवेदनशील मुद्दे को कवर करने वाले पत्रकारों के लिए काव कहते हैं, “उन्हें तथ्यों को पब्लिक डोमेन में सावर्जनिक कर देना चाहिए और लोगों को तय करने देना चाहिए, कि क्या सही है और क्या गलत.” साथ ही साथ वह यह भी कहते हैं कि अयोध्या भूमि विवाद जैसे मुद्दों को कवर करते समय संवेदनशीलता की बहुत आवश्यकता है. “हमें कम से कम सुप्रीम कोर्ट का तो सम्मान करना चाहिए, बजाए इसके कि हम कुछ गुंडो के हाथों कठपुतली बन जाएं.”

अनिल यादव एक लेखक और स्वतंत्र पत्रकार हैं. यादव काव और मोमिन से सहमति जताते हुए कहते हैं, “मीडिया पूरे पेशे के रूप में काम करता है. शायद यही कारण है कि 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में मौजूद पत्रकारों पर आरएसएस के लोगों ने बड़ी योजना और क्रूरता के साथ हमला किया था. आरएसएस के लोगो को यह डर था, कि मस्जिद गिराते समय संघ में शामिल उसके स्वयंसेवकों और नेताओं को उस समय मीडिया द्वारा खींची जा रही तस्वीरों और अन्य ठोस सबूतों के माध्यम से दोषी ठहराया जा सकता है.”

हालांकि, यादव आगे कहते हैं, हर नियम के कुछ अपवाद होते. इसी तरह हिंदी और अन्य क्षेत्रीय मीडिया का एक बड़ा वर्ग उस समय आरएसएस और भाजपा के लिए प्रचारक के रूप में काम करता साफ दिख रहा था.

1992 में, यादव दैनिक जागरण के लिए काम कर रहे थे. वे कहते हैं, “हिंदी मीडिया के एक बड़े वर्ग ने ऐसी बातें दिखाई व बताईं, जो कभी हुई ही नहीं थी. ऐतिहासिक तथ्यों को नष्ट कर दिया गया. मिथक विधा के आधार पर संपादकीय लेख लिखे गए और पूरे देश में सांप्रदायिक झगड़ों के लिए तरह-तरह की अफवाहें फैला दी गई.”

वह आगे कहते हैं, “समय के साथ मीडिया और सनसनीखेज, अनैतिक, असंवेदनशील और पक्षपाती हो गया है. मीडिया वर्तमान समय में भी भाजपा के लाभ के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का वातावरण बनाने के उद्देश्य से काम कर रहा है.”

यादव ने अयोध्या के ऊपर मौजूदा मीडिया कवरेज को ‘खराब कौशल से निर्मित एक पेड न्यूज़’ की तरह बताया जो सिर्फ सत्ताधारी पार्टियों के चुनावी जरूरतों के हिसाब से काम कर रहा है. वह आगे कहते हैं, “यह बिना किसी दुष्परिणाम के तेज़ी से प्राप्त होने वाले आर्थिक लाभ के कारण है. मौजूदा हाल में पत्रकारों के लिए बहुत कम विकल्प बचे हैं, क्योंकि मीडिया हाउस के मालिक और निर्माता खुद चंद लाभों के लिए गलत काम करने वालों के साथ जुड़ रहे हैं.”

यादव ने चेतावनी देते हुए कहा कि यह मीडिया की विश्वसनीयता को कम कर रहा है, साथ ही साथ दर्शकों को भी भ्रमित कर रहा है. प्रचलित सांप्रदायिकता को पागलपन में बदल रहा है. वह आगे कहते हैं कि बदलाव लाने के लिए, पत्रकारों को तथ्यात्मक पत्रकारिता करने और ख़बर जैसी है उसे वैसे ही पेश करने कि ज़रूरत है.