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टीवी समाचार का भविष्य उर्फ न्यूज़रूम में बैठा एक अदृश्य सांड़
एक कहानी
“नागिन का बदला तो आपने देखा होगा लेकिन फिल्म से इतर हम आपको दिखा रहे हैं सांड़ का बदला. सुल्तानपुर के बेलासदा गांव में सांड़ को मारना एक परिवार को बहुत भारी पड़ गया. दोनों सांड़ों ने गुस्से में आकर खेती तो नष्ट कर ही दी साथ ही खेतों में काम करने वाले किसानों और राहगीरों के लिए भी मुसीबत बन गए. सांड़ ने अब ठान लिया है कि उनको मारने वालों को नहीं छोंड़ेंगे. कई बार ग्रामीणों के भगाने पर भी सांड़ लौट कर आ जाते हैं और फिर चारा चट कर दूसरे मवेशियों के लिए मुसीबतें खड़ी कर देते हैं. एक सांड़ तो राममिलन के परिवार के पीछे ही पड़ गया. पिछले तीन दिनों से उसने राममिलन के घर के बाहर डेरा जमाया हुआ है. उसके तेवर देखकर ऐसा लगता है कि सांड़ अपना बदला लेकर ही रहेगा. सांड़ के डर से राममिलन का परिवार पिछले तीन दिनों से घर में दुबका हुआ है. बाहर निकलने पर उसे खतरा है कि सांड़ कहीं हमला न कर दे. राममिलन तिवारी का घर गांव के पूर्वी दक्षिणी किनारे पर है. घर के सामने ही उनका शौचालय, नलकूप और पशुशाला है. पिछले तीन दिनों से डेरा जमाए सांड़ के डर से राममिलन के परिजनों का जीना दूभर हो गया है. अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि सांड़ को किस तरह भगाया जाए क्योंकि ग्रामीण भी दहशत में हैं. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि पूरे घटनाक्रम का क्लाइमैक्स क्या होता है. न्यूज़18 के लिए अलीम शेख, सुल्तानपुर.”
2018 के 3 जुलाई को न्यूज़18 पर प्रसारित हुई पौने दो मिनट की इस रिपोर्ट में जाहिर तौर पर तीन दिन से घर में बंद परिवार का एक भी मनुष्य मौजूद नहीं है क्योंकि घर के बाहर सांड़ ने धरना दिया हुआ है. शुरू से लेकर अंत तक रिपोर्टर के पास केवल एक फुटेज है सांड़ का, जो राममिलन तिवारी के घर के बाहर धूल में किसी हमले की मंशा से रहे-रहे पैर रगड़ रहा है. चूंकि ग्रामीण भी दहशत में हैं लिहाजा रिपोर्टर ने मान लिया है कि वे भी घर ही दुबके होंगे वरना किसी एक ग्रामीण की बाइट तो होनी बनती थी. पूरी रिपोर्ट में आपको दो दृश्य दिखेंगे. पहला दृश्य किसी खेत में लड़ते दो सांडों का है. दूसरा दृश्य एक घर के बाहर खड़े सांड़ का है. कहीं भी किसी खेत में लड़ते किन्हीं दो सांड़ों से कोई कहानी नहीं निकलती. इसी तरह किसी गांव के किसी घर के बाहर खड़े पैर रगड़ते किसी सांड़ से कोई कहानी अपने आप नहीं निकलती. हम नहीं जानते कि इस रिपोर्ट में बताया गया सुल्तानपुर का गांव बेलासदा सही है या गलत, स्क्रिप्ट में लिया गया नाम राममिलन तिवारी उस गांव से ताल्लुक रखता है या नहीं, दिखाया गया घर तिवारी का ही है और यह भी कि क्या किसी सांड़ के दहशत से घर में छुपे बैठे राममिलन तिवारी के परिवार की कहानी इस धरती पर मौजूद है या नहीं.
इस रिपोर्ट में जो कहानी सुनाई गई है, वह कहानी फुटेज से कहीं नहीं निकलती. ऐसा लगता है गोया एक कहानी बनाई गई और दो फुटेज कहीं से लाकर चिपका दिए गए. अंत में रिपोर्टर के नाम से उसे प्रामाणिकता दे दी गई और चूंकि सुल्तानपुर में उक्त रिपोर्टर वाकई तैनात होगा, लिहाजा हम कहानी को सच मानने के लिए बाध्य भी हो गए.
आइए, इस कहानी को 2026 में बुनते हैं. अब हमारे रिपोर्टर के पास एक हथेली में बंद हो जाने लायक आकार का छोटा सा ड्रोन कैमरा है. उसकी कोई मजबूरी नहीं कि वह घर के बाहर खड़े किसी सांड़ की इकलौती फुटेज पर अपनी पूरी कहानी गुज़ार दे. यदि यह कहानी, कहानी नहीं बल्कि वाकई कोई घटना है तो ड्रोन कैमरा राममिलन के घर के भीतर जा सकता है. उसके ऊपर मंडरा सकता है. आंगन के ऊपर से 3डी तस्वीरें जारी कर सकता है. एक-एक कमरे के भीतर जाकर राममिलन के परिवार के हर सदस्य के चेहरे का भाव दर्ज कर सकता है. घर के भीतर सांड़ को लेकर हो रही बातचीत रिकॉर्ड कर सकता है. इस तरह एक घटना की मुकम्मल रिपोर्ट की जा सकती है.
मान लें कि राममिलन कोई है ही नहीं और उसके साथ कोई ऐसी घटना हुई ही नही. उससे भी इस स्क्रिप्ट की सेहत पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता. कहानी को खबर बनाने के लिए किसी घर के भीतर बैठे एक परिवार की छवियां कैद करने के लिए उसके भीतर एक ड्रोन छोड़ा जा सकता है.
दोनों ही सूरतों में कम से कम इतना तो होगा कि रिपोर्ट सच हो या कहानी, फुटेज उसे प्रामाणिक बना देगा और दर्शक खुद को कहानी से ज्यादा जुड़ा हुआ महसूस करेगा. उसके पास कहानी पर यकीन करने के कई कारण होंगे. आज इस रिपोर्ट को झूठ मानने के सिवा हमारे पास कोई विकल्प नहीं है.
रिपोर्टर की स्क्रिप्ट के आखिरी वाक्य को मुहावरे के बतौर लें तो वाकई सबसे बड़ा सवाल यही है कि “सांड़ को किस तरह भगाया जाए”. सांड़ भागेगा, दहशतजदा लोगों के फुटेज आएंगे, तभी सांड़ के दहशत की कहानी भी पुष्ट होगी. इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि कहानी सच्ची है या झूठी. प्रामाणिकता यहां कसौटी है.
नया खलनायक: विचार
इसी प्रामाणिकता की दलील देकर सुभाष चंद्रा ने ज़ी हिंदुस्तान को देश का पहला एंकरमुक्त चैनल बना दिया है. बिलकुल इसी प्रामाणिकता के तर्क से चीन मे शिन्हुआ न्यूज़ नेटवर्क ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस वाले रोबो ऐंकर स्टूडियो में बैठा दिए हैं. ध्यान देने वाली बात है कि एंकरमुक्त समाचार लाने के पीछे वही दलील है जो मशीनी एंकर बैठाने के पीछे है- समाचार को विचार से मुक्त किया जाना. बीते पांचेक साल में टीवी मीडिया इतना ज्यादा ‘ओपिनियनेटेड’ हो गया था कि ऐंकर की अपने आप में एक स्वयंभू हैसियत बन गई थी. ऐंकर चाहे तो किसी को स्टूडियो में बुलाकर डांट-डपट दे (जैसा हमने राहुल कंवल को एक हिंदूवादी नेता के साथ करते हुए देखा). ऐंकर चाहे तो किसी गेस्ट को ठोक दे (जैसा हमने सुमित अवस्थी को एक नेता के साथ करते हुए देखा). ऐंकर चाहे तो किसी को थप्पड़ मार दे (जैसा हमने अंजना ओम कश्यप को करते हुए देखा). ऐंकर चाहे तो किन्हीं दो लोगों के बीच झगड़ा लगवा दे या किसी तीसरे अनुपस्थित व्यक्ति का नाम बार-बार लेकर उसकी जिंदगी को संकट में डाल दे (ऐसा हमने अरनब गोस्वामी के मामले में देखा जो निरंतर आंतरिक सुरक्षा मसलों पर गौतम नवलखा का नाम बिना किसी संदर्भ के हवा में उछालते और अंतत: उन्हें ‘शहरी नक्सली’ ब्रांड कर दिया).
कुल मिलाकर बीते कुछ वर्षों में ऐंकर एक ‘डेमीगॉड’ बन गया.
टीवी देखने वाली नागरिकता ने अपने-अपने भगवान चुन लिए. भारत में टीवी समाचार की दुनिया रवीश कुमार बनाम सुधीर चौधरी में बंट गई, तो टीवी देखने वालों की आस्था भी इसी के मुताबिक बंट गई. यह कहा जाना ज़रूरी है कि ऐसा अनायास नहीं हुआ. अगर किसी एक ने सायास सरकार और उसकी नीतियों का प्रवक्ता होने का सचेत फैसला लिया जबकि दूसरा अपनी स्वाभाविक प्रकृति पर कायम रहा, तो इससे पैदा हुई फांक का मज़ा दोनों ने लिया. इसका पता इतने से लगता है कि टीवी मीडिया में भगवानरूपी ऐंकरों के हिसाब से दर्शकों का आस्था-विभाजन कुछेक शब्दों से मुकम्मल हुआ और ये शब्द खुद ऐंकरों के गढ़े हुए थे- ज़ी न्यूज़ ने खुद को “इकलौता राष्ट्रवादी चैनल” करार दिया.
इस पर किसी दूसरे को प्रतिक्रिया देने की कोई ज़रूरत नहीं थी, लेकिन पैदा हो रही फांक में अपना हिस्सा सुरक्षित करना किसे खराब लगता है. लिहाजा रवीश कुमार ने एक दिन ‘गोदी मीडिया’ नाम का संज्ञा-विशेषण गढ़ दिया और नागरिकता के बंटवारे की प्रक्रिया को मुकम्मल कर डाला. यह केवल एक उदाहरण है. ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जिससे यह समझ में आएगा कि तथ्य, खबर और प्रामाणिकता को दरकिनार करके परदे पर बैठे ‘भगवान’ की ज़बान को ब्रह्मवाक्य बनाकर स्थापित करने की प्रक्रिया कैसे बीते पांच वर्षों में पूरी की गई. इसका आनंद चौतरफा फैला. पत्रकारों ने अपने-अपने दायरे में इसका मज़ा लिया.
मालिकान को विचारों से लोडेड खबर का अपना लाभ मिला. सत्ता को तो हमेशा ब्लैक एंड वाइट की दुई भाती है. कहीं किसी को कोई रत्ती भर भी इलहाम नहीं था कि उफनती हुई टेक्नोलॉजी के इस दौर में खबर के विचार बनते जाने के खतरे क्या हो सकते हैं. एक बार को ऐसा लगता है कि वैचारिक विभाजन रेखा के इस पार और उस पार बैठे दोनों ही नियंताओं ने यह तकरीबन मान लिया था कि इस पांचसाला लोकतंत्र का अस्तित्व खत्म हो गया है और जो सत्ता में है, वह अमर्त्य है. यदि ऐसा नहीं होता मनुष्यरूपी ऐंकर अपनी भगवानरूपी छवि नहीं बनने देते.
भारत का टीवी मीडिया कॉरपोरेट ताकतों के एकाधिक धंधों में एक अदद धंधा भर है. उससे ज्यादा या कम इसे समझना गफ़लत में रहना है. धंधा स्थायी छवियों को बर्दाश्त नहीं कर सकता. स्थायी छवि धंधे को नुकसान पहुंचाती है क्योंकि हर धंधा अंतत: सत्ता की करवट के साथ अपना पहलू तय करता है. हर धंधा उसी पहलू बैठता है जिधर मुनाफा होता है. मुनाफा तभी होता है जब धंधेबाज सत्ता के अनुकूल बैठता है. यह बात सबसे अच्छा धंधेबाज सबसे पहले समझता है.
यह इत्तेफ़ाक नहीं है कि भारतीय टेलीविजन मीडिया में सुभाष चंद्रा के ज़ी समूह ने सबसे पहले खुद को ‘’राष्ट्रवादी पत्रकारिता’’ करने वाला चैनल घोषित कर के जबरन अपनी एक छवि निर्मित की और उसके बाद इस छवि को कायम रखने के लिए सुधीर चौधरी व रोहित सरदाना जैसे पत्रकारों को अपना लंगर बनाया. ऐसा करना उनकी कारोबारी रणनीति का एक हिस्सा था. अब, जबकि एक पत्रकार के बतौर सरदाना या चौधरी पूरी तरह एक छवि में कैद हो चुके हैं और ज़ी न्यूज चैनल अपनी ही बनाई छवि का गुलाम हो चुका है (भले उसके टीआरपी जन्य लाभ हैं), तो मालिकान के पेट में अचानक मरोड़ उठी है. सुभाष चंद्रा को अचानक इलहाम हुआ है कि विश्वसनीयता तो ऐंकररहित होने में है क्योंकि ऐंकर अपने राय-विचार से खबर की ‘प्रामाणिकता’ को धूमिल कर रहा है. एक तीर से तीन शिकार इसे कहते हैं.
अव्वल तो किसी भी चैनल में सबसे ज्यादा तनख्वाह ऐंकरों की होती है. ऐंकर हटाने से वेतन पर कंपनी की लागत काफी कम हो जाएगी. दूसरे, ऐंकर पीस से जो भी वक्त बचेगा उसका इस्तेमाल अतिरिक्त विज्ञापन के लिए किया जा सकेगा. तीसरे, सत्ता परिवर्तन की सूरत में पांच साल के छवि निर्माण का ठीकरा मालिकान आसानी से ऐंकरों के सिर पर फोड़ सकेंगे और खुद को बरी कर लेंगे. अब उक्त ऐंकर अपनी ‘’राष्ट्रवादी’’ छवि को लेकर जंगल-जंगल नौकरी के लिए घूमता फिरे, अपन बला से. यह तीसरा चरण हालांकि इतनी जल्दी मुकम्मल नहीं होने जा रहा है क्योंकि ज़ी हिंदुस्तान हद से हद एक प्रयोग ही है. फिर भी चीन में शिन्हुआ न्यूज़ ने रोबो ऐंकरों को लाकर जो ट्रेंड सेट किया है, वह काफी हद तक भविष्य की टीवी पत्रकारिता की तस्वीर बयां करता है.
विचार बनाम विजुअल, यथार्थ बनाम वर्चुअल
चूंकि ऐंकरों को भगवान बनाने में मीडिया को पांच साल लगा है तो मानकर चलते हैं कि इन्हें वापस इंसान बनाने में भी इतना ही वक्त लग सकता है, बशर्ते मालिकान की ऐसी मंशा हो. मामला मंशा का भी उतना नहीं है जितना कारोबारी दबावों का है. प्रौद्योगिकी अपनी गति से आगे बढ़ेगी, मालिकान को उसे दौड़ कर पकड़ना होगा. जिस रफ्तार से इंटरनेट पर वीडियो-ऑन-डिमांड यानी नेटफ्लिक्स, अमेज़न प्राइम और मूबी इत्यादि ने पिछले तीन-चार साल में अपनी बढ़त बनायी है और जिस गति से भारतीय उपभोक्ता डेढ़ जीबी फ्री डेटा की मदद से टीवी सेट से अपने स्मार्टफोन की ओर मुखातिब हुआ है, कहानी कुछ और ही बन रही है.
रायटर्स इंस्टिट्यूट में रास्मुस नील्सन और रिचर्ड सम्ब्रुक ने दो साल पहले एक अहम शोध अध्ययन किया था जिसका नाम था “वॉट इज़ हैपेनिंग टु टेलिविज़न न्यूज़’’. इस रिपोर्ट में डिजिटल क्रांति के दौर में टीवी समाचार को पैदा हुए खतरों के बारे मे और प्रौद्योगिकीय विस्तार के बारे मे काफी विस्तार से बताया गया है. रिपोर्ट में चौकाने वाली बात सामने आई है कि यूके में पहली बार 2015 में टीवी सेट इस्तेमाल करने वाले परिवारों की संख्या घटी है और टीवी देखने के प्रतिदिन औसत समय में तीन साल के भीतर दस फीसदी की गिरावट आई है.
भारत में हम अपने अनुभव से जानते हैं कि मध्यवर्गीय उपभोक्ता अब टीवी देखने के बजाय मोबाइल पर खबरें और मनोरंजन देखना ज्यादा पसंद कर रहा है. टीवी को तो छोड़ दें, डेस्कटॉप और स्मार्टफोन पर सर्फिंग करने का अनुपात एक बटा चार हो गया है. ऑमनिकॉम मीडिया ग्रुप एजेंसी के एक शोध के मुताबिक 22 से 45 वर्ष के बीच के दर्शकों में आधे ऐसे हैं जो टीवी कंटेंट स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म पर देख रहे हैं. ऐसे परिवारो की संख्या बढ़ती जा रही है जो टीवी को अलविदा कह रहे हैं. तेरह से चौबीस साल के बीच के दर्शक हफ्ते में केवल आठ घंटा औसत टीवी देख रहे हैं जबकि इसी आयुवर्ग के लोग हर हफ्ते 10.8 घंटे पेड ऑनलाइन वीडियो देख रहे हैं.
शोध के मुताबिक सन् 2000 के बाद पैदा हुई पीढ़ी में 63 फीसदी ऐसे हैं जो मानते हैं कि टीवी कंटेंट में विज्ञापनो की संख्या बहुत ज्यादा होती है इसलिए देखना उबाऊ है. गूगल के एक अधिकारी की मानें तो यूट्यूब पर आज देखे जाने वाले शीर्ष 10 वीडियो में से 6 विभिन्न टीवी चैनलों पर आने वाले शो हैं.
ऐसे में एक संकट तो टीवी निर्माता कंपनियों की है जो लगातार टीवी सेट को एक ऐसा प्लेटफॉर्म बनाने की जद्दोजेहद में हैं जहां सब कुछ एक छत के नीचे मिल सके. दूसरा संकट टीवी चैनलों के साथ है जिन्हें बदलती हुई मोबाइल तकनीक के साथ होड़ करनी है. इन सब के बीच समाचार का अनुपात तो वैसे भी बहुत कम है, उस पर से नए आ रहे समाचार केंद्रित यूट्यूब चैनलों, फेसबुक पेज, वेबसाइट और ट्विटर की भीड़ में टीवी समाचार के लिए सबसे बड़ी मुश्किल यह खड़ी होने जा रही है कि वह अपनी विश्वसनीयता और दर्शनीयता को कैसे बनाए रखे.
चूंकि समाचार के अन्य डिजिटल माध्यम अनिवर्यत: ‘ओपिनियनेटेड’ हैं, लिहाजा टीवी चैनल के मालिकान अच्छे से इस बात का समझ रहे हैं कि लंबी दौड़ में अपनी ग्राहकी बनाए रखनी है तो ‘ओपिनियन’ यानी विचार से कुछ दूरी बनानी होगी और बीते पांच साल में जो ठस छवि बनी है उसे तोड़ना होगा. दूसरे, ऐसा करने के साथ-साथ विचारों पर आने वाली लागत भी कम करनी होगी ताकि वीडियो को ज्यादा स्पेस दी जा सके.
इसीलिए टीवी समाचार जगत में भविष्य की लड़ाई विचार बनाम विजुअल की है. यही वजह है कि आपकी कहानी चाहे नकली हो या असली, इससे प्रामाणिकता पर फर्क नहीं पड़ेगा. फ़र्क पड़ेगा विजुअल के होने या न होने से और वो भी प्रसारण की उसी गति से, जो मोबाइल प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध है. सीधी सी बात है कि ऐसा हासिल करने के लिए तकनीक का ही इकलौता सहारा चैनलों के पास है. मैनपावर इस काम को अंजाम नहीं दे सकता, न ही चैनलों के प्रबंधन मैनपावर पर पैसा लगाएंगे. इस क्रम में होगा यह कि बीते पांचेक साल में टीवी चैनलों पर दिन से पंचायत बैठाने का जो सिलसिला शुरू हुआ है, सबसे पहले वह टूटेगा.
इसे इस तरह से समझें कि जब चैनल में कोई ऐंकर ही नहीं है, तो कोई बहस भी संचालित नहीं हो सकेगी. इस तरह न केवल ऐंकर की लागत बचेगी बल्कि बड़े चैनल जो टिप्पणीकारों और मेहमानों को घंटा भर बैठाने के लिए पांच हजार रुपये का खर्च करते हैं वह भी बचेगा. इस फॉर्मेट के फैलने मे अभी थोड़ा वक्त है क्योंकि अगले दो-तीन साल में राजनीतिक और सामाजिक बदलाव ही टीवी न्यूज़रूम का रुख तय करेगा. फिर भी इतना तय है कि जो नया आएगा, वह वर्चुअल होगा.
दिल्ली के मीडिया जगत में पिछले कुछ दिनों से एक कच्चा सॉफ्टवेयर घूम रहा है. उसे फिलहाल खरीदार नहीं मिल रहे लेकिन उसके बाजारीकरण की संभावनाएं बहुत तगड़ी हैं. इस सॉफ्टवेयर में एक वर्चुअल स्टूडियो निर्मित किया जाता है. टीवी के परदे पर समाचार बुलेटिन के दौरान आपको तो छह या आठ मेहमान दिखाई देते हैं और एक ऐंकर दिखता है, इतनी सारी खिड़कियां उस सॉफ्टवेयर में भी बनाई जानी संभव है. बस सुविधा यह है कि सभी को किसी एक स्टूडियो में बैठने की ज़रूरत नहीं होगी. लैपटॉप में इंस्टॉल किया सॉफ्टवेयर ही प्रोडक्शन कंट्रोल रूम होगा. आठ अलग-अलग लोकेशन पर अपने-अपने मोबाइल स्क्रीन के सामने बैठकर आठ लोग एक स्टूडियो की बहस को अंजाम दे सकेंगे. आप चाहें तो ऐंकर को भी वर्चुअल रख लीजिए, जैसा चीन कर रहा है. ऐकर इंसान भी हो सकता है. ऐसी किसी भी सूरत में प्रोडक्शन की लागत तो कम होनी ही है, मार-झगड़े की गुंजाइश भी नहीं बनेगी जैसा आजकल आम चलन हो गया है. इसके अलावा चुनावी रिपोर्टिंग में ड्रोन कैमरों का जो इस्तेमाल 2014 के चुनावों से शुरू हुआ, वह आने वाले वक्त में नियमित हो सकेगा जिससे फील्ड रिपोर्टर की ज़रूरत भी कम होती जाएगी.
कुल मिलाकर एक स्थिति ऐसी बनेगी जो वर्चुअल ऐंकर/रिपोर्टर/न्यूज़रूम में जो विचार पहले से फीड किया जाएगा, वह अबाध तरीके से प्रसारित होगा और उसका काउंटर पैदा होने की गुंजाइश समाप्त हो जाएगी. अभी तक हमारे पास चाहे जैसा भी ऐंकर है, वह किसी बहस में रियल टाइम मानवीय हस्तक्षेप करने की गुंजाइश रखता है. विचार का लोड कम करने की दलील देकर दरअसल टीवी चैनल के मालिकान बुनियादी रूप से अपने विचार को अबाध रूप से वर्चुअल के माध्यम से प्रसारित करने की मंशा रखते हैं. इसलिए ये मानकर चलिए कि सुभाष चंद्रा हों या शिन्हुआ न्यूज़, दोनों जो कह रहे हैं उसका ठीक उलटा करने की फिराक में हैं. अब तक विचार परोसने का खलनायक ऐंकर था. आगे विचार परोसने की जवाबदेही किसी पर नहीं होगी क्योंकि वर्चुअल सिस्टम के भीतर कस्टमाइज्ड विचार पहले से फीड होगा. यह स्थिति भारतीय न्यूज़रूम में कल आए या पांच साल बाद, आज के मुकाबले कहीं ज्यादा खतरनाक होगी.
बदलाव के बिंदु: टीवी, समाज और सियासत
अंग्रेजी में एक जुमला होता है ‘’एलिफैंट इन द रूम’’. इसका प्रयोग एक ऐसी समस्या के लिए किया जाता है जो दरअसल दिखाई नहीं देती लेकिन होती सबसे बड़ी है और आपके ठीक बगल में होती है. टीवी न्यूज़ चैनलों के भीतर वह समस्या क्या है जो दिख नहीं रही? बदलते हुए सियासी मौसम में मालिकान इसे ‘ओपिनियन’ का नाम दे रहे हैं और इसे दुरुस्त करने के लिए दुनिया भर में तकनीक का सहारा ले रहे हैं. इसी से सहज समझ में आता है कि टीवी चैनलों के भीतर बैठा हाथी दरअसल तकनीक है, जो अब वर्चुअल होने को बेताब है. यह वर्चुअल तकनीक न केवल खबरनवीसी की संभावनाओं को, बल्कि खुद खबरनवीसों को एक दिन निगल जाएगी.
आइए, संक्षेप में देखते हैं कि वर्चुअल रियलिटी से भविष्य के न्यूज़रूम में क्या बदलाव होंगे.
- समाचार संग्रहण ऑटोमेटेड होगा (ड्रोन के जरिये) यानी रिपोर्टर की भूमिका समाप्त.
- संदर्भ और यथार्थ: वीआर न्यूज़ वर्चुअल हकीकत को यथार्थ बना देगा, संदर्भ प्रदान करेगा, भौगोलिकता पैदा करेगा और समयबोध उत्पन्न करेगा. नाट्य रूपांतरों का दौर अब नहीं होगा. कोई भी ऐसी घटना जिसमें फोन से मामूली सी पत्रकारिता भी मुमकिन हो, उसे तुरंत ताना जा सकेगा.
- सहानुभूति, करुणा, गुस्सा, राहत, कोई भी भावना वीआर से पैदा की जा सकेगी. इस लिहाज से वीआर दर्शक को ज्यादा करीब से खुद से जोड़ सकेगा. खबर जितनी वर्चुअल होगी, भावनात्मक जुड़ाव उतना ज्यादा संभव होगा. इसे ऑगमेन्टेड रियलिटी यानी अतिरंजित यथार्थ का भी नाम दिया जाता है.
- पुलिस और समाचार संगठनों के बीच संबंधों का नया दौर शुरू होगा. किसी भी घटना या हादसे के जितने विवरण ड्रोन जुटा सकेगा और उसके वर्चुअल तरीके से पुनर्निर्मित कर सकेगा, वह समाचार के साथ-साथ इंटेलिजेंस के लिए भी उतना ही फायदेमंद साबित होगा. चूंकि इस सूचना संग्रहण में मनुष्य की भूमिका नगण्य होगी, लिहाजा पुनर्निर्मित यथार्थ दृश्य में मानवीय प्रतिरोध या हस्तक्षेप की गुंजाइश भी कम होगी. नतीजतन, समाचार संगठन दरअसल पुलिस और राज्य के लिए इंटेलिजेंस एजेंसी की भूमिका में आ जाएंगे.
- उपर्युक्त बिंदु के चलते सरकार और समाचार संगठनों के बीच रिश्ते में बदलाव आएगा. आज ही हम देख पा रहे हैं कि मुख्यधारा के ज्यादातर समाचार संस्थान न केवल राज्य के प्रवक्ता की भूमिका निभा रहे हैं बल्कि चार कदम आगे बढ़कर राज्य की नीतियों का प्रसार करने में जुटे हुए हैं और राज्य के ‘अदृश्य’ शत्रुओं की खुद-ब-खुद शिनाख्त भी कर रहे हैं. ‘’शहरी नक्सल’’ वाले मामले में हमने देखा है कि अरनब गोस्वामी ने रिपब्लिक टीवी के माध्यम से कैसे बुद्धिजीवियों को चुन-चुन कर लक्षित करने और अपमानित करने का काम किया है. आने वाले वक्त में ‘’आंतरिक सुरक्षा’’ के संदर्भ में चैनलों और राज्य का रिश्ता न केवल परस्पर सहयोगी बल्कि मधुर भी होगा. मीडिया और राज्य दोनों एक इकाई के तरह मिलकर काम करेंगे. आज जो झीना परदा दिखता है, वह नहीं रहेगा.
- समाचार कवरेज का विस्तार: ऑटोमेशन के माध्यम से बेहद मामूली घटनाओं का वृहद कवरेज मुमकिन होगा, जैसे कोई सेलिब्रिटी शादी, बोर्ड बैठक, डॉग शो किसी घर या दुकान में चोरी या फिर किसी का अंतिम संस्कार. इसमें खबर दिखाने का उद्देश्य अहम नहीं होगा, खबर को उसके सूक्ष्म विवरणों में दिखाया जाना ही साध्य होगा.
- खबरों में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस हमारे/आपके चेहरे के भाव पढ़ सकेगा. सेशल मीडिया पर लाइक, डिसलाइक, कमेंट और शेयरिंग के विश्लेषण के माध्यम से समाचार संगठन ज्यादा करीबी से जान पाएंगे कि उनके असल दर्शक कौन हैं, उनकी कौन सी खबरें कहां पसंद या नापसंद की जा रही हैं और किस किस्म की खबरों पर उन्हें ज्यादा काम करना है. इस तरह खबरें ज्यादा कस्टमाइज़, वर्ग-केंद्रित और अभिजात्य होती जाएंगी. जिसे हम आज मास मीडियम कहते हैं, वह विशुद्ध क्लास मीडियम या उससे भी छोटा बनकर रह जाएगा.
- जिस निजता पर सड़क से लेकर संसद तक पिछले एक साल से बहस चल रही है, न्यूज़ में वीआर के आने से उसका पूरी तरह हनन हो जाएगा. निजता का भ्रम भी नहीं बचेगा.
इस सांड़ को कौन भगाए
टीवी समाचार मीडिया में जिसे हम “कमरे में मौजूद हाथी” कह रहे हैं, वह दरअसल अपने चरित्र में हाथी नहीं, सांड़ है. टीवी मीडिया में तकनीक और प्रौद्योगिकी से बड़ी समस्या आज की तारीख में कोई नहीं है. उस पर से दिक्कत यह है कि यह सांड़ लाला का पाला-पोसा है. वह पूरी तरह प्रोग्राम्ड है. इसीलिए वह लाल कपड़े से बिदकता है. वह असहमति पर भड़कता है. वह यथार्थ से डरता है. उसे तर्क पसंद नहीं. उसे स्वाभाविकता रास नहीं आती. वह भावनाओं से तभी सटता है जब वे बिकाऊ हों. वह इतना विशाल और भव्य है कि दूसरे के लिए स्पेस नहीं छोड़ता. वह अपनी बेचैनी में इधर-उधर मुंह मारता है. उसे लेकर दहशत तो है, लेकिन दहशत का कोई चेहरा नहीं है. सब राममिलन तिवारी बने अपनी-अपनी कोठरी में कैद हैं. ऐसा अहसास होता है कि पूरे गांव को ही इस सांड़ ने बंधक बना लिया है लेकिन इसकी गवाही देने वाला सामने कोई नहीं है.
जो संकट अलीम शेख की स्क्रिप्ट के साथ था, दरअसल हूबहू वही संकट इस देश में समाचार दिखाने वाले टीवी चैनलों के साथ कुछ वर्षों में आने वाला है. अलीम शेख की स्क्रिप्ट में तो ड्रोन तिवारी के घर के भीतर से शॉट ले आएगा और उसे अतिरंजित करके, सजाधजा कर, एक सच्ची कहानी तरह पेश किया भी जा सकेगा. असल सवाल इस देश के न्यूज़रूमों में काम कर रहे पत्रकारों से है जिनमें कुछ तो आज भगवान बने बैठे हैं जबकि ज्यादातर इंसान से भी बदतर स्थिति में ईएमआइ चुकाते हुए जी रहे हैं. जिस दिन मालिकान के लिए उनकी ज़रूरत खत्म हो जाएगी, क्या उसी दिन वे सांड़ को भगाने का नारा उछालेंगे?
2018 बीत चुका है. चैनलों ने खबरों की जगह खालिस विचारधाराओं को अपना कर देख लिया है. अब खबरों की ओर वापसी करना धंधे की मजबूरी है लेकिन जनता इस बीच अपने हिसाब से तथ्य चुनना सीख चुकी है. उसने पत्रकारों को अपनी आस्था का केंद्र भी बना लिया है. पत्रकार अपने चुने पाले में फंसा हुआ महसूस कर रहा है. दूसरी ओर मोबाइल वजूद के संकट की तरह टीवी के सामने खड़ा है. मालिकान को समझ नहीं आ रहा है कि पांच महीने बाद अगर केंद्र में सरकार बदली, तो मुंह छुपाना फायदेमंद रहेगा या और ज्यादा नंगा होना? ऐसी जटिल स्थिति में एक रिपोर्टर के पास साइन ऑफ करने के लिए इससे बेहतर शब्द नहीं होंगे-
“यह देखना दिलचस्प होगा कि पूरे घटनाक्रम का क्लाइमैक्स क्या होता है.”
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