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2018: परदे के आगे से ज्यादा तब्दीलियां परदे के पीछे आ रही
नया साल आ चुका है. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री नई तैयारियों और उम्मीदों के साथ 2019 में सक्रिय हो जाएगी. अभी से अंदाजा है कि अगले साल किस स्टार की कौन सी फिल्म कब आएगी? सभी बड़े स्टार की फिल्मों के प्रदर्शन की तारीखें तक घोषित हो चुकी हैं. न्यू इंडिया की तर्ज पर यह हिंदी फिल्मों की न्यू इंडस्ट्री है. चीजें तेजी से बदल रही हैं. ऊपरी तौर पर समान और सामान्य दिख रही इंडस्ट्री में सतह के नीचे काफी हलचल है. जोड़-तोड़ चल रहे हैं. नए समीकरण बन रहे हैं.
2018 के नतीजों और प्रदर्शन ने समीकरण के साथ संबंधों को भी बदल दिया है. कहते हैं कि राजनीति की तरह ही फिल्म इंडस्ट्री में भी कोई स्थायी दुश्मन या दोस्त नहीं होता. दुश्मन की बात में अधिक सच्चाई नहीं है, क्योंकि यहां दुश्मनी लंबे समय तक निभाई जाती है. हां, दोस्त स्थायी नहीं होते. ज़रुरत और मांग के मुताबिक दोस्ती बनती-बिगड़ती रहती है. व्यवहारिकता और पसरती मुस्कान के बावजूद नफा-नुकसान ही सब कुछ तय कर रहा होता है.
2018 बीतने के साथ वर्षांत में टॉप 10 की सीरीज चल रही है. सभी अपनी पसंद की फिल्म, स्टार और इंडस्ट्री के बाकी क्षेत्रों की सूची बना रहे हैं. सूचियों से सहमति-असहमति के बावजूद इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि फिल्म इंडस्ट्री का परिदृश्य बदल गया है. दर्शक बदले हैं और बदला है फिल्मों का बिजनेस. फ़िल्में पहले की तरह ही सुनिश्चित टेरिटरी में बंट रही हैं. प्रदर्शित हो रही हैं, लेकिन उनसे होने वाले कलेक्शन में पिछले कुछ सालों में तेजी से परिवर्तन आया है. 2018 में फिल्मों के प्रदर्शन और कलेक्शन ने इसके साफ़ संकेत दिए हैं. इन संकेतों के आधार पर ही 2019 और आगे के सालों की फिल्मों के विषय, ट्रीटमेंट, फोकस और मार्केट में तब्दीली आएगी.
बढ़ रहे हैं शहरी दर्शक, विलुप्त हुए हैं बाकी दर्शक
हिंदी प्रदेशों के दर्शक भले ही इस गुमान में रहें कि वे ही हिंदी फिल्मों के वास्तविक दर्शक है और उनकी बदौलत हिंदी फिल्में चलती हैं. इसी गुमान में वे फिल्मी सितारों और उन हस्तियों के अंग्रेजी बोलने पर गरियाते रहते हैं कि ‘खाते हिंदी की हैं बोलते हैं अंग्रेजी में’. इस गाली और टिप्पणी में एक विरोधाभास है. सच्चाई यह है कि हिंदी फिल्मों का बड़ा बिजनेस मुंबई से आता है. इसके बाद दिल्ली का नंबर है, जिसे हम हिंदी प्रदेश नहीं कह सकते. और तीसरे नंबर पर बंगलुरु तेजी से आने को आतुर हैं. पिछले कुछ सालों में हिंदी फिल्मों का बिजनेस बंगलुरु में तेजी से बढ़ा है. उसका एकमात्र कारण बंगलुरु के आईटी उद्योग में कार्यरत उत्तर भारतीय हिंदीभाषी युवा हैं. उन युवाओं के गैर हिंदीभाषी मित्र हैं.
अगर इस हफ्ते प्रदर्शित रोहित शेट्टी की फिल्म ‘सिंबा’ का उदाहरण लें. यह फिल्म बेंगलुरु के 50 सिनेमाघरों के 224 शो में प्रदर्शित हुई है. खोजने जाए तो पूरे बिहार में 50 सिनेमाघर नहीं मिलेंगे. उनमें 224 शो की संभावना तो पैदा ही नहीं होगी. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के कुछ शहरों में मल्टीप्लेक्स आने के बावजूद सिनेमाघरों की संख्या उल्लेखनीय नहीं है. इन प्रदेशों में सिनेमाघर जाकर फिल्म देखने वाले दर्शकों की तादाद बढ़ने के बजाय घट रही है, क्योंकि सिनेमाघर लगातार टूट रहे हैं और खत्म हो रहे हैं.
दर्शकों के शहरी संकेंद्रण की वजह से फिल्मों के विषय, भाषा और ट्रीटमेंट में फ़र्क आ रहा है. फिल्में इन शहरों के युवा दर्शकों के लिए बनाई जा रही है. देश का शहरी युवा घर में अपने इलाके की बोली और भाषा का उपयोग करता है, लेकिन धीरे-धीरे उसके व्यवहार और संपर्क की भाषा हिंग्लिश और इंग्लिश होती जा रही है. इन दिनों गौर करें तो पाएंगे कि फिल्मों के दृश्यों में अनेक किरदार संवाद बोलते समय खाटी हिंदी का प्रयोग नहीं करते हैं या कम करते हैं. यदि उनके संवादों में अंग्रेजी शब्द या वाक्य आते हैं तो 20-25 साल पहले की तरह उनके अनुवाद या हिंदी में उसे उन्हें दोहराने की जरूरत नहीं समझी जाती. मान लिया जाता है और यह सच भी है कि हिंदी फिल्में देख रहे युवा अंग्रेजी समझते हैं.
मेट्रो शहरों से बाहर निकले तो हिंदी प्रदेशों की राजधानियों और चंद सेटेलाइट शहरों के बाहर के छोटे शहरों और कस्बों में सिनेमाघर खत्म होते जा रहे हैं. देहाती दर्शक तो विलुप्त हो गए हैं. उनके लिए सिनेमाघर नहीं है. समाज को उनकी चिंता नहीं. दूसरे उन्हें फुर्सत भी नहीं है कि वे आसपास के कस्बों और शहरों में फिल्में देखने जाएं. उनके हाथों में अभी स्मार्टफोन है. इंटरनेट गांव-देहात के उनके घरों में पहुंच रहा है और इनके साथ वैध=अवैध तरीके से पहुंच रहा है सिनेमा.
सिनेमाघरों से वंचित और विलुप्त होते दर्शक फिल्में तो देख रहे हैं, लेकिन उनका रिवेन्यू सीधे निर्माताओं की जेब में नहीं जा रहा है. देश के दर्शकों के बड़े तबके तक हिंदी सिनेमा नहीं पहुंच रहा है. पारंपरिक ढांचा टूट चुका है और नए पुल बनाने में किसी की रुचि नहीं है. प्रादेशिक सरकारों की सारी ऊर्जा सत्ता संतुलन में ही खर्च हो जाती है. फिल्मों के प्रदर्शन, व्यापार और विस्तार की तरफ उनका कोई ध्यान नहीं है. कुछ राज्यों में फिल्म नीति बनी है और कुछ राज्य सालों से फिल्म नीति बनाने की सोच रहे हैं.
कहीं नहीं गए हैं खान
नए सितारों के लिए अभी ऊंची है चढ़ान. ‘जीरो’ का कलेक्शन कम होने के साथ ही स्थापित फिल्म समीक्षक, स्तंभकार और रिपोर्टर खानत्रयी (आमिर, शाहरुख और सलमान) की विदाई की गाथा लिखने लगे. श्रद्धा फट से श्रद्धांजलि में बदल गई. किसी ने कहा कि खान का युग बीत गया और नए सितारे दस्तक देने आ गए हैं. ‘रेस-3’, ‘ठग्स ऑफ हिंदोस्तान’ और ‘ज़ीरो’ की अपेक्षाकृत असफलता ने उन्हें तर्क दिया कि वे भविष्यवाणियां कर सकें.
पूजा से अधिक विसर्जन में गदगद और उल्लास में रहने वाले समाज के कथित विश्लेषक और जानकार दशकों से स्थापित स्टार की मूर्तियां तोड़ने लगे. उदीयमान सितारों आयुष्मान खुराना, राजकुमार राव और विकी कौशल के नाम गिनाए जाने लगे. उनकी फिल्मों के कलेक्शन के उल्लेख के साथ साबित किया जाने लगा कि फिल्म इंडस्ट्री की बागडोर भविष्य के इन सितारों के हाथ में है. निश्चित ही नए सितारे आएंगे और पुराने को नेपथ्य में जाना होगा, लेकिन हड़बड़ी में निष्कर्ष निकाल रहे विश्लेषकों को अभी 2019 का इंतजार करना चाहिए.
देखना होगा कि बॉक्स ऑफिस की खनखनाहट नए सितारों की फिल्मों की रिलीज पर बढ़ती है या नहीं? दूसरे खानत्रयी का जलवा उनकी फिल्मों के कम कलेक्शन के बावजूद बरकरार है. ना तो उनके स्टारडम में कमी आई है और ना उनके एंडोर्समेंट कम हुए हैं. आमिर खान, शाहरुख खान और सलमान खान जल्दी ही नए पैंतरों के साथ चमकते दिखाई पड़ेंगे. यकीन मानिये.
रही बात उदीयमान सितारों की. इन सभी की लोकप्रियता बढ़ी है. कंटेंट और परफॉर्मेंस की वजह से इनकी फिल्में सीमित बजट में होकर भी जादुई 100 करोड़ के आंकड़े पार कर सकी हैं. मगर इन फिल्मों का मुआयना करें तो पाएंगे अन्यान्य कारणों से इन फिल्मों को दर्शक मिले. निश्चित ही विषय और ट्रीटमेंट की नवीनता इन फिल्मों का बड़ा आकर्षण रही. इसके साथ ही फिल्म के सहयोगी किरदारों को निभा रहे समर्थ और योग्य कलाकारों ने दर्शकों को बांधे रखा. संयोग कुछ ऐसा बना कि उदीयमान सितारे ऐसी फिल्मों के प्रमुख किरदार थे. हिंदी फिल्मों में कामयाबी का श्रेय और दोष हमेशा से फिल्म के कथित हीरो के मत्थे रहता है. इसी कारण ऐसी फिल्मों की कामयाबी और कमाई का सेहरा उन्हें मिल गया. उनकी आगामी फिल्मों से तय होगा कि उनके स्टारडम का ठोस आधार बना है या नहीं? फिलहाल उन पर नजर है और वे सम्मान, पुरस्कार और उल्लेख पा रहे हैं.
हिंदी फिल्मों में स्टारडम की चढ़ाई खड़ी और तीक्ष्ण मोड़ों से भरी होती है. शीर्ष तक पहुंचने के पहले अनेक फिसलन होती है. एक जरा सी चूक उदीयमान सितारों को गुमनामी के गर्त में धकेल देती है. पिछले दशकों में हमने कई सितारों को लाइमलाइट से गर्दिश में जाते देखा है. फिलहाल हम यही उम्मीद कर रहे हैं कि 2019 में उदीयमान सितारों की चमक और धमक दोनों बढ़ेगी.
ऑनलाइन स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म
2018 में इंटरनेट के प्रसार और ऑनलाइन स्ट्रीमिंग की सुविधा से नेटफ्लिक्स और अमेजॉन जैसे प्लेटफार्म ने दुनिया भर के रोचक और एंटरटेनिंग शो और फिल्म की तलाश को आसान कर दिया है. निश्चित रकम देकर दर्शक दिन-रात इन प्लेटफार्म से मनचाहा प्रोग्राम देख सकते हैं. इससे मनोरंजन के दायरे के साथ समझ का विस्तार हो रहा है. दोनों विदेशी प्लेटफार्म के साथ देश के अंदर विकसित अनेक छोटे प्लेटफार्म अपनी जगह बना रहे हैं. दर्शकों को घर बैठे भरपूर मनोरंजन मिल रहा है. उन्हें अब सिनेमाघरों में जाने की जरूरत नहीं उठानी पड़ती. केवल कॉन्सेप्ट फिल्मों की चर्चा और इवेंट फिल्मों की आमद ही उन्हें सिनेमाघरों की ओर खींचती है.
आलसी दर्शकों की संख्या बढ़ रही है. ‘फर्स्ट डे फर्स्ट शो’ का क्रेज कमजोर हुआ है. याद करे तो सिनेमाघरों के बाहर कोई भीड़ नजर नहीं आती. सर्वाधिक ओपनिंग की फिल्म ‘ठग्स ऑफ हिंदोस्तान’ के टिकट भी पहले दिन उपलब्ध थे. स्पष्ट है कि चलती-फिरती तस्वीरों से मनोरंजन के माध्यम तेजी से नए स्वरूप में उभर रहे हैं.
‘सैक्रेड गेम्स’ और ‘मिर्जापुर’ दो वेब सीरीज के गहन प्रचार और सघन स्वीकृति ने निर्माताओं और प्रोडक्शन कंपनियों को उकसाया है कि वे अब दो-तीन घंटे की कहानी की सीमा से बाहर निकले. मुंबई में इन दिनों हर कलाकार और तकनीशियन किसी न किसी वेब सीरीज के निर्माण से जुड़ा है. ठीक है कि अभी वेब सीरीज की बाढ़ में ढेर सारा कचरा भी पैदा हो रहा है. सेंसर की कैंची ना होने से दर्शकों को लुभाने के लिए हिंसा और सेक्स पर जोर दिया जा रहा है. इसके साथ ही नैतिकता के आग्रही आवाज उठा रहे हैं उन्हें देश की संस्कृति पर खतरा महसूस हो रहा है. इस हड़बोंग में समय के साथ भारतीय परिवेश में वेब सीरीज को अपनी प्रणाली विकसित होगी.
ऑनलाइन स्ट्रीमिंग के प्लेटफार्म फीचर फिल्मों के प्रसारण का मंच भी बन रहे हैं. 2018 में ‘लव पर स्क्वायर फीट’, ‘लस्ट स्टोरीज’, ‘वंस अगेन’ और ‘राजमा चावल’ जैसी फिल्में देखने को मिली. ऐसी फिल्मों की संख्या बढ़ने के साथ यह भी संभावना तलाश की जा रही है कि सिनेमाघरों में रिलीज हो रही फ़िल्मों का टारगेट प्रसारण किया जा सके. तात्पर्य है कि जिन इलाकों में सिनेमाघर नहीं हैं, वहां के दर्शकों के लिए नियमित सिनेमाघरों में रिलीज हो रही फिल्मों का प्रसारण साथ-साथ किया जा सके. इंटरनेट सुविधा मुहैया कर सकता है कि 40-60 वर्ग किलोमीटर के दायरे में किसी इलाके के दर्शकों के लिए किसी खास फिल्म का प्रसारण किया जा सके.
राष्ट्रवाद की अतिरंजना
सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टी के दबाव से ज्यादा चापलूसी में फिल्मकार राष्ट्रवाद की आतिरंजना के शिकार हो रहे हैं. ‘परमाणु’ जैसी बेहतरीन फिल्म राष्ट्रवाद के भार से अपना प्रभाव खो बैठती है. प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीके से वर्तमान सरकार की हिंदू राष्ट्रवाद की धारणा फिल्मों में मुखरित हो रही है. पिछले दो सालों में ऐसी अनेक फिल्में चयनित की जा सकती हैं, जिनमें अनावश्यक रूप से बेवजह ही विषय और शब्दों में राष्ट्रवाद का लेप चढ़ाया गया.
राष्ट्रवाद की कलई जल्दी उतर जाएगी या कम से कम हमें यह उम्मीद करनी चाहिए कि फिल्में इस दलदल में जाने से बचेंगी. राष्ट्रवाद के नवाचार ने फिल्मकारों पर देशप्रेम का अतिरिक्त क्रिएटिव बोझ डाल दिया है. 2018 में इसका असर दिखा.
वर्षांत की समीक्षा में हम 10-20 श्रेष्ठ रचनात्मक कोशिशों का उल्लेख अवश्य करें और उनकी सूची भी बनाए, लेकिन इसके साथ ही हमें इन सूचियों को प्रभावित कर रही प्रवृत्तियों पर भी नजर रखनी होगी. 2019 राजनीतिक उथल-पुथल का साल होगा. मनोरंजन की दुनिया भी उथल-पुथल से डगमगाएगी.
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