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मुस्लिम-भाजपा-संघ त्रिकोण: क्या है इस नए समीकरण का भविष्य?
2017 में बाबरी मस्जिद का मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में शुरू हुई. इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट और बाबरी मस्जिद के पक्षकारों का सामना एक बिल्कुल नयी परिस्थिति से हुआ. उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने और योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री नियुक्त होने के कुछ ही हफ़्तों के भीतर ही “उत्तर प्रदेश शिया वक़्फ़ बोर्ड” का उदय हुआ.
शिया वक़्फ़ बोर्ड की पुनर्स्थापना के समय यह एक आम धारणा बनी थी कि शायद शिया वक़्फ़ सम्पत्तियों का ब्यौरा और लेखा-जोखा अब शिया वक़्फ़ बोर्ड करेगा, लेकिन असल में इस नवगठित बोर्ड की मंशा कुछ और ही थी.
बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि के मामले की सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू होने के साथ ही शिया वक़्फ़ बोर्ड ने अदालत में दावा कर दिया कि शिया वक़्फ़ बोर्ड को बतौर पक्षकार इस मामले में शामिल किया जाय. थोड़ा और समय बीतते-बीतते शिया वक़्फ़ बोर्ड ने यह दावा करके हल्ला मचा दिया कि बाबरी मस्जिद शियाओं की मस्जिद है, इसलिए इस पर शिया वक़्फ़ बोर्ड का हक़ बनता है. ख़ुद को पक्षकार घोषित करने के साथ ही शिया वक़्फ़ बोर्ड ने यह भी कहा कि सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को बाबरी मस्जिद पर अपना दावा छोड़ देना चाहिए.
इस मामले को लेकर शिया वक़्फ़ बोर्ड के चेयरमैन वसीम रिज़वी ने कई प्रेस विज्ञप्तियां जारी कीं. बाबरी मस्जिद पर शिया वक़्फ़ बोर्ड का दावा ठोंकते-ठोंकते वसीम रिज़वी एक क़दम और आगे चले गए. रिज़वी ने नरेंद्र मोदी, योगी आदित्यनाथ और साथ ही साथ दूसरे संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को पत्र लिखकर कहा कि बाबर ने बाबरी मस्जिद का निर्माण शर्तियां तौर पर मंदिर को तोड़कर किया था, और चूंकि मस्जिद शिया समाज की है तो शिया वक़्फ़ बोर्ड यह मांग रखता है कि विवादित स्थल पर राम मंदिर के निर्माण के लिए सरकार को जल्द से जल्द क़दम उठाए. रिज़वी ने यह भी कहा कि मुस्लिम समुदाय को यदि मस्जिद की इतनी ज़रूरत महसूस होती है तो शहर से बाहर सरयू नदी के पार मस्जिद के निर्माण की व्यवस्था की जा सकती है.
इसके साथ ही वसीम रिज़वी ने ताजमहल और हुमायूं के मक़बरे को लेकर भी अपनी ख़्वाहिश ज़ाहिर की कि चूंकि ये आक्रांताओं द्वारा बनाए गए हैं, इसलिए इन्हें ज़मींदोज़ कर देना चाहिए और उक्त स्थान का उपयोग सामाजिक कार्यों के लिए करना चाहिए. इस साल के शुरुआती महीनों में जब सरयू नदी के किनारे राम की विशाल मूर्ति की स्थापना करने की बात शुरू हुई तो रिज़वी ने यह भी कहा कि उस राम की मूर्ति के लिए चांदी से जड़े हुए तीर भी शिया वक़्फ़ बोर्ड भेंट करेगा.
शिया वक़्फ़ बोर्ड या वसीम रिज़वी की यह बयानबाज़ी उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार बनने के बाद से बढ़ी है. ऐसा नहीं कि यह कोई अलग मामला है. उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद से शिया मुस्लिमों के बड़े हिस्से का भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे के प्रति समर्पित होना, दिखना और उसे प्रसारित करने का चलन बढ़ा है.
हमसे बातचीत में वसीम रिज़वी यह बताने में ज़रा भी नहीं हिचकिचाते कि बीती सरकारों में शिया मुसलमानों ने अपनी मंशा क्यों ज़ाहिर नहीं की. वो कहते हैं, “भाजपा की सरकार आने के बाद से हमें मौक़ा मिला कि हम अपनी बात रख सकें, ज़ाहिर कर सकें कि हम क्या चाहते हैं.” ऐसा कहते हुए वसीम रिज़वी यह दलील देते हैं कि सुन्नी समाज ने ख़ासतौर पर शिया मुस्लिमों को मुस्लिम समुदाय का हिस्सा माना ही नहीं.
रिज़वी बताते हैं, “वैसे ही शिया मुस्लिम भारत में मुसलमानों की कुल आबादी का बमुश्किल 15-20 प्रतिशत हैं. और बहुसंख्यक सुन्नी समाज ने हम अल्पसंख्यकों को मुस्लिम समुदाय का हिस्सा माना ही नहीं. हम अपनी पहचान के लिए भटकते रहे, कभी-कभी किसी राजनीतिक दल ने थोड़ा आश्रय दे दिया लेकिन हमारी भूमिका हमेशा अदनी-सी ही रही.”
रिज़वी आगे कहते हैं, “लेकिन भाजपा ने कई शिया मुस्लिमों को केंद्रीय भूमिका दी. हमारे यहां प्रदेश में भी कई शिया नेता भाजपा की ही बदौलत अपनी बात रख पा रहे हैं, ऐसे में शिया समुदाय अगर भाजपा के साथ खड़ा है तो क्या दिक़्क़त है? सुन्नी मुसलमान बहुत पहले से मौक़ापरस्त तरीक़े से अपने वोट का खेल खेलते हैं, वे कहां से शिकायत करने के क़ाबिल हो सकते हैं.”
अवध के नवाबों की परंपरा से ताल्लुक़ रखने वाले बुक्कल नवाब समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता माने जाते रहे. मुलायम सिंह यादव के क़रीबी रहे बुक्कल नवाब शिया समुदाय का भी कई मंचों पर प्रतिनिधित्व करते रहे. 31 जुलाई 2017 को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की मौजूदगी में बुक्कल नवाब ने भाजपा की सदस्यता ले ली और पार्टी के प्रदेश कार्यकारी समिति के महत्त्वपूर्ण नेता के रूप में उभरे. मई 2018 में बुक्कल नवाब भाजपा के टिकट पर विधान परिषद के सदस्य चुने गए.
खुले तौर पर भाजपा और संघ की राजनीति का समर्थन करने वाले बुक्कल नवाब शिया मुस्लिमों के इस हालिया झुकाव पर बात करते हुए संघ परिवार या विश्व हिंदू परिषद जैसी संस्थाओं का नाम लेने से बचते हैं. हमसे बात करते हुए कहते हैं, “मैं बार-बार भाजपा के बारे में बात कर रहा हूं और आप संघ परिवार पर क्यों प्रश्न कर रहे हैं?”
बुक्कल नवाब कहते हैं, “नरेंद्र मोदी जब 2014 में प्रधानमंत्री पद के दावेदार हुए थे, तब से लेकर मोदीजी ने या पार्टी ने एक बार भी हिंदू-मुस्लिम अलगाव की बात की हो तो बताइए. 2014 में पार्टी राम मंदिर को मुद्दा बना सकती थी, लेकिन नहीं बनाया. इसका मतलब साफ़ है कि पार्टी ‘सबका साथ-सबका विकास’ की नीति पर काम कर रही है.”
बुक्कल नवाब को भाजपा के 2014 के चुनावी घोषणापत्र- जिसमें राम मंदिर बनाने का वादा है- के बारे में और तमाम ऐसे भाषणों का हवाला देने पर जिनमें श्मशान-कब्रिस्तान या हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के ज़रिए धार्मिक उन्माद को फैलाने की कोशिश की गयी, बुक्कल नवाब कुछ सेकंडों के लिए सकपका जाते हैं. फिर वे कहते हैं, “ऐसा पहले होता था, लेकिन अब नहीं.”
वे आगे कहते हैं, “देखिए! पहले ऐसा था कि मोदी को एक साम्प्रदायिक व्यक्तित्व माना जाता था, अब ऐसा कुछ नहीं है. मुस्लिमों को अपनी क्षेत्रीय पहचान से ऊपर उठकर मुख्यधारा में आना चाहिए. और ऐसी हालत में मौक़ापरस्त पार्टियों से उन्हें दूरी बनानी चाहिए जो उन्हें वोटों के लिए इस्तेमाल करती हैं. भाजपा के साथ यही सहूलियत है कि वह मुस्लिम तुष्टिकरण की बात करके वोटबैंक की राजनीति नहीं करती है, और ऐसे ही समावेशी धड़े के साथ मुसलमान धीरे-धीरे जुड़ रहा है.”
कुछ महीनों पहले ही बुक्कल नवाब ने यह बयान देकर सुर्खियों में जगह बनायी थी कि अगर अयोध्या में विवादित स्थल पर मस्जिद का निर्माण होता है तो कोई मुस्लिम वहां नमाज़ पढ़ने नहीं जाएगा. हमसे बातचीत में वे कहते हैं, “बाबरी मस्जिद की पैरोकारी करने वालों ने कोर्ट में लड़ाई लड़ने के नाम पर दो-दो कमरों के मकानों से बढ़ा-चढ़ाकर कोठियां बनवा लीं, बड़ी-बड़ी गाड़ियां ख़रीद लीं. लेकिन बाबरी मस्जिद अभी तक नहीं बनवा पाए.”
वे आगे कहते हैं, “और बनवा भी लें तो क्या? कोई लखनऊ या आसपास के इलाक़ों से कितने मुसलमान बाबरी मस्जिद पांच वक़्त की नमाज़ पढ़ने जाएंगे. ऐसे में देश की मर्ज़ी और भावना का ख़याल करते हुए उक्त स्थान पर राम मंदिर का निर्माण किया जाना चाहिए.”
उत्तर प्रदेश, जहां पूरे भारत के शिया मुस्लिमों का सबसे बड़ा हिस्सा रहता है, में राजनीतिक परिदृश्य में शिया मुस्लिमों के पास बातचीत का सबसे बड़ा हथियार राम मंदिर का मुद्दा है.
फ़ैज़ाबाद के वरिष्ठ पत्रकार और हिन्दी-उर्दू अख़बार ‘आपकी ताक़त’ के संपादक मंज़र मेंहदी कहते हैं, “आप ये बात तो तय मानिए कि बाबरी मस्जिद असल में शिया मस्जिद ही है. लेकिन इस पर जो विवाद शिया वक़्फ़ बोर्ड ने खड़ा किया है, वह बचकाना है. कोई मस्जिद शिया द्वारा बनवायी हो या सुन्नी द्वारा, उसमें नमाज़ सभी पढ़ते हैं. और बाबरी मस्जिद को शिया या सुन्नी की मस्जिद मानकर नहीं गिराया गया था, उसे बस मस्जिद मानकर गिराया गया था और बाद हुई हिंसा में भी सिर्फ शिया या सुन्नी नहीं बल्कि सभी मुसलमान मारे गए थे.”
कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुस्लिम समुदाय में ध्रुवीकरण तेज़ हुआ है. लखनऊ और आसपास के इलाक़ों में बहुतायत से पाए जाने वाले शिया मुस्लिमों का संघ के एजेंडे के प्रति झुकाव धीरे-धीरे बढ़ रहा है. इसी तरह कुछ सुन्नी मुस्लिम समूह भी संघ के एजेंडे को समर्थन देते दिखते हैं लेकिन दोनों धड़ों में संघ व भाजपा को समर्थन देने के पीछे के कारणों में भयानक अंतर पसरा हुआ है.
प्रदेश के लखनऊ, बाराबंकी और आसपास के इलाक़ों और सोशल मीडिया पर भी भेजे जा रहे कई मुस्लिम नेताओं के पोस्टर देखे जा सकते हैं, जिनमें मुस्लिम नेता राम मंदिर बनवाने और उसके लिए यथासंभव आंदोलन करने की अपील करते हैं. लखनऊ के कुंवर मोहम्मद आज़म खान भी ऐसे ही एक नेता हैं. मोहम्मद आज़म खान ने कुछ महीनों पहले मीडिया के लिए एक वाट्सऐप ग्रुप बनाया था, जिसमें ग्रुप एडमिन की ओर से पहला ही संदेश था कि “जो पत्रकार राम का नहीं, वह इस ग्रुप का नहीं, इस देश का नहीं.”
आज़म खान राम मंदिर के लिए आंदोलनरत तो हैं ही, उसके लिए तमाम बैठकें भी करते रहते है. वे अयोध्या स्थित विश्व हिंदू परिषद की बनायी हुई कार्यशाला जाते हैं और मंदिर के निर्माण के लिए पत्थर तराशते हैं. साथ ही साथ वे देवाशरीफ़ जाकर राम मंदिर के निर्माण की दुआ मांगते हुए चादर चढ़ाकर आते हैं. कोई भी बात करने के पहले आज़म खान कहते हैं, “सारी बातों के पहले मैं एक बात साफ़ कर देना चाहता हूं कि मेरा पूरा नाम राष्ट्रवादी मोहम्मद आज़म खान है.”
आज़म खान बताते हैं कि मुस्लिम समुदाय में संघ और विहिप के एजेंडे के प्रति समर्पण दिखना दरअसल एक तरह की शांति की क़वायद है, इसमें मुस्लिम समुदाय के भीतर के संघर्ष की भूमिका कम से कम है. आज़म खान कहते हैं, “मुस्लिम समुदाय को लम्बे समय तक वोट के लिए इस्तेमाल किया गया. और ऐसा करते समय समुदाय को यह बताया गया कि यह उनके धार्मिक हितों की रक्षा के लिए है. लेकिन समुदाय को यह समझ नहीं आया कि यह पार्टी विशेष के राजनीतिक हितों की रक्षा के लिए है. अब कुछ मुस्लिम यदि भाजपा और संघ के धड़े में जा रहे हैं तो उसके ग़लत मतलब नहीं निकाले जाने चाहिए.”
वे आगे कहते हैं, “मैं आज कहता हूं कि राम मंदिर का निर्माण होना चाहिए. मेरा साथ देने वाले बहुत सारे लोग ऐसा कहते हैं. ऐसी मांग के पीछे मक़सद सिर्फ़ इतना है कि विहिप के झंडे तले राम मंदिर का निर्माण अयोध्या में होना चाहिए, लेकिन वह अंतिम अध्याय होना चाहिए. उसके बाद ‘काशी-मथुरा बाक़ी है’ की मुहिम पर सोचना या किसी क़िस्म का बंदोबस्त भी बंद हो जाना चाहिए.”
शिया मुस्लिमों की भागीदारी पर आज़म खान कहते हैं, “दरअसल शिया होते तो हैं कट्टरपंथी, लेकिन इनका एक हिस्सा अब मौक़ापरस्त दिखने लगा है. वह अब सत्ता और शक्ति के साथ खड़ा दिखता है. और इसे अंजाम देने के लिए वह तमाम बेहूदा हरकतें भी कर रहा है.”
हाल ही में वसीम रिज़वी ने “राम जन्मभूमि” नाम से फ़ीचर फ़िल्म का निर्माण किया है. इस फ़िल्म में मशहूर अभिनेता गोविंद नामदेव का किरदार निगेटिव है, जबकि फ़िल्म को लिखने वाले वसीम रिज़वी ख़ुद केंद्रीय भूमिका में हैं. फ़िल्म का ट्रेलर और दो पोस्टर जारी हो चुके हैं. एक पोस्टर में बाबरी मस्जिद के ऊपर भगवा झंडा लहराता दिख रहा और दूसरे में हाथ में हथियार लिए एक मुस्लिम अयोध्या-बनारस के घाटों को देख रहा है.
प्रिन्स याकूब हबीबुद्दीन तुस्सी स्वघोषित रूप से बाबर के वंशज हैं. तुस्सी बीते साल प्रकाश में आए जब संघ के नेताओं के साथ उन्होंने लखनऊ में प्रेस कॉन्फ़्रेन्स को सम्बोधित किया और विवादित स्थल पर राम मंदिर बनाने की पेशकश कर डाली. अपने बाद के बयानों में भी तुस्सी राम मंदिर बनाने की बात करते आए हैं और इसके पीछे वे बाबरनामा का ज़िक्र करते हैं और कहते हैं कि उनके पूर्वज बाबर ने अपनी माफ़ी लिखी हुई है.
लेकिन अब तुस्सी संघ और मुस्लिमों के बीच काम कर रहे संघ के संगठन मुस्लिम राष्ट्रीय मंच से किनारा कर रहे हैं और इसके पीछे उनका अपना ग़ुस्सा है. वे कहते हैं, “संघ प्रमुख मोहन भागवत ने चार सालों में बस एक बार राम मंदिर का नाम लिया है. और मुस्लिम राष्ट्रीय मंच ने भी मुसलमानों के बीच काम करने के बहाने से सिर्फ़ राजनीतिक ज़मीन तैयार की है, उनके पास भी कार्रवाई के लिए कोई तैयारी नहीं दिख रही थी. और अलबत्ता वे वसीम रिज़वी की फ़िल्म को मदद कर रहे हैं, जिसके प्रदर्शन के बाद देश में दंगे होने की आशंका है. इस फ़िल्म के प्रदर्शन को हर हाल में रोका जाना चाहिए, लेकिन संघ चाहता है कि शियाओं को साधकर धार्मिक उन्माद फैलाया जाए.” ऐसा कहते हुए तुस्सी बताते हैं कि आगे वे हिन्दू महासभा के साथ मंच साझा करेंगे.
नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में भी ऐसे नज़ारे आम हैं. मुस्लिम महिला फाउंडेशन नामक संस्था के तहत बहुत सारी मुस्लिम महिलाएं रक्षाबंधन पर योगी आदित्यनाथ और नरेंद्र मोदी को राखी बनाकर भेजती हैं, वे तीन तलाक़ की प्रथा के ख़ात्मे के लिए यज्ञ करती हैं, गाय की पूजा करती हैं, हिंदू देवी-देवताओं की आरती उतारती हैं और ऐसा करने के पहले मीडिया को बुलावा दिया जाता है.
दरअसल मुस्लिम समुदाय के इस नए कलेवर के पीछे बड़ा हाथ भाजपा का नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के झंडे तले चल रहे मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का है. समझौता एक्सप्रेस धमाके के अभियुक्त इंद्रेश कुमार की अगुवाई में चल रहे मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का “मुख्य उद्देश्य” राष्ट्रवादी मुस्लिमों की पहचान और उन्हें मंच मुहैया कराना है. बुक्कल नवाब से लेकर वसीम रिज़वी तक, शिया समुदाय के ज्यादातर प्रतिनिधि मूलतः मंच की कंडीशनिंग का शिकार हैं. इसमें आज़म खान, प्रिन्स तुस्सी और मुस्लिम महिला फ़ाउंडेशन का नाम भी लिया जाना चाहिए.
हमसे बातचीत में इंद्रेश कुमार कहते हैं, “हमें सबसे पहले समझना होगा कि संघ और भाजपा को सबसे पहले मुस्लिम महिलाओं का समर्थन मिला है. हज़ारों-लाखों मुस्लिम महिलाओं ने मुस्लिम राष्ट्रीय मंच और संघ को पत्र लिखकर धन्यवाद दिया है कि हमने तीन तलाक़ को ख़त्म करने के लिए कड़े क़दम उठाए हैं, और अब भाजपा सरकार अध्यादेश लाने जा रही है.”
बक़ौल इंद्रेश कुमार, तीन तलाक़ ही सबसे बड़ा मुद्दा है जिसकी वजह से संघ और भाजपा ने मुस्लिमों के बीच अपनी पैठ मजबूत की है. वे कहते हैं, “अब मुस्लिम मर्द भी हमारे साथ इस वजह से जुड़ रहे हैं कि हम उन्हें ऐसी परम्पराओं से बाहर लेकर आ रहे हैं, जिनकी कोई संवैधानिक वैधता नहीं है.”
लेकिन संघ के प्रति समर्पण के बाबत सुन्नी और शिया समुदाय के बीच के झगड़े से पल्ला झाड़ते हुए इंद्रेश कुमार कहते हैं, “ये उनका आपसी मसला है, इसमें मैं या संगठन कुछ नहीं कर सकते हैं. लेकिन एक बात तो तय है कि दोनों समुदायों में भले ही कोई कॉन्फ़्लिक्ट हो, लेकिन धीरे-धीरे दोनों ही संघ और भाजपा के प्रति समर्पित दिख रहे हैं. लेकिन शिया समुदाय का समर्पण सबसे अधिक है.”
कुंवर आज़म खान के साथ-साथ प्रिन्स तुस्सी भी यह दावा करते हैं कि संघ के साथ काम कर रहा मुसलमान कार्रवाई देखना चाहता है, अगर संघ राजनीति करने पर ही अड़ा रहा तो यह समर्पण वोट की शक्ल में तब्दील नहीं हो सकेगा.
भारत में मुस्लिम समुदाय के सबसे बड़े संगठन ऑल इंडिया मजलिस-ए-मशावरत को बाक़ी मुस्लिम संगठनों का अम्ब्रेला संगठन भी कहा जाता है, जिसके अंतर्गत सभी बड़े संगठन आते हैं. इसके अध्यक्ष नावेद हमीद बातचीत में कहते हैं, “कोई मुस्लिम या उनका कोई समुदाय किसी प्रथा या किसी धार्मिक रीति के बारे में क्या सोचता है, यह उनका मत है और इसमें दख़ल नहीं किया जा सकता है. लेकिन यदि संघ और भाजपा यह समझ रहे हैं कि कुछ बातों की वजह से उन्हें मुस्लिम समुदायों का समर्थन मिल रहा है, तो यह उनकी बेवक़ूफ़ी है.”
नावेद आगे कहते हैं, “तुलनात्मक रूप से देखें तो मध्य प्रदेश और राजस्थान में कई सीटें मुस्लिम बहुत हैं, और मध्य प्रदेश में तीन-चार सीटें तो ऐसी थीं जहां शिया मुस्लिमों और मुस्लिम महिलाओं के वोट निर्णायक रूप से मौजूद थे, लेकिन भाजपा उन सीटों पर भी बुरी तरह से हार गयी. ऐसे में यह सोचना कि शिया-सुन्नी समुदाय या मुस्लिम महिलाओं का समर्थन भाजपा को वोट के रूप में मिलेगा तो यह ग़लत है. यह अल्पकालिक है, और आने वाले वक़्त में आपको पता चल जाएगा.”
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