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चुनाव जीतकर भी बहुत कुछ हार गई है कांग्रेस

पांच राज्यों के चुनाव नतीजे सामने हैं. साफ़ है कि मोदी-शाह के नेतृत्व में भाजपा का जो अश्वमेध पिछले कुछ सालों से अजेय दौड़ रहा था, वह न सिर्फ ठिठक कर ठहर गया है बल्कि मुंह के बल गिर ही पड़ा है. पांच में से किसी भी राज्य में भाजपा को जीत नहीं मिली है. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे वो राज्य भी भाजपा के हाथ से निकल गए हैं जिन्हें पार्टी का अभेद दुर्ग कहा जाता था.

वैसे, हर विधानसभा चुनावों में राज्य के स्थानीय समीकरण ज्यादा मायने रखते हैं. राज्यों में हार-जीत इन्हीं समीकरणों के आधार पर तय होती है. लेकिन बीते कुछ सालों से चुनावी समीक्षा के नए पैमाने गढ़े गए हैं. भाजपा की हर छोटी-बड़ी जीत का श्रेय सीधे नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और अमित शाह के कुशल प्रबंधन को दिया जाता रहा है. ऐसे में स्वाभाविक है कि हार का ठीकरा भी अब उन्हीं के सर फूटेगा. मीठा-मीठा गप्प और कड़वा-कड़वा थू राजनीति में नहीं चलता.

इन चुनाव नतीजों ने राहुल गांधी की स्वीकार्यता पर भी मुहर लगाई है. उनके नेतृत्व में यह कांग्रेस की अब तक की सबसे बड़ी जीत है. कहा जाने लगा है कि इन नतीजों ने राहुल को एक नेता के रूप में स्थापित कर दिया है. छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस के पास कोई स्थानीय चेहरा तक नहीं था. इसके बावजूद भी कांग्रेस ने वहां सबसे बड़ी जीत दर्ज की है तो इसका श्रेय राहुल गांधी को ही दिया जा रहा है. लेकिन राहुल की इस सफलता में क्या कांग्रेस पार्टी की जीत हुई है?

यह सवाल सिर्फ इसलिए ही नहीं उठता कि इन नतीजों को कांग्रेस की जीत से ज्यादा भाजपा की हार के रूप में देख जा रहा है. बल्कि यह सवाल इसलिए भी ज़रूरी हो जाता है क्योंकि राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस जो राह पकड़ रही है, वह उस कांग्रेस की राह तो बिलकुल नहीं है जिसकी नींव को आजाद भारत में खुद राहुल के नाना जवाहरलाल नेहरु ने रखा था. इस नई राह पर निकल पड़ी कांग्रेस की तस्वीर भविष्य में कैसी होगी, इसकी समीक्षा के लिए उस घटना का जिक्र जरूरी है जो इन चुनाव नतीजों से ठीक दो दिन पहले दिल्ली में हुई थी.

बीते रविवार को कई हिन्दू संगठनों ने मिलकर दिल्ली में एक ‘धर्म संसद’ का आयोजन किया था. राम मंदिर निर्माण को लेकर बुलाई गई इस धर्म संसद में हजारों लोग शामिल हुए. दिल्ली के रामलीला मैदान में जमा हुए इन लोगों ने दिल्ली की सड़कों पर रैली भी निकाली. इस रैली में नारे लगे, ‘एक धक्का और दो, जामा मस्जिद तोड़ दो.’ ये सब कुछ देश की राजधानी में खुलेआम और पुलिस प्रशासन की मौजूदगी में हुआ. इस घटना से भी ज्यादा चिंताजनक ये रहा कि जब ऐसे नारे लगाते लोगों के वीडियो सामने आए तो भी कहीं ऐसी प्रतिक्रिया नहीं हुई जैसी होनी चाहिए थी.

दो साल पहले जब जेएनयू में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ जैसे नारे लगे थे तो यह पूरे देश में चर्चा का विषय बना था. मीडिया ने इस मुद्दे को कई दिनों तक उठाया था और पूरे जेएनयू को ही देशद्रोही लोगों का अड्डा बता दिया था. जबकि वह नारे कुछ नकाबपोश लोगों ने लगाए थे जिन्हें दिल्ली पुलिस आज तक नहीं खोज सकी है. इसके उलट दिल्ली की सड़कों पर ‘जामा मस्जिद को गिराने’ के नारे खुलेआम और पुलिस की मौजूदगी में लगाए गए. हाथों में भगवा झंडे लिए लोगों ने खुले आम देश तोड़ने की बातें कही लेकिन न मीडिया में इसकी वैसी चर्चा हुई और न लोगों में वह आक्रोश नज़र आया. इससे इतना तो साफ़ है कि ‘जामा मस्जिद तोड़ दो’ जैसी बातें आज के भारत में सामान्य हो चुकी हैं. ये अब हमें विचलित नहीं करती.

अगर 90 के दौर में बाबरी मस्जिद न गिराई गई होती और गिराने वाले देश की सत्ता में न पहुंच गए होते तो क्या इसकी कल्पना की जा सकती थी कि दिल्ली की सड़कों पर कभी जामा मस्जिद तोड़ दो जैसे नारे लगेंगे? लेकिन सांप्रदायिकता के जो बीज 80 और 90 के दशक में बोया गए, ये उसी की फसल है जो आज देश भर में लहलहा रही है. और सांप्रदायिकता की इस फसल को जड़ से मिटाने की जगह राहुल गांधी इसे खाद-पानी देने का वही काम कर रहे हैं जो कभी उनके पिता राजीव गांधी ने किया था.

शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने का काम राजीव गांधी ने मुस्लिम धर्मगुरुओं के दबाव में किया था. अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का ये नायाब उदाहरण था. इसके चलते जब राजीव गांधी पर हिंदू भावनाओं का दबाव बढ़ा तो उन्होंने बहुसंख्यक तुष्टिकरण की राह पकड़ ली. बाबरी के ताले खुलवाने में उन्होंने अहम् भूमिका निभाई और परिणाम सारे देश ने भुगता. सांप्रदायिक ताकतों को इससे ज़बरदस्त हिम्मत मिली, बाबरी मस्जिद गिरा दी गई और पूरा देश सांप्रदायिकता की आग में झुलस गया.

राम मंदिर का मुद्दा आज फिर से ज्वलंत होने लगा है. हिंदूवादी ताकतें इस मुद्दे पर आम राय बनाने में इस कदर सफल रही हैं कि आज बाबरी का गिराया जाना बहुत पीछे छूट चुका है. ये सवाल आज किसी की जुबां पर नहीं है कि बाबरी को गिराने का अपराध करने वालों को सजा कब होगी? लोगों को सिर्फ यही इंतज़ार है कि राम मंदिर कब बनेगा.

बहुसंख्यक तुष्टिकरण की राह कितनी घातक हो सकती है, राहुल गांधी अपने पिता की गलतियों से भी शायद नहीं सीख सके. यही कारण है कि वो भाजपा से लड़ने के लिए कभी मंदिरों में देखे जा रहे हैं, कभी खुद को जनेऊधारी ब्राह्मण बता रहे हैं, कभी अपना गोत्र खोज कर ला रहे हैं तो कभी खुद को शिव-भक्त बता रहे हैं.

वो ये भूल रहे हैं कि यह देश जब आज़ाद हुआ तो इसके सेक्युलर चरित्र के निर्माण में उनके नाना ने कितनी बड़ी भूमिका निभाई. जवाहरलाल नेहरु देश के सेक्युलर चरित्र को बनाने और बचाने के लिए सरदार पटेल और महात्मा गांधी तक से भिड़ते रहे लेकिन उन्होंने इस पहलू पर कभी कोई समझौता नहीं होने दिया.

आज़ादी के दौरान कांग्रेस पार्टी के भीतर ही दक्षिणपंथियों की भरमार थी. लेकिन नेहरु का अपना कद और सिद्धांत इतने बड़े थे कि उन्होंने दक्षिणपंथियों को हावी नहीं होने दिया. इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो साल 1949 का ही है जब बंगाल में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे थे. इन दंगों के बाद सरदार पटेल और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में कांग्रेस के तमाम दक्षिणपंथी एक हो गए थे और वे चाहते थे कि धार्मिक आधार पर लोगों का आदान-प्रदान कर दिया जाए और धर्म को नागरिकता का आधार बना दिया जाए. लेकिन नेहरु ने देश के सेक्युलर चरित्र से कोई समझौता नहीं होने दिया और साल 1950 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के साथ ‘दिल्ली संधि’ पर हस्ताक्षर किया जिसमें तय हुआ कि धर्म को नागरिकता का आधार नहीं बनाया जाएगा.

ये जवाहरलाल नेहरु की ही देन है कि हम एक ऐसा लोकतांत्रिक देश बना सके जैसा पूरे महाद्वीप में दूसरा नहीं मिलता. नेहरु का सेकुलरिज्म सिर्फ देश में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में पढ़ाया जाता है, उस पर शोध होते हैं और दुनिया के तमाम शोधकर्ता इस बात पर हैरान होते हैं कि भारत जैसे धार्मिक और सांकृतिक विविधताओं वाला देश, जिसके बारे में कहा जाता था कि वह आज़ादी के कुछ सालों बाद ही कई टुकड़ों में बंट जाएगा, कैसे एक मजबूत सेक्युलर गणतंत्र बन गया.

ये भी नेहरु द्वारा परिभाषित सेकुलरिज्म का ही कमाल है कि देश की सबसे बड़ी सांप्रदायिक पार्टी भी उस सेकुलरिज्म को नकारने की हिम्मत नहीं जुटा पाती. भाजपा कभी यह हिम्मत नहीं कर सकती कि खुद को गैर-सेक्युलर कह सके या देश के सेक्युलर चरित्र पर सवाल उठा सके. भाजपा इतना जरूर करती है कि वह कांग्रेस के सेकुलरिज्म को छद्म या दिखावटी कहकर खुद को सच्चा सेक्युलर बताती है लेकिन सेकुलरिज्म की अवधारणा को नकारने का साहस उसमें भी नहीं है.

देश में सेकुलरिज्म की जड़ें इतनी मजबूत होने के बावजूद भी अगर राहुल गांधी बहुसंख्यक तुष्टिकरण की राह पर निकल रहे हैं तो यह बेहद चिंताजनक है. उनके पास सिर्फ अपने नाना का ही नहीं बल्कि अपनी दादी इंदिरा गांधी का भी उदाहरण है जिन्होंने ऑपरेशन ‘ब्लू स्टार’ के बाद खुफिया एजेंसी से चेतावनी मिलने पर भी अपने सिख अंगरक्षकों को नहीं हटाया. बाद में उन्हीं अंगरक्षकों की गोली से इंदिरा गांधी की मौत हुई लेकिन उन्होंने अपने जीवित रहते कोई भी सांप्रदायिक लकीर खींचना कभी स्वीकार नहीं किया.

ऐसे नेहरु और इंदिरा गांधी के वारिस, जो आज कांग्रेस की कमान थामे हुए हैं, खुद को जनेऊधारी ब्राह्मण बताते घूम रहे हैं. इसका असर ये हो रहा है कि अब कांग्रेस की रैलियों में भी भगवा झंडे नज़र आ रहे हैं, उन्मादी नारे लग रहे हैं. चुनाव परिणाम के दिन मध्य प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में कई पार्टी समर्थक हनुमान की गदा लिए भगवा झंडे लहरा रहे थे और ये सब सामान्य तौर से स्वीकार्य लग रहा था. क्या ऐसी कांग्रेस की कल्पना कभी नेहरु या इंदिरा गांधी कर सकते थे.

राहुल गांधी की ये पहली सफलता है. लेकिन ये सफलता उन्हें उस मैदान में उतरने के बाद मिली है जिस मैदान में भाजपा दशकों से चैंपियन रही है. हालांकि राहुल गांधी ने ऐसा कुछ नहीं किया है कि जिससे सांप्रदायिक द्वेष पैदा हो या लोगों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पैदा हो. लेकिन उन्होंने राजनीति के उस सेक्युलर चरित्र से समझौता जरूर शुरू कर दिया है जिसे स्थापित करने में उनके पूर्वजों ने अपना सबकुछ लगाया है.

राहुल गांधी का ऐसा करना भाजपा के बिछाए जाल में उतर आने जैसा है. यह बिलकुल वैसा ही है जैसा बाबरी विध्वंस के मामले में हुआ. तमाम भाजपा विरोधी जब पूछने लगे कि ‘मंदिर वहीं बनाएंगे लेकिन तारीख नहीं बताएंगे’ तो इससे भाजपा के मुद्दे को वैधता मिल गई. मस्जिद का तोड़ा जाना गौण हो गया और आम जन में यह स्वीकार्य हो गया कि अब तो विपक्षी भी मस्जिद गिराए जाने को अपराध नहीं कहते बल्कि मंदिर बनाने की तारीख पूछते हैं.

राहुल गांधी का खुद को शिव भक्त कहना या अपना गोत्र बताते हुए खुद को ब्राह्मण कहना, उसी राह में आगे बढ़ना है जिस राह में भाजपा पूरे देश को ले जाना चाहती है. वही घातक और उन्मादी राह जिस पर आज़ादी के बाद धार्मिक पाकिस्तान आगे बढ़ा था लेकिन सेक्युलर हिन्दुस्तान नहीं.

इन चुनावों में राहुल गांधी को जो सफलता मिली है, वह उन्हें निश्चित ही मजबूती देगी. ऐसे में बहुत संभव है कि चुनाव जीतने के लालच में राहुल गांधी को सांप्रदायिकता का यह संक्रमण फिलहाल अच्छा ही लगे. कहते हैं कि राजनीति में आगे बढ़े हुए कदम कभी चाह कर भी वापस नहीं लिए जा सकते. इसलिए राहुल गांधी को सोचना होगा कि क्या वे सच में इस दिशा में कदम बढ़ाना चाहते हैं जिस दिशा में बढ़ने का मतलब ही कांग्रेस के तमाम सिद्धांतों को तिलांजलि देना होगा?