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किसानों के मार्च में ओझल रह गया महिला किसानों का पक्ष

दिल्ली में 29-30 नवंबर का किसान मार्च अब बीत चुका है. किसान मार्च पर कई मीडिया रिपोर्ट्स आ चुकी हैं लेकिन अधिकतर रिपोर्ट्स में महिलाओं का पक्ष गायब दिखा. हालांकि इंडिय एक्सप्रेस समूह ने जरूर उन महिला किसानों की आपबीती सामने रखी जिनके बेटे, पति या पिता किसानी के दबाव में आत्महत्या कर चुके हैं.

रैली के दौरान टीवी चैनलों, न्यूज़ पोर्टल्स के पत्रकार अपना-अपना कैमरा लिए किसानों की बाइट्स लेने में व्यस्त थे. किसानों की बाइट जुटाते मीडियाकर्मियों के बीच जो एक समानता देखी गई वह यह थी कि ज्यादातर रिपोर्टर रैली में आए पुरुष किसानों के पास ही जा रहे थे. हमारे समाज में जब भी किसानों की बात होती है तब हमारी आंखों के सामने हल लिए किसी मर्द का चेहरा आ जाता है. किसानों से जुड़ी खबरों में तस्वीरें भी एक पुरुष किसान की ही होती है. इन सबके बीच महिला किसान जो कि पुरुषों से भी अधिक खेती के काम में ममशगूल है, उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाता.

मशहूर पत्रकार और कृषि मामलों के जानकार पी साईंनाथ का दावा है कि किसानी के काम में 60 फीसदी से अधिक महिलाएं कार्यरत हैं, पर उन्हें किसान माना ही नहीं जाता. हमने रैली में आई ऐसी तमाम महिलाओं का नजरिया जानने, उनकी समस्याओं को समझने की कोशिश की.

निशा भगवानभले, (महाराष्ट्र)

इस क्रम में सबसे पहले हमारी मुलाकात निशा से हुई. महाराष्ट्र के अहमदनगर से दिल्ली आई निशा भगवानभले की उम्र सिर्फ 16 साल है. निशा फिलहाल ग्यारहवीं में कॉमर्स स्ट्रीम से अपनी पढ़ाई कर रही हैं. उनके साथ आई सभी महिलाओं में से सिर्फ उन्हें ही हिंदी बोलनी आती है.

निशा ने हमें बताया, “मेरे गांव में सबसे बड़ी समस्या पानी की है. मुझे हर दिन रोज़ाना 1 से 2 किलोमीटर पीने का पानी लाने के लिए जाना पड़ता है. स्कूल से समय मिलने पर मैं भी खेतों में काम करती हूं.” निशा अपनी टूटी-फूटी हिंदी में बताती हैं कि खेती के काम में अब कोई फायदा नहीं होता. जब पानी ही नहीं है तो खेती होगी कहां से.

बीच-बीच में उनकी मौसी और आजी भी हां में हां मिलाती हैं ये सोचते हुए कि उनकी पोती उनकी समस्याओं के बारे में ही बता रही है. यह पूछने पर कि उनके गांव में क्या किसी किसान ने आत्महत्या की है, निशा चुप हो जाती हैं और अपनी आजी की तरफ देखने लगती हैं.

ऐसा लग सकता है कि महिला और पुरुष किसानों के खेती से जुड़े मुद्दे अलग नहीं होते पर वास्तविकता में  दोनों पर पड़ने वाले प्रभाव में अंतर होता है.  वीमन अर्थ अलायंस  नामक संस्था बताती है कि अगर भारत जैसे देशों में महिलाओं की पहुंच भी खेती-किसानी से जुड़े सभी संसाधनों तक हो तो उत्पादन में 20-30 प्रतिशत तक का इज़ाफा हो सकता है. हालांकि भारत में खेती से जुड़े अधिकतर फैसले आज भी पुरुषों के हाथों में ही होते हैं.

महिला किसान हो या महिला खेतिहर मज़दूर उनका काम खेती के दूसरे कामों तक ही सीमित रखा जाता है. मसलन बीज खरीदने से लेकर फसलों को मंडी तक ले जाना आदि आज भी पुरुषों के हाथ में ही होता था. महिलाओं को खेतों तक ही रखा जाता है. आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में कम से कम किसान महिलाओं की आधी आबादी है लेकिन फिर भी उनमें से बहुत कम के नाम पर ही ज़मीन का पंजीकरण होता है. हमारे देश में ही चाहे वह कोई बड़ा किसान हो या छोटा महिलाओं के नाम पर खेत कम ही देखने को मिलते हैं.

संतोषी देवी (उत्तराखंड)

किसान मार्च में आगे-आगे चल रही संतोषी देवी उत्तराखंड के देहरादून से आई थी. संतोषी देवी एक खेतिहर मजदूर हैं. उनके साथ ही आई बसंती देवी बीच में ही बोल पड़ती हैं, “हमारे पास राशन कार्ड नहीं, 100 रुपये महीने का देकर पानी लाती हूं.” आगे वह बताती हैं, “हम महिला खेतिहर मजदूरों को एक दिन के 150 रुपये मिलते हैं. काम भी हर रोज़ नहीं मिलता. बेटा पढ़ा-लिखा है लेकिन उसे भी कोई नौकरी नहीं मिल रही.”

बसंती देवी के पति नहीं है और वह अकेले ही घर चलाती हैं. बात खत्म होने के बाद बसंती देवी एक फटे से कागज़ के टुकड़े पर अपना नंबर पकड़ा जाती हैं इस उम्मीद में कि शायद उनकी बात सरकार तक पहुंच जाए तो उन्हें ख़बर मिल जाए और फिर वह अपने क्षेत्रों के किसानों के साथ आगे बढ़ जाती हैं.

शीला देवी (बिहार)

बिहार के समस्तीपुर जिले से आई शीला देवी भूमिहीन मजदूर हैं. उनकी झोपड़ी किसी और की ज़मीन पर बनी हुई है जिसके बदले में वह हर साल पैसे देती हैं. शीला देवी बताती हैं, “हमारी मांग है कि सरकार  सबसे पहले हमें किसान के रूप में चिन्हित करे. कुछ ज़मीन दे ताकि हम खुद का कुछ काम कर सके.”

फिलहाल शीला देवी की आय का स्रोत एक गाय है. यह पूछने पर कि रैलियों में आने से उनके जीवन में कुछ बदलता है या नहीं, वह कहती हैं, “उन्हें इतना नहीं पता, पर यह बात जरूर है कि  रैलियों में आने से सरकार किसानों की मांग जल्दी सुनती हैं.” शीला देवी खेतों के काम से लेकर अपने पशुओं की भी देखभाल करती हैं और हर सुबह दूध सेंटर पर दे आती हैं जिससे कुछ अधिक आय हो सके.

यहां इस बात पर गौर करना ज़रूरी है कि खेती से जुड़ा हर काम करने के बाद भी महिलाओं को हम किसान की तरह नहीं बल्कि खेती के कामों में हाथ बंटाने वाले मजदूर के रूप में देखते हैं. ग्रामीण भारत की 80 प्रतिशत महिलाएं अपने जीवनयापन के लिए खेती पर निर्भर हैं. मवेशियों की देखभाल से लेकर महिलाएं खेती से संबंधित हर काम से जुड़ी होती हैं. चाहे वह सिंचाई हो, बुवाई हो, रोपाई हो, कटाई हो, हर जगह उनकी अहम भूमिका होती है. इसके बावजूद भी उन्हें किसान नहीं माना जाता.

एक सच यह भी है कि किसानी के काम में हाथ बंटाने के बाद ग्ररामण भारत के पितृसत्तात्मक समाज में इन महिलाओं को घरेलू कामकाज भी निपटाना होता है. अगर खेत उनका अपना है तो वहां दिहाड़ी देने की बात ही नहीं आती. और, जहां वे दूसरों के जमीन पर मजदूरी करती हैं उन्हें नाम भर को पैसे या अनाज का एक छोटा हिस्सा मेहनताने के रूप में दिया जाता है.

सुशीला देवी, (बिहार)

सुशीला देवी भी दिहाड़ी मज़दूर हैं. वे भी अपने साथ की दूसरी महिलाओं के साथ समस्तीपुर से आई हैं. सुशीला देवी ने बताया कि उनकी झोपड़ी किसी और के खेत में हैं जिसके एवज़ में वह सालाना एक हजार रुपये देती हैं. तभी उनके साथ आई सभी महिलाएं बीच में बोल पड़ती हैं, “हम सब हरिजन हैं और इसीलिए गरीबी के साथ-साथ भेदभाव अलग झेलना पड़ता है.” जाति का कुचक्र महिलाओं के साथ शोषण की एक और तह जोड़ देता है.

सुशीला देवी ने बताया, “रैली में तो उनके जैसे ही लोग आते हैं. उनके खेतों के मालिक नहीं और इसके साथ ही वह माथे पर अपना झोला ठीक करते हुए कहती हैं कि मेरा नाम ज़रूर लिखिएगा.” वह अपने बेटे मनोज की तरफ इशारा करते हुए बताती हैं कि उनके बेटे ने बीए कर रखा है लेकिन उसे नौकरी नहीं मिल रही.

बिहार के बाराचट्टी से आई महिला मज़दूर जंतर मंतर पर बने विशाल स्टेज के एक ओर बैठी थी. ये सारी महिलाएं किसी न किसी बात पर नाराज़ बैठी थी. कोई अपने गांव के दबंग किसान से तो कोई वन विभाग से तो कोई बीडीओ से खार खाए बैठी थी. उन्हें लग रहा था कि रैली में सिर्फ किसानों की बातें नहीं हो रही, हर गरीब मज़लूम की बात हो रही है जिसका हक़ छीना जा रहा है.

उनसे बात करने पर पता चला कि उनकी समस्याएं सिर्फ खेती-किसानी से जुड़ी नहीं हैं. उनकी मुख्य मांगें साफ पानी और अपने बच्चों के लिए स्कूल हैं. ये सभी महिलाएं महादलित समुदाय से थी. उनमें से एक ने कहा, “हमारे बच्चे को कोई नहीं पढ़ाता है. हमारी मुसीबत को कोई सुनता तक नहीं.” तभी बीच में उन्हें एक महिला टोककर कहती है- “एतना मत बोल कुच्छो नए होते (इतना मत बोलो, बोलने से कुछ नहीं होगा).

उस महिला से स्वर में खीझ, गुस्सा और निराशा सब एकसाथ झलक रहा था. तभी उन्हें एक दूसरी महिला डपटकर बोलती है, “बोलेंगे नहीं… जो दुख होगा वह बोलेंगे ही.” बीच-बीच में वे अपनी बातों को अपने साथ आए मर्दों से क्रॉस चेक भी करवाती हैं यह कहकर कि- “एजी हम सही न कह रहे हैं

जवाब में मर्द ‘हां-हूं’ कहकर चुप हो जाते हैं. इन महिलाओं का नेतृत्व कर रही रश्मि देवी मुस्कुराते हुए बताती है कि उसे किसी से डर नहीं लगता. वह कई बार बीडीओ से भी लड़ चुकी है और गांव के दबंग लोग कहते हैं कि उसे गोली मरवा देंगे और इसके साथ ही उनके साथ बैठी सभी महिलाएं हंसने लगती हैं.

गाज़ीपुर से आई प्रमिला अपने झोले से पूरियां निकालकर अपने साथ आई हुई महिलाओं के साथ मिल-बांटकर खा रही थी. पूछने पर वह बड़े फख्र से बताती हैं कि वह ऐप्वा से जुड़ी हुई हैं. यहां प्रमिला की बातें बाकी महिलाओं से थोड़ी अलग नज़र आती हैं.

प्रमिला नोटबंदी, अंबानी, मोदी सरकार जैसे शब्दों से वाकिफ हैं और बताती हैं कि इनके कारण ही आज गरीबों की यह हालत है. साथ ही वह ये भी कहना नहीं भूलती, “इ मोदी हम लोग को कुछ नहीं दिया, न देगा.” प्रमिला नोटबंदी से आज तक नाराज़ हैं और कहती हैं, “ई सरकार हमलोग को भीख मंगवा दिया.”

थोड़ी ही दूर पर बिहार के मधुबनी जिले से आई महिलाएं बैठी थी. बात करने पर मधुबनी की डोमनी देवी ने जो सबसे पहली बात कही, “दीदी एतना छोटा बच्चा के घरे पर छोड़कर आए हैं रैली में तो सोच लीजिए केतना दिक्कत झेल रहे हैं हम लोग.

मधुबनी से ही आई रामरती देवी ने बताया कि उन्हें खेत में काम करने के बदले रोजाना 60-70 रुपये मिलते हैं. हालांकि मर्दों को इससे अधिक मिलता है. बात-बात पर लजाने वाली ये महिलाएं अपने क्षेत्र की हर समस्या से वाकिफ थी.

पलायन की समस्या को आसान शब्दों में रीता देवी ने समझाया, “हमारी जाति के लोग अपने बेटों को कर्ज लेकर बाहर कमाने भेजते हैं कि बेटा बाहर जाएगा और कमाकर कर्ज़ चुका देगा. लेकिन शहर गया बेटा कुछ ही दिन में बेरोज़गार घर लौट आता है.” उन्हें यह सोच खाए जा रही है कि खेतों में काम करके वह कैसे कर्ज़ चुकाएंगी.

इनसे बात कर पता चला कि महिला मजदूर, खेतिहर मजदूर, किसान जब इन रैलियों में आती हैं तो वे सिर्फ खेती-किसानी की समस्याएं लेकर नहीं आती. उनके बीच बच्चों का स्कूल, स्वास्थ्य आंगनबाड़ी केंद्र, सड़क, बिजली का बिल, पानी, फूस की झोपड़ी, टूटे बर्तन, बच्चों की बीमारी, पति की बीमारी जैसी अनगिननत समस्याएं बरकरार रहती हैं.

रैली में आई जितनी भी महिलाओं से हमने बात की उनमें आधे से अधिक दलित समदुाय से थीं, ज्यादातर भूमिहीन किसान, खेतीहर मज़दूर थी. ये महिलाएं किसी भी किसान संगठन से जुड़ी नहीं थी न ही इनके क्षेत्र में मौजूद किसान संगठनों में इनका कोई नेतृत्व है. कम मज़दूरी के साथ-साथ ये खेतिहर महिला मज़दूर हर दिन जातिगत भेदभाव का भी सामना करती हैं. जिस अनाज को उगाने के लिए ये दूसरे के खेतों में दिन-रात मेहनत करती हैं उसे ही छूने की इजाज़त उन्हें बाद में नहीं दी जाती.

महिलाओं के साथ हुई बातचीत से यह भी पता चला कि जब महिला किसान या मज़दूर पैसे कमाती हैं तो उसका अधिकांश हिस्सा ये अपने परिवार पर ही खर्च करती हैं. संयुक्त राष्ट्र की फूड ऐंड ऐग्रीकल्चर ऑर्गनाजेशन की रिपोर्ट बताती है कि जब महिलाएं खेती में पूरी तरह शामिल होती हैं तो परिवार में भुखमरी की समस्या कम देखने को मिलती है. साथ ही परिवार की आय, बचत और निवेश में भी बढ़ोतरी देखने को मिलती है.

रामरती और डोमनी जैसी औरतें हर दिन वेतन से लेकर व्यवहारगत भेदभाव झेलती हैं. वे इस बात को भलीभांति समझती हैं कि उन्हें कम पैसे उनके औरत होने की वजह से मिलते हैं. मर्दों के ही बराबर काम करने और घर की जिम्मेदारियां उठाने के बावजूद उनके काम को अप्रभावी माना जाता है. खेती से जुड़े आंकड़ों पर 2017 में आई सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि महिला खेतिहर मज़दूरों को पुरुषों के मुकाबले 22 प्रतिशत कम मेहनताना दिया जाता है. यह साबित करता है कि खेतिहर महिला मज़दूरों का शोषण पुरुषों के मुकाबले अपने आप बढ़ जाता है.

हमारे देश में एक अवधारणा जो बहुत प्रचलित है वह है- यह महिलाओं के मुद्दे हैं. यह कहते वक्त हम भूल जाते हैं कि देश का हर आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक मुद्दा महिलाओं से भी जुड़ा होता है. ये मुद्दे महिलाओं को उतना ही प्रभावित करते हैं जितना की दूसरे लोगों को.

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