Newslaundry Hindi
चुनाव आयोग: नाम और दर्शन के बीच फासला लगातार बढ़ रहा है
छत्तीसगढ़ के दूसरे चरण के मतदान में 562 मशीनों के ख़राब होने की ख़बर छपी है. जिन्हें 15-20 मिनट में बदल देने का दावा किया गया है. चुनाव से पहले मशीनों की बक़ायदा चेकिंग होती है फिर भी इस तादाद में होने वाली गड़बड़ियां आयोग के पेशेवर होने को संदिग्ध बनाती हैं. क्या लोगों की कमी हैं या फिर कोई अन्य बात है.
छत्तीसगढ़ में गुजरात में इस्तेमाल की गई अत्याधुनिक थर्ड जनरेशन वाली एम-3 श्रेणी की मशीनें लाई गईं थीं. एक वीडियो चल रहा है जिसमें छत्तीसगढ़ के मंत्री बूथ के भीतर जाकर अगरबत्ती दिखा रहे हैं और नारियल फोड़ रहे हैं. मतदाता सूची से लेकर ईवीएम मशीनों के मामले में चुनाव आयोग का काम बेहद औसत है.
मतदान प्रतिशत के जश्न की आड़ में चुनाव आयोग के औसत कार्यों की लोक-समीक्षा नहीं हो पाती है. तरह तरह की तरकीबें निकाल कर प्रधानमंत्री आचार संहिता के साथ धूप-छांव का खेल खेल रहे हैं और आयोग अपना मुंह दाएं-बाएं फेर ले रहा है. आयोग के भीतर बैठे डरपोक अधिकारियों को यह समझना चाहिए कि वे प्रधानमंत्री की रैली की सुविधा देख कर प्रेस कांफ्रेंस कराने के लिए नहीं बैठे हैं.
टीवी की बहसों के ज़रिए सांप्रदायिक बातों को प्लेटफ़ार्म दिये जाने पर भी आयोग सुविधाजनक चुप्पी साध लेता है. क्या आयोग का काम रैलियों पर निगरानी रखना भर रह गया है? खुलेआम राजनीतिक प्रवक्ता सांप्रदायिक ज़हर से बुझी बात कर रहे हैं. एलान कर रहे हैं. टीवी की बहसें सांप्रदायिक हो गई हैं. यह सब चुनावी राज्यों में बकायदा सेट लगाकर हो रहा है. आयोग यह सब होने दे रहा है. यह बेहद शर्मनाक है. आयोग को अपनी ज़िम्मेदारियों का विस्तार करना चाहिए वरना आयुक्तों को बैठक कर इस संस्था को ही बंद कर देना चाहिए.
यह एक नई चुनौती है. आख़िर आयोग ने खुद को इस चुनौती के लिए क्यों नहीं तैयार किया? क्या इसलिए कि हुज़ूर के आगे बोलती बंद हो जाती है. क्या आयोग ने न्यूज़ चैनलों की नियामक संस्थाओं से बात की, उन्हें नोटिस दिया कि चुनावी राज्यों में या उसके बाहर भी चुनाव के दौरान, टीवी की बहसों में सांप्रदायिक बातें नहीं होंगी. क्या मौजूदा आयोग को अपनी संस्था की विरासत की भी चिन्ता नहीं है? कैसे खुल कर चैनलों पर राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं को खुलेआम हिन्दू मुस्लिम बातें करने की छूट दी जा रही है.
चनाव आयोग की प्रतिष्ठा उसके प्रदर्शन से मेल नहीं खा रही. इसकी जवाबदेही को नए सिरे से व्याख्यायित करने की ज़रूरत है. यही कारण है कि अब लोग चुनाव आयोग के आयुक्त का नाम भी याद नहीं रखते हैं. आयुक्तों को सोचना चाहिए कि वहां बैठकर विरासत को बड़ा कर रहे हैं या छोटा कर रहे हैं. चुनाव का तमाशा बन रहा है. चुनाव का तमाशा तो बनता ही रहा है, आयोग अपना तमाशा क्यों बना रहा है ?
Also Read
-
Road to Mumbai North: Piyush Goyal’s election debut from BJP’s safest seat
-
Hafta 485: Political ads, Amethi-Rae Bareli fight, Kejriwal’s return
-
TV Newsance 253: A meeting with News18’s Bhaiyaji, News24’s Rajeev Ranjan in Lucknow
-
Uttarakhand: Forests across 1,500 hectares burned in a year. Were fire lines drawn to prevent it?
-
Grand rallies at Mumbai: What are Mahayuti and MVA supporters saying?