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फूल वालों की सैर: मुगल भारत का यादगार एक त्यौहार

दिल्ली की हस्ती मुनासिर कई हंगामों पर है,

किलाचांदनी चौकहर रोज मजमा जामा मस्जिद,

हर हफ्ते सैर जमुना के पुल की

और दिल्ली में हर साल मेला फूलवालों का

ये पांच बातें अब नहीं फिर दिल्ली कहां.

गालिब ने अपने प्यारे शहर दिल्ली के बारे में यही कहा था. इस त्यौहार की एक दिलचस्प कहानी हैयह बेटे की तड़प में व्याकुल एक मां की कहानी है जिसे निर्वासित करके जेल में डाल दिया गया थादिल्ली में उन दिनों अकबर शाह द्वितीय (1806-1837)की हुकूमत थीअंग्रेज सरकार की ओर से बादशाह को दो लाख रुपए महीने का खर्च मिलता था

एक अंग्रेज रेजिडेंट हमेशा लालकिले में मौजूद रहता थाबादशाह को कोई भी हुक्म जारी करने से पहले अंग्रेज अधिकारी की इजाजत लेनी होती थी.

एक दिन लालकिले में ही बादशाह के छोटे बेटे मिर्जा जहांगीर ने अंग्रेज रेजिडेंट सर आर्किबाल्ड सेटन की खिल्ली उड़ा दीइससे अंग्रेज अफसर नाराज हो गयाबात और बढ़ी तो मिर्जा जहांगीर ने गुस्से में आकर सैटिन के ऊपर तमंचे से फायर कर दियाअंग्रेज अफसर बच गया पर ईस्ट इंडिया कंपनी ने शहजादे को लालकिले से निर्वासित करके इलाहाबाद भेज दिया

बेटे के निर्वासन से उनकी मां नवाब मुमताज महल का रोरो कर बुरा हाल हो गयागम में डूबी मां ने मन्नत मांगी कि जब उनका बेटा वापस दिल्ली आएगा तब वे कुतुब साहब में ख्वाजा बख्तियार काकी की मजार पर फूलों का चादर और गिलाफ चढ़ाएंगी.

उनकी दुआ कबूल हो गई और कुछ सालों बाद ही सेटन के हुक्म पर मिर्जा जहांगीर को वापस दिल्ली ले आया गयाबेगम को अपनी मन्नत याद थी. उन्होंने धूमधाम के साथ ख्वाजा बख्तियार काकी (कुतुब साहब) की मजार पर चादर चढ़ाने का ऐलान किया

सात दिन के लिए शाही कुनबा और दरबार लाल किले से मेहरौली में स्थांतरित कर दिया गयाबेगम ने चादर चढ़ाईहिंदूमुसलमान सबने इसमें हिस्सा लिया.

महारानी ने नंगे पैर यात्रा करने की मन्नत भी मांगी थीलिहाजा जब वे कुतुब साहब की दरगाह के लिए चलीं तो रास्ते भर लोगों ने उनके पैरों का ख्याल रखते हुए फूल बिछा दिएमहारानी ने साथ ही मेहरौली के योगमाया मंदिर में फूलों का एक पंखा भी चढ़ाया गया.

सात दिनों तक महरौली इलाके में धूमधाम और मेला लगा रहारियाया के रुझान को देखते हुए बादशाह ने इस मेले को हर साल आयोजित करने की घोषणा कर दी. सबसे पहली फूलों वाली सैर में अबू सिराजुद्दीन ज़फर (जो आगे चलकर भारत के आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के नाम से मशहूर हुए) ने योगमाया मंदिर में फूलों का पंखा भेंट किया था और कुछ शेर अर्ज किया थाउनकी लाइनें कुछ यूं हैं

नूरअफलाक करम की है ये सब झलक

कि वो जाहिर है मालिक और बातिन है मलक

ये बना उस शाहअकबर की बदौलत पंखा

शौक इस सैर की सब आज हैं बादीददिल

जब तक मुगलों का राज दिल्ली में कायम रहायह त्यौहार बड़े पैमाने पर पूरी साजसज्जा के साथ मनाया जाता थाशाही परिवार पूरे लावलश्कर के साथ लाल किले से निकलता थारास्ते में वह पुराना किला होते हुए हुमायूं के मकबरे पर डेरा डालता था

यहां हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह और सफदरजंग के मदरसे में रुकने के बाद कारवां मेहरौली के लिए बढ़ता थाशाही परिवार के बच्चे इसके बाद घूमने निकलते थेजहाज महलहौज शम्सीऔलिया मस्जिद और झरने का लुत्फ उठाने के बाद वे वापस लौटते थे

मुगल परिवार ने पहला पंखा भादो की पंद्रह तारीख को योगमाया मंदिर में चढ़ाया थाइसके अगले दिन दरगाह में पंखा और चादर चढ़ाने के लिए पूरा शाही परिवार जलूस की शक्ल में निकला.

रानियांराजकुमारियां और राजकुमार फूलों की डलिया में फूलइत्र और मिठाइयां रखकर अपने सिर पर लेकर चले थे. 1857तक चादर और पंखा चढ़ाने का रिवाज इसी तरह बदस्तूर कायम रहा. इस समय तक मुगल राजपरिवार जहाज महल और ज़फर महल का इस्तेमाल अपने त्यौहारों के लिए करता था. 1857के बाद भी अंग्रेजों ने इस परंपरा को जिंदा रखा.

1942में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अंग्रेजों ने इस पर रोक लगा दी. बाद में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1962में इसे दोबारा से शुरू करवायातब से यह त्यौहार हर साल आयोजित होता है.

यह त्यौहार आज कौमी एकता और भाईचारे का बड़ा प्रतीक बन गया हैदेश के राष्ट्रपति और दिल्ली के उपराज्यपाल को इस आयोजन में बाकायदा शहनायी वादन के जरिए आमंत्रित किया जाता हैमेहरौली में इस दौरान बड़ा मेला लगता है