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लहर के बिना ही खेयी जा रही है पांच राज्यों में चुनावी नाव
गुजरात विधानसभा चुनाव और कर्नाटक में संयुक्त सरकार बनाने के बाद उत्तर भारत के तीन हिंदी भाषी राज्यों में कांग्रेस ने जो मनोवैज्ञानिक दबाव भाजपा के ऊपर बनाया था, उसकी घटा अब थोड़ी मद्धम लग रही है. लेकिन ये सोचना अभी जल्दीबाजी होगी कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में नतीजे कांग्रेस के पक्ष में हैं. भाजपा ने गुजरात चुनावों से सबक लेकर अपनी चुनावी रणनीति में लगातार फेरबदल किया है और अपनी कमियों को संघ के सहयोग से कम करना शुरू कर दिया है.
भाजपा की प्रचार-प्रसार की बेमिसाल रणनीति व संघ के सहयोग के कारण बहुतेरे राजनीतिक पंडितों ने ऐसा सोचना व बोलना शुरू कर दिया है कि बाकी दो हिंदी भाषी राज्यों में कांग्रेस हार रही है. दरअसल आज की ब्रांडेड भाजपा के पास मोदी और अमित शाह जैसे सुपर ब्रांड संगठनकर्ता व लगातार चुनाव जीतने का दंभ पालने वाले समर्थक हैं जो अपनी जीत के लिए किसी सीमा तक जा सकते हैं. दूसरी ओर बरसों की मेहनत से अपनी जड़ जमाए संघ परिवार का भी उसे भरपूर सहयोग है जो अपना हिन्दुत्ववादी एजेंडा लागू करवाने के लिए सरकार के समस्त कानूनी-गैर-कानूनी मुद्दों को नज़रअंदाज करने पर तुली है.
इस मामले में कांग्रेस अभी भी बहुत पीछे है. न तो उसके पास मोदी जैसा कॉर्पोरेट ब्रांड नेतृत्व है और ना संघ जैसे सामाजिक-सांस्कृतिक अनुषंगिक संगठनों का जखीरा. लेकिन मोदी सरकार की आर्थिक और कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर असफलता और अध्यक्ष पद पर बैठने के बाद से राहुल गांधी की सक्रियता से भाजपा के लिए रास्ते अब भी बहुत आसान नहीं हैं.
लेकिन संगठन व ब्रांड वैल्यू के अलावा महंगाई और रोजगार दो ऐसे मुद्दे हैं जिस पर केंद्र की सरकार के बड़े-बड़े वादों के बावजूद बहुत कुछ नहीं हुआ है. मध्य वर्ग के लिए ये दोनों बेहद अहम् मुद्दे हैं जिस पर पांचों राज्यों में अच्छा-खासा असंतोष देखा जा सकता है. 2014 के संसदीय चुनाव में इन दो मुद्दों पर भाजपा को जबरदस्त समर्थन मिला था. लेकिन अगर कांग्रेस इस बार इन मुद्दों को सही ढंग से उठाने में कामयाब रही तो तीन हिंदी भाषी राज्यों में भाजपा की हार में कोई शंका नहीं होनी चाहिए.
राजस्थान को छोड़ कर अन्य दो राज्यों में कांग्रेस का संगठन अब भी जमीन पर नजर नहीं आता. मूलतः मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में कांग्रेस अपने कुछेक नेताओं के स्थानीय जनाधार और दूसरी पार्टियों से ताजा-ताजा आए नेताओं के भरोसे ही चुनाव लड़ रही है. लेकिन यदि ये एक कमजोरी है तो दूसरी ओर भाजपा के 15 साल के शासन की कारगुजारियों के कारण मजबूती भी है.
ऐसे चुनाव जिनमें कोई कोई लहर नहीं होती, उनमें उम्मीदवार महत्वपूर्ण हो जाता है. ऐसे में देखने की बात केवल ये है कि कांग्रेस चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में कैसे आम लोगों तक भाजपा सरकार की इन तमाम कमियों व सीमाओं को पहुंचा पाती है. हालांकि सोशल मीडिया पर कांग्रेस ने बहुत हद तक अपनी कमजोरी दूर कर ली है और भाजपा को जबरदस्त टक्कर दे रही है लेकिन गांव-गांव बूथ मैनेजमेंट के मामले में यह भाजपा से काफी पीछे है.
राजस्थान में कांग्रेस के पास सचिन पायलट जैसा युवा व लोकप्रिय और अशोक गहलौत जैसा अनुभवी व जनाधार वाला नेता है लेकिन मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस अभी भी गुटों में बंटी हुई है, लिहाजा वहां पार्टी नेतृत्व के लिए राहुल गांधी पर निर्भर है.
तीनों राज्यों में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही गुटबंदी के शिकार हैं. भाजपा के मामले में ये राजस्थान में प्रबलता से नजर आता है तो कांग्रेस के मामले में ये मध्य प्रदेश में ज्यादा दिख रहा है. राजस्थान में वसुंधरा सरकार के कई मंत्री सार्वजनिक तौर पर मुख्यमंत्री की कार्यप्रणाली के प्रति असंतोष जाहिर कर चुके हैं. पार्टी के वरिष्ठ नेता रहे पूर्व मंत्री घनश्याम तिवाड़ी ने तो बगावत का ऐलान कर नई पार्टी ही बना डाली.
हालांकि इस तरह की प्रतिद्वंद्विता राजस्थान कांग्रेस में भी दिखती है. अशोक गहलोत, प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट व पूर्व केंद्रीय मंत्री सीपी जोशी के बीच यह अक्सर दिखता है लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के केन्द्रीय नेतृत्व पर सम्मान दिए जाने के कारण अशोक गहलोत खुल कर सचिन की दावेदारी के खिलाफ आने में संकोच करते हैं. सीपी जोशी में अभी वो करिश्मा नहीं कि वे सचिन की लोकप्रियता को चुनौती दे सके. इसलिए यहां कांग्रेस की गुटबंदी सतह पर आने से बचती है. हालांकि ये भी चर्चा है कि अगर राजस्थान में कांग्रेस कम मार्जिन से जीतती है तो अशोक गहलोत को ही मुख्यमंत्री बनाया जाएगा. कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि वसुंधरा सरकार के खिलाफ असंतोष और कांग्रेस की गुटबाजी के खुलकर नहीं आने के कारण कांग्रेस की स्थिति राजस्थान में सुदृढ़ है.
राजस्थान की तान
राजस्थान में इस चुनाव में आरक्षण, किसान और गाय ही प्रमुख मुद्दे बने हुए हैं. राज्य में इस चुनाव में खेती-किसानी एक गंभीर मुद्दा है जिससे भाजपा मुंह चुरा रही है जबकि फसल के सही दाम नहीं मिलने और कर्ज के कारण किसानों की आत्महत्याओं के मामलों को लेकर भी कांग्रेस सत्ताधारी भाजपा को घेरने में जुटी है. उधर, आरक्षण आंदोलन से त्रस्त राज्य में दलित एट्रोसिटी एक्ट के मुद्दे पर राजपूत और ब्राह्मण भी सरकार के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं.
भाजपा के बागी नेता घनश्याम तिवाड़ी ने तो इस मुद्दे पर तीसरा मोर्चा भी बना डाला है. हालांकि इसके खिलाफ भाजपा को गाय का मुद्दा लुभा रहा है. वह वोट की खातिर गौ-तस्करी को लगातार मुद्दा बना रही है तो कांग्रेस मुसलमानों को पीट पीटकर मारने की घटनाओं को लेकर सरकार को घेर रही है.
वैसे वसुंधरा सरकार का चुनाव पूर्व 15 लाख नौकरियां देने का वायदा भी खोखला ही साबित हुआ है. औद्योगिक विकास के अभाव में न तो नई नौकरियां निकल पाई न राज्य में नये उद्योग धंधे का विस्तार हुआ. इससे जनता में भयंकर आक्रोश है. कांग्रेस इस मुद्दे को भी जोर-शोर से उठा रही है.
राजस्थान में भाजपा से सरकारी कर्मचारी भी बहुत क्षुब्ध हैं. वसुंधरा राजे सरकार ने कर्मचारियों को अपने हाल पर छोड़ दिया है. रोडवेज कर्मचारियों को सातवां वेतन आयोग देने से मना कर दिया गया. इसी तरह, पंचायत कर्मचारियों, आशा कर्मियों, नर्सिंग स्टाफ और दूसरे विभागों के कर्मचारियों की भी कोई परवाह सरकार ने नहीं की है. राज्य में करीब 9 लाख सरकारी कर्मचारी हैं. अगर इनके परिवार वालों को जोड़ लें तो करीब 40-45 लाख वोट बनते हैं. गांवों में इतने ही वोट ये प्रभावित करने की ताकत भी रखते हैं. इन तमाम वजहों से चिंतित वसुंधरा राजे ने चार अगस्त को मेवाड़ से ‘राजस्थान गौरव यात्रा’ के जरिए अपना चुनावी अभियान शुरू किया था. 58 दिनों की इस यात्रा में वह राज्य की 200 में से 165 विधानसभा क्षेत्रों से होकर गुजरीं लेकिन मतदाताओं पर इसका बहुत प्रभाव नहीं दिखा.
दूसरी ओर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जयपुर में 13 किमी का रोड शो कर कांग्रेस के अभियान की औपचारिक शुरुआत की. मीडिया ने इसे ज्यादा सफल बताया. इससे उत्साहित होकर कांग्रेस बूथ स्तर पर भी अपने संगठन को मजबूत करने में लगी है. इतना ही नहीं दो लोकसभा, एक विधानसभा सीटों और स्थानीय निकाय एवं पंचायत राज संस्थाओं के उपचुनाव में जिस तरह से कांग्रेस ने लीक से हटकर राजपूत-ब्राह्मण कार्ड खेला था उसे विधानसभा के इस चुनाव में कुछ फेरबदल के साथ जारी रखना चाहती है. उसे ब्राह्मण, राजपूत और दलितों का इसमें साथ मिल सकता है.
राजस्थान में भाजपा ने 2013 के विधानसभा चुनाव में कुल 200 में से 163 सीटें जीतकर तीन चौथाई बहुमत के साथ जबर्दस्त कामयाबी हासिल की थी. जबकि कांग्रेस 21 और बसपा 3 सीटों पर ही सिमट गईं थीं. इस चुनाव में भाजपा को 45.50 फीसदी, कांग्रेस को 33.31 और बीएसपी को 3.48 फीसदी वोट मिले थे. कहने का आशय है कि राजस्थान में पिछले चुनाव में भाजपा 12 फ़ीसदी से ज्यादा मतों के अंतर से कांग्रेस से आगे थी. लेकिन इस बार यदि कांग्रेस 8 फीसद वोटों को स्विंग कराने में सफल रहती है तो सत्ता के दरवाजे तक पहुंच जाएगी. हालिया उपचुनावों में जीत से लबरेज कांग्रेस के लिए राजस्थान से जो सूचनाएं आ रही हैं वे इस ओर इशारा कर रही हैं कि उसके लिए यह लक्ष्य कठिन नहीं है. वसुंधरा राजे के खिलाफ सत्ता विरोधी लहरें, वसुंधरा और शाह के बीच के समीकरण और भाजपा की अंदरूनी गुटबाजी के कारण कांग्रेस के लिए 10 से 12 फीसद वोटों की बढ़त हासिल करना मुश्किल नहीं लगता. ध्यान रहे कि 1993 के बाद राजस्थान के चुनावी इतिहास कोई भी पार्टी दुबारा से सत्ता में नहीं लौटी है.
मध्य प्रदेश का मिजाज
इसके ठीक विपरीत मध्य प्रदेश में भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों के बावजूद शिवराज सिंह चौहान आम जनता में पक्ष-विपक्ष के तमाम नेताओं में सर्वाधिक लोकप्रिय बने हुए हैं. आम जन के विपरीत भाजपा के अपने कैडर में चौहान के खिलाफ ज्यादा आक्रोश है.
इसी तरह पिछले दो चुनावों की तुलना में इस बार कर्मचारी वर्ग में भी खासा आक्रोश बना हुआ है. इसलिए उनका रास्ता इस बार उतना आसान नहीं दिखता जितना भाजपा समर्थक दावा कर रहे हैं. सरकार में होने के कारण शिवराज के पास प्रचार-प्रसार के लिए ज्यादा संसाधनन हैं और उसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निष्ठावान कार्यकर्ताओं का साथ भी हासिल है. ऊपरी तौर पर भाजपा की दावेदारी ज्यादा मजबूत बताई जा रही है. लेकिन पिछले एक महीने में शिवराज की जन आशीर्वाद यात्रा हो या भोपाल में आयोजित कार्यकर्ता महाकुंभ, दावों के विपरीत बहुत कम संख्या में लोगों की उपस्थिति इस बात को पुष्ट करती है कि अब उनके पास भी वो जादू नहीं है जो पिछले चुनावों में था.
खेती-किसानी के मोर्चे पर मिली शुरुआती बढ़त ही शिवराज के लिए अंतिम दो साल से काल बन रहा है. राज्य में सोयाबीन, कपास और प्याज की खेती करने वाले किसानों का असंतोष शिवराज की सरकार के लिए सिरदर्द बना हुआ है. फसलों के समर्थन मूल्य और बाजार मूल्य के अंतर के भुगतान के लिए शुरू भावांतर योजना के लिए सरकार के खजाने में पैसा नहीं है.
मालवा-निमाड़ अंचल में किसानों की समस्या से उत्पन्न मंदसौर कांड की गूंज अभी भी कायम है. उस आंदोलन के दौरान पुलिस की गोलियों से छह किसानों की मौत हो गई थी. इस साल उस घटना की बरसी पर मंदसौर आकर राहुल गांधी ने शासन में आने के 10 दिनों के अन्दर किसानों के ऋण माफ़ करने की घोषणा की. लोग बार-बार उनकी घोषणा को याद कर रहे हैं.
आर्थिक मोर्चे पर मध्य प्रदेश की हालत ज्यादा ख़राब है. दो लाख करोड़ रुपए से अधिक के कर्ज वाली सरकार अपने कर्मचारियों को वेतन बांटने के लिए हर दूसरे-तीसरे महीने इधर-उधर से कर्ज लेकर काम चला रही है. महिलाओं पर अत्याचार और मासूमों से बलात्कार के मामले में राज्य का लगातार सुर्ख़ियों में बने रहना, इस चुनाव में भाजपा के सामने चुनौती बनी हुई है.
इससे इतर आम लोग व्यापम और केंद्र के राफेल विमान खरीद घोटाले पर चौक-चौराहों पर खुली बहस कर रहे हैं. लोगों में इस बात की भी नाराजगी है कि अधिकारियों को भ्रष्टाचार की खुली छूट मिली हुई है और बहुत सारे मामले में कथित तौर पर इसके पीछे मुख्यमंत्री आवास की भूमिका मानी जाती है.
चंबल और नर्मदा क्षेत्र में सवर्ण तबका एससी/एसटी एक्ट पर केंद्र सरकार के पलटी मारने पर भाजपा से बेहद नाराज है. नाराजगी इतना ज्यादा है कि सवर्ण कर्मचारी संगठन सपॉक्स अब बाकायदा राजनीतिक दल की शक्ल ले चुका है और सभी 230 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने के फेर में है.
इन जमीनी हकीकत के अलावा पिछले दो चुनावों में भाजपा के सबसे बड़े चुनावी रणनीतिकार नेता अनिल माधव दवे अब इस दुनिया में नहीं हैं और दूसरे रणनीतिक नेता नरेन्द्र सिंह तोमर की सहभागिता बहुत सीमित हो गई है. इसके साथ ही नरेंद्र मोदी व अमित शाह की नाराजगी के कारण भी शिवराज के नेतृत्व की धमक बहुत फीकी हो गई है. हां, एक बात जरूर है कि चुनाव में संघ के आगे बढ़कर सक्रिय होने के कारण भाजपा की स्थिति जरूर पहले से बेहतर दिख रही है. लेकिन संघ की इस भूमिका को शिवराज समर्थक कई पत्रकार बहुत नकारात्मक दृष्टि से देख रहे हैं इसलिए यह कहा जा सकता है कि भाजपा के जीत में इस तथ्य को भी बढ़ा-चढ़ाकर देखा जा रहा है.
जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो इसके नेता लगभग तीन प्रमुख गुट में बंटे नजर आ रहे हैं. एक तरफ चंबल व गुना में मजबूत ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं तो दूसरी ओर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह नेपथ्य में अपने कद का अहसास जताने से चूक नहीं रहे हैं. तीसरी ओर प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ हैं.
कमलनाथ के मध्य प्रदेश कांग्रेस का कमान संभालने से पूर्व तक ये माना जा रहा था कि ज्योतिरादित्य को ही प्रदेश की कमान दी जा सकती है. उम्र और उर्जा के हिसाब से वे इसके लिए सबसे उपयुक्त दावेदार भी थे लेकिन किन्ही कारणवश केंद्रीय नेतृत्व ने उन पर भरोसा करने के बदले अब तक गुटबाजी से ऊपर रहे 70 वर्षीय कमलनाथ को कमान थमा दी.
शुरू में कमलनाथ ने गुटबाजी पर रोक लगाने में कामयाबी हासिल भी की लेकिन शिवराज और भाजपा के नजर में कांग्रेस के सबसे विवादित लेकिन लोकप्रिय नेता दिग्विजय सिंह की सक्रियता के कारण कई जगह कमलनाथ का कद छोटा होता दिखा. दूसरी ओर ज्योतिरादित्य की कम सक्रियता के कारण भी कमलनाथ प्रभावी चुनावी रणनीति बना पाने में सफल नहीं हो पाएं हैं.
फिलहाल जिस तरह का असंतोष आज शिवराज सरकार को लेकर मध्य प्रदेश में है कुछ ऐसा ही वातावरण 2003 के चुनाव में दिग्विजय सिंह के खिलाफ था. इस असंतोष को अपनी अति सक्रियता और आक्रमकता से उमा भारती जैसी आक्रामक नेता ने भाजपा के पक्ष में कर लिया था. संयोग से कमलनाथ के नेतृत्व में ऐसा कुछ नजर नहीं आ रहा है.
अब वोटों की बात कर ली जाए. मप्र में जीत के लिए कांग्रेस को 5-6 फीसद वोटों का स्विंग चाहिए. हालांकि ये एक नजर में आसान नहीं दिख रहा है लेकिन भाजपा शासन के खिलाफ तमाम भ्रष्टाचार के आरोपों और शासन की नाकामयाबियों के मद्देनजर कांग्रेस चुनाव के अंतिम दौर में भी आम जनता तक ये पहुंचाने में सफल होती है तो भाजपा व संघ की कोशिशें धरी की धरी रह सकती है.
छत्तीसगढ़ में मुकाबला तीनतरफा
जहां तक छत्तीसगढ़ की बात है तो 2003, 2008 और 2013 के चुनावों में दोनों पार्टियों को मिले वोटों में 1 से 2 फीसद वोटों का ही अंतर रहा है, इसलिए कांग्रेस के लिए 15 साल के भाजपाई शासन के बाद रमन सिंह सरकार को हराना बहुत कठिन नहीं दिख रहा था. लेकिन बसपा व अजीत जोगी के जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ के बीच के गठबंधन के बाद राजनीतिक पंडित इसे आसान नहीं मान रहे हैं. बल्कि वहां के मीडिया की खबरों पर विश्वास करें तो वहां किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिलने जा रहा है. ताजा रिपोर्टों की माने तो बसपा व अजीत जोगी के जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ का गठबंधन 15 सीटों पर काफी प्रभावकारी हो सकता है, और यह संख्या छत्तीसगढ़ में सरकार गठन का रुख बदलने के लिए पर्याप्त है.
तेलंगाना का तिलिस्म
तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव ने अपनी गिरती साख के मद्देनजर समय से पूर्व चुनाव कराने का जो फैसला लिया है वो शायद उन्हें भारी पड़ जाये. टीडीपी, कांग्रेस, तेलंगाना जन समिति और भाकपा का गठबंधन मजबूत हो जाने के कारण उसे हार का भी सामना करना पड़ सकता है. 35 साल के राजनीतिक इतिहास में यह पहला मौका है, जब टीडीपी ने किसी भी राज्य में कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया है.
राज्य में पिछला और पहला चुनाव टीडीपी ने बीजेपी के साथ मिलकर लड़ा था. पिछले चुनावों में टीडीपी को मिले 12% और कांग्रेस के 25% वोटों को जोड़ें तो यह टीआरएस को मिले 34% वोटों से अधिक बैठते हैं. वाम दलों की बात करें तो पिछले चुनाव में उनके 7 प्रत्याशी चौथे नंबर थे. हालांकि केसीआर की तेलंगाना के गठन और कृषि के क्षेत्र में काम की वजह से राज्य में अब भी लोकप्रियता कायम है लेकिन उसमें लगातार गिरावट दिख रही है. लेकिन सत्ता विरोधी लहर के साथ-साथ विपक्षी गठबंधन सशक्त हो जाने से अब उनके लिए चुनाव जीतना आसान नहीं. भाजपा का इस राज्य में कोई ज्यादा असर नहीं है.
अंत में मिज़ोरम
अंत में मेघालय की बात जहां विधानसभा की 40 सीटें हैं. फिलहाल कांग्रेस के लिए अपना ये गढ़ बचाना आसान नहीं लग रहा है. हाल के समय में भाजपा ने जिस तरह उत्तर पूर्व के राज्यों पर कब्जा किया है उससे कांग्रेस को यहां अपनी सरकार बचने के लिए बहुत कुछ अतिरिक्त करना होगा.
चुनावों में अभी एक महीना बाकी है और हाल के अनुभवों से देखें तो मतदाताओं के रुझान में अंतिम समय तक बदलाव हो सकता है.
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