Newslaundry Hindi
पार्ट 4: इतिश्री हिंदी पत्रकारिता कथा
स्वतंत्र भारत के आरंभिक दशकों में हिंदी पत्रकारिता की भाषा का स्वरुप स्वतंत्रता पूर्व के हिंदी समाचार प्रकाशनों के पन्नो में लगभग स्थापित हो चुका था. हम उस स्वरूप के विकास के कुछ आयाम पिछले भाग में देख चुके हैं. हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा नहीं मिलने के बावजूद राजभाषा के रूप में हिंदी की संवैधानिक स्वीकृति हिंदी पत्रकारिता के लिए महत्वपूर्ण थी. इसका कारण यह था कि आधिकारिक सूचना, विज्ञप्तियों और सामान्य कामकाज के लिए हिंदी भाषी राज्यों में राज्य सरकारों के साथ-साथ केंद्रीय सरकार भी हिंदी के एक मानक रूप को दिशा देने में लग गयी.
इसकी भूमिका 14 सितम्बर, 1949 को तैयार हुई थी जब संविधान सभा में चर्चा के बाद एक निर्णय आया जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343(1) में इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया: “संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी. संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय होगा.” यही दिन 1953 से हिंदी दिवस के रूप में मनाया जा रहा है.
यह एक ऐसा दौर भी था जब हिंदी पर संस्कृत का प्रभाव बढ़ता चला गया. सरकारी प्रयासों में भी यह स्पष्ट दिखा. विभिन्न विषयों और कार्य-क्षेत्रों के लिए सरकारी विभागों और संस्थानों ने जो हिंदी शब्दावली विकसित की और फिर प्रयोग में लाई उनमें संस्कृत शब्दों की प्रचुरता थी. संसदीय कार्य में हिंदी के प्रयोग को साकार करने के लिए गठित रघुवीर समिति ने इस प्रक्रिया को और तेज़ किया.
इस दौरान संस्कृतनिष्ठ हिंदी के बढ़ते प्रभाव के आलोचक दो बातें भूल जाते हैं. पहला की हिंदी खुद शौरसेनी प्राकृत से उपजी है, जिसकी उत्पति संस्कृत से हुई है. हिंदी की बोलियां जैसे ब्रज और अवधी अपनी शब्द-संरचना में संस्कृतनिष्ठ हैं. दूसरी बात यह भी है कि वैज्ञानिक शब्दावली तैयार करने में संस्कृत के शब्द काफी आसानी से आवश्यकतानुसार ढाले जा सकते हैं.
यह ऐसा समय था जब हिंदी के पुराने अख़बार और स्वतंत्रता के बाद आए नए अखबारों में, जैसे 1948 से प्रकाशित होने वाला दैनिक भास्कर, संस्कृतनिष्ठ हिंदी का प्रभाव बढ़ता गया. हिंदी साहित्य में भी यही रुझान दिखा. इसके विपरीत मनोरंजन-उद्योग, हिंदी सिनेमा और उसके गीत इत्यादि, में उर्दू का प्रभाव अधिक था. इसके दो बड़े कारण इस उद्योग में रोजगार पाए लोगों की भाषीय पृष्ठभूमि और संवादों और गीतों को सरल (आम बोलचाल की भाषा) रखने की व्यावसायिक जरूरत थी.
सत्तर के दशक ने हिंदी पत्रकारिता की भाषा पर एक अलग तरह का प्रभाव डाला. इसमें पत्रकारिता की भाषा को पाठकों के ज़्यादा करीब लाने का आग्रह था. जयप्रकाश आंदोलन से उपजी इस पत्रकारिता की शैली ने हिंदी को जनभाषा की तरह लिखे और पढ़े जाने की एक वैचारिक धारा फिर से प्रवाहित की.
आस-पास और रोजमर्रा के बोलचाल में लिखने का वैचारिक आत्मविश्वास भी जयप्रकाश आंदोलन से उपजी पत्रकारों की एक पीढ़ी में दिखा. अपनी पुस्तक (हेडलाइंस फ्रॉम द हैरतलांड, सेज, 2007) में शेवंती नाइनन ने इस सन्दर्भ में सुरेंद्र प्रताप सिंह का उल्लेख किया है. वो न केवल इस दौर में अपनी पहचान बनाते दिखे बल्कि बाद में टेलीविज़न पत्रकारिता में ऐसी आम बोलचाल वाली हिंदी ले आए जो सरकारी प्रतिष्ठान दूरदर्शन में समाचार प्रसारित करने वाली हिंदी से बिल्कुल अलग थी.
इस बदलाव की एक महत्वपूर्ण कड़ी अगले दशक में देखने को मिली. 1982 में जनसत्ता की प्रकाशन यात्रा आरम्भ हुई और उसकी भाषा पर उसकी सम्पादकीय सोच का असर था. जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी सत्तर के दशक में जयप्रकाश नारायण के निकट सहयोगियों में से एक थे. अख़बार की भाषा में यह प्रभाव दिखा और इसके साथ उन्होंने जनसत्ता में मराठी के कुछ शब्दों को भी स्थान दिया. अस्सी के दशक में जनसत्ता ने सहज और आम लोगों की भाषा में लिखे जाने वाले अख़बार के रूप में हिंदी पत्रकारिता के अन्य प्रकाशनों को भी प्रभावित किया.
लेकिन जयप्रकाश आंदोलन के वैचारिक प्रभाव के साथ-साथ इस पहल में स्थानीयकरण और हिन्दी प्रेस के विस्तार में बाजारतंत्र से जुड़े तर्क भी कारण बने थे. हिंदी मीडिया अब एक संगठित उद्योग की तरह अपने विस्तार के लिए नई ज़मीन और नए पाठक, दर्शक और श्रोता तलाश रहा था. अगर समाचार पत्रों की बात करें तो स्थानीयकरण इस विस्तार-नीति का एक अहम भाग था.
पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में आर्थिक उद्योगीकरण, खगोलीकरण और सूचना-क्रांति ऐसे तीन प्रभाव थे जिसने हिंदी मीडिया के बाजार और उसकी कार्य-संस्कृति पर गहरा प्रभाव डाला. ज़ाहिर है नब्बे के दशक में हिंदी मीडिया की भाषा पर भी इसका प्रभाव पड़ा और यह वर्तमान में हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं, टेलीविज़न चैनलों और वेबसाइट्स पर प्रयोग की जाने वाली भाषा पर यह प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है.
अगर पूर्ण विराम का स्थान फुल स्टॉप का लेना जैसे बदलाव अस्सी के दशक में प्रिंटिंग शैली की मांग हो गयी, तो नब्बे के दशक में विश्व के लिए खुली हिंदी ने अपनी ज़मीन पर हिंगलिश प्रजाति के नए शब्द-जीव को बसाया. यह एमटीवी के साथ पली-बढ़ी पीढ़ी से संवाद बनाए रखने का प्रयास था. पाठक हो या दर्शक या फिर श्रोता अब वो बाज़ार-प्रबंधन की भाषा में मीडिया-ग्राहक हो गया था.
“जेन-नेक्स्ट” हिंगलिश मुख्यधारा की मीडिया में भी लिखी या बोली जाने लगी, यह रेडियो मिर्ची जैसे एफएम रेडियो चैनलों और नए वेबसाइटों तक सीमित नहीं था. हिंदी मीडिया में अपनी भाषा को समाचार-ग्राहकों की उपभोग- व्यवहार, सामाजिक-आर्थिक-समूह और उनकी आकांक्षाओं के अनुसार रखने की प्रवृति दिखी. सम्पादक, जो कई बार मीडिया संगठनों के बाज़ार-प्रबंधन का भी दायित्व उठाए मिले, भाषा को बॉलीवुडिया रूप देने लगे. दैनिक जागरण के द्विभाषीय आई-नेक्स्ट अख़बार के कुछ हेडलाइंस से इसे और स्पष्टता से समझा जा सकता है. वाराणसी संस्करण में “फैसिलिटी का नामोनिशान नहीं” और पटना संस्करण में खेल पृष्ठ पर “Raj Milk ने खिड़ीपुर को धो डाला” (जहां राज मिल्क के लिए रोमन लिपि का प्रयोग किया गया). इस तरह की हेडलाइंस इसी प्रक्रिया का हिस्सा हैं. नवभारत टाइम्स ने तो अपने मास्टहेड का ही रोमन और देवनागरी में विभाजन कर दिया.
यह रोचक है कि वैश्वीकरण एकरूपता को बढ़ावा देने के साथ-साथ बाजार-तंत्र के वो बीज़ भी बोती है जो स्थानीयकरण को भी बल देती है. जिला संस्करणों में पाठकों के करीब आने के लिए कुछ अखबारों ने क्षेत्रीय बोलियों को भी जग़ह देने के प्रयोग किये. प्रभात खबर ने जहां बिहार के कुछ जिलों में मैथिली में स्तम्भ प्रकाशित करने का प्रयोग किया वहीं दैनिक भास्कर ने राजस्थान में वागड़ी में हेडलाइंस देने की पहल की.
कालांतर में ऐसे स्वाभाविक परिवर्तन आने के बावजूद 1920 के दशक में हिंदी पत्रकारिता के लिए जिस हिंदी ने आकार लिया वही कई मायनों में अभी भी भाषा-व्यवहार की मानक ज़मीन है. शायद यह उसका सजीव चरित्र है जिसने परिवर्तन और प्रयोग की सम्भावनाओं के लिए खुद को खुला रखा. विश्व की अन्य भाषाओं की तरह हिंदी पत्रकारिता की भाषा भी सूचना-प्रौद्योगिकी के युग में संक्रमण काल से गुजरी और गुजर रही है. लेकिन उसका चरित्र हिंदी ही है, रंग-बिरंगी सी हिंदी.
Also Read
-
‘Foreign hand, Gen Z data addiction’: 5 ways TV anchors missed the Nepal story
-
Mud bridges, night vigils: How Punjab is surviving its flood crisis
-
Adieu, Sankarshan Thakur: A rare shoe-leather journalist, newsroom’s voice of sanity
-
Corruption, social media ban, and 19 deaths: How student movement turned into Nepal’s turning point
-
‘You can burn the newsroom, not the spirit’: Kathmandu Post carries on as Nepal protests turn against the media