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नारायण दत्त तिवारी: ख़ुदा रक्खे, बहुत सी खूबियां थीं मरने वाले में
आखिर नारायण दत्त तिवारी समय निकाल कर मर ही गए. इस देश में मरने के बाद मनुष्य देव तुल्य हो जाता है. कोई नहीं कहता कि मर गए. बल्कि कहा जाता है कि स्वर्गवासी हो गए, अथवा दिवंगत हो गए. लेकिन चूंकि मुझे पता है कि तिवारी न तो दिवंगत हुए हैं, न स्वर्गवासी हुए हैं, बल्कि मर गए, जैसे सब मरते हैं. क्या बिडंबना है कि बस दुर्घटना में लोग मर जाते हैं, और विमान दुर्घटना में हताहत होते हैं. इसी तरह सामान्य मनुष्य मर जाता है, जबकि तिवारी जैसे महाजन दिवंगत होते हैं.
चूंकि मैं एक चांडाल प्रवृत्ति वाला पत्रकार हूं, कोई नेता नहीं हूं, अतः मरे मनुष्य की भी कपाल क्रिया करता हूं. मैं तिवारीजी की लीलाओं का पिछले कम से कम 45 साल से एक जिज्ञासु साक्षी रहा हूं. एक पत्रकार के रूप में मुझे जब भी मेरी रूचि अथवा विशेषज्ञता के क्षेत्र पूछे गए, तो मेरा उत्तर सदैव यही रहा- पर्यावरण, संगीत, देशाटन, सेक्स और नारायण दत्त तिवारी. इन सभी विषयों पर मैं आधा घंटे के नोटिस पर एक हज़ार शब्दों का लेख आनन-फानन लिख सकता हूं.
नैनीताल ज़िले के एक सुदूर गांव में अति सामान्य परिवार में जन्मे नारायण दत्त तिवारी का मूल उपनाम बमेठा था. उनके पहले चुनाव (1952) में नारा लगता था- विधना तेरी लीला न्यारी, बाप बमेठा, च्यला तिवारी. सम्भवतः जब वह स्वाधीनता संग्राम में जेल से छूट कर आगे की पढ़ाई करने इलाहाबाद (योगी का प्रयागराज) गए, तो अपना अटपटा उपनाम बमेठा बदल कर तिवारी कर दिये, क्योंकि यह उत्तराखंड के अलावा बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक प्रचलित सरनेम है.
विलक्षण और स्वप्रेरित तिवारी 17 साल की उम्र में ही स्वाधीनता संग्राम में जेल यात्रा कर चुके थे. ख़ास बात यह रही कि बाप-बेटे अर्थात नारायण दत्त तिवारी और उनके पिता, जिनका नाम मुझे अभी याद नहीं आ रहा, दोनों एक साथ जेल गए और जेल से छूट कर पिता-पुत्र ने साथ-साथ दसवीं की परीक्षा दी. ज़ाहिर है कि पिता भी बिंदास पुरुष रहे होंगे.
कोई आठ साल पहले जब तिवारी हैदराबाद के राजभवन से अप्रिय परिस्थितियों में विदा होकर देहरादून लौटे, तो उनके घर के पास गुज़रते समय मुझे प्यास लगी. मैंने अपने सहयोगी से कहा- तिवारी के घर की ओर गाड़ी मोड़ो, पानी वहीं पीएंगे.
एकांत में बैठे तिवारी को मैंने उनके जीवन की कई ऐसी घटनाएं सुनाईं जो उन्हें भी याद न थीं. चकित तिवारी बोले- अरे आपको तो मेरे बारे में सब कुछ पता है. आप पहले कभी मिले नहीं. मैंने कहा श्रीमंत, यह मेरी आपसे 174वीं मुलाक़ात है. पर आपने कभी मेरी तरफ ध्यान नहीं दिया, क्योंकि मैं औरत नहीं हूं.
विधना तेरी लीला न्यारी
नारायण दत्त तिवारी विनम्र अवश्य थे, पर खुंदकी भी अव्वल दर्जे के थे. बात को मन में रखते थे, और प्रतिद्वंद्वी को धीमी आंच के तंदूर की तरह भीतर तक भून देते थे. यूं मेरे पिता (सुंदरलाल बहुगुणा) के सम्मुख वह सदैव उनकी अभ्यर्थना करते, पर मन ही मन उनसे खुंदक खाते थे. इसके दो कारण थे. प्रथम तो मेरे पिता हेमवती नन्दन बहुगुणा के अधिक समीप थे. और दूसरा, वह इंदिरा गांधी से तिवारी की पर्यावरण विरोधी हरकतों की शिकायत कर उन्हें आयरन लेडी से डंटवाते थे. दोनों का प्रसंग संक्षेप में.
इमरजेंसी लगी तो इंदिराजी का उद्दाम बेटा संजय कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को हांकने लगा. इसी क्रम में वह लखनऊ आया, और मुख्यमंत्री बहुगुणा को निर्देश के अंदाज़ पर देषणा देने लगा. बहुगुणा एक नकचढ़े पुरुष थे. उन्होंने संजय से कहा- ये राजनीतिक मसले तुम्हारी मम्मी और मैं सुलझा लेंगे. तुम खाओ, खेलो, और अपनी सेहत पर ध्यान दो. फिर अपने स्टाफ को हांक लगाई- अरे देखो, ये बच्चा आया है. इसे फल, दूध, मिठाई दो.
सांवले पहाड़ी ब्राह्मण के ये तेवर देख संजय जल भुन गया, और पांव पटकता दिल्ली को फिरा. उसने तत्क्षण बहुगुणा को अपदस्थ करने की ठान ली. उत्तर प्रदेश के दो व्यक्ति उसका मोहरा बने. प्रथम राज्यपाल एम चेन्ना रेड्डी और द्वितीय बहुगुणा के सीनियर कैबिनेट मिनिस्टर एनडी तिवारी. चेन्ना रेड्डी, बहुगुणा से रंजिश रखता था, क्योंकि बहुगुणा ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का महासचिव रहते उसकी बजाय पीवी नरसिंहराव को आंध्र का सीएम बनवाया. राव, बहुगुणा की मिजाजपुर्सी करता था और बहुगुणा को यह बहुत पसन्द था. ये दोनों व्यक्ति आये दिन दिल्ली जाकर बहुगुणा के खिलाफ संजय के कान भरते थे.
हेमवती बाबू ने एक बार मुझे बताया- जब मैं दिल्ली से इस्तीफा देकर लखनऊ आया तो मेरी सारी कैबिनेट मुझे रिसीव करने हवाई अड्डे पर मौजूद थी, सिर्फ नारायण दत्त न था. मैं तभी समझ गया था कि उत्तर प्रदेश का अगला सीएम नारायण दत्त होगा. यह भीषण मित्रघात और गुरुद्रोह था. तिवारी को कांग्रेस में बहुगुणा ही लाये थे, और उन्हें यह कहकर महत्वपूर्ण मंत्रालय दिलाए, कि यह मेरे गांव के पास का लड़का है.
ख़ुदा रक्खे, बहुत सी खूबियां थीं मरने वाले में
1981 से 84 के बीच कभी मेरे पिता और नारायण दत्त तिवारी, इंदिरा गांधी के वेटिंग रूम में साथ बैठे थे. मेरे पिता को पहले बुलावा आया गया. तिवारी टुकुर-टुकुर देखते रहे. गुस्सैल, बोल्ड & ब्यूटीफुल इन्दिरा ने मेरे पिता की बात सुन अपने सलाहकार धवन से पूछा- क्या नारायण दत्त बाहर बैठा है? अर्धचन्द्राकार अवनत हो तिवारी अंदर पंहुचे.
आयरन लेडी ने फटकार बताई- क्या तुमने अभी तक उत्तराखण्ड में पेड़ काटने बन्द नहीं किये? तिवारी ने आर्थिक स्थिति का रोना रोया. इंदिरा दहाड़ी- “ठीक है बहुगुणा जी, इन्हें पेड़ काट कर ही उत्तर प्रदेश का राज चलाने दो, मैं इनकी सारी केंद्रीय सहायता बन्द कर रही हूं.”
लेकिन तिवारी के धुएं में आग और उजाला भी कम न था. 2004 के आसपास एक श्रमजीवी पत्रकार मेरे पास आया और बहन की शादी के लिए 5000 का कर्ज़ मांगा. मैंने कहा- “तुम जानते हो कि मैं खुद ही ‘चोरी क चिकण्या और मांगिक खण्या’ (अर्थात चोरी से सेक्स करने वाला, और मांग के खाने वाला) व्यक्ति हूं. फिर भी दिनमणि कल्याण करेंगे.
अगली सुबह मैं मुख्यमंत्री तिवारी के घर गया और 5 हज़ार रुपये मांगे. तिवारी ने उसी शादी के कार्ड पर 10 हज़ार की रकम स्वीकृत कर दी. तब मैंने हाथ जोड़ कर कहा- “बड़े पापा, आपकी बहुत कृपा, लेकिन शादी पांच दिन बाद है, और कई जगह से गुज़र कर यह रकम महीने भर बाद पंहुचेगी. तिवारी ने चमोली के डीएम को फोन लगाया और कहा- अमुक पते पर दस हज़ार रुपये कल पंहुचा दो, तुम्हे यहां से भिजवा दिए जाएंगे.”
कई दिन बाद जब मैंने फोन पर तिवारी को इस सदाशयता हेतु कृतज्ञता ज्ञापित की तो तिवारी बोले, “आप इस नारायण दत्त को शर्मिंदा कर रहे हैं. ऋषि पुत्र के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूं.” अलविदा तिवारी.
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