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अकबर का जन्मदिन और अकबर का संकट
आज अकबर का जन्मदिन है. एमजे का नहीं, बादशाह अकबर, 1542 वाले का. जिस बादशाह की दीन-ए-इलाही में गंगा जमुनी तहजीब को सरपरस्ती मिली. उस अकबर का जिसके नाम पर मकबूल दिल्ली की एक सड़क के बोर्ड पर कुछ छुटभैय्ये अटल बिहारी वाजपेयी का नाम चिपका कर धूमिल करना चाहते हैं. अटल की आत्मा दुखी होगी. वह अकबर जिसके हाथों तामील एक शहर इलाहाबाद का नाम अब बदल दिया जाएगा. वह अकबर महान जिसके नवरत्नों में बीरबल, तानसेन और टोडरमल का क़द बाकियों से ऊंचा था. वह अकबर जिसके परचम तले मौजूदा हिंदुस्तान का सबसे संगठित रूप पहली बार दुनिया के सामने नमूदार हुआ.
अकबर की शख्सियत चौतरफा बुलंद थी, इसीलिए अकबर को महान कहा गया. दुनिया में कम ही शांहशाह ऐसे हुए. जाहिर है मां-बाप अपने बच्चों के नाम इतने बड़े नायकों के नाम पर रखते समय उन नामों से जुड़ी महानता को ही ज़हन में रखते होंगे. एमजे के मां-बाप भी अलग नहीं होंगे. उनकी भी इच्छा बेटे को अकबर महान की तरह ही बुलंदी तक पहुंचते देखने की रही होगी. एक मायने में एमजे उस पर खरा भी उतरे. 23 की उम्र में संपादक बनना, टेलीग्राफ, एशियन एज और संडे गार्डियन जैसे अखबारों की नींव गाड़ना एक आला दर्जे की प्रतिभा वाले पत्रकार का ही काम हो सकता है. 80 के आखिरी और 90 की दशक की अंग्रेज़ी पत्रकारिता में अकबर की तूती बोलती थी. बादशाहत की क्या हसरत, एक अदद तूती नक्कारखाने में बजती रहे.
एक अदद हरम बादशाही के तमाम गुण-अवगुणों का अभिन्न हिस्सा रहे हैं. क्या अपनी बादशाही में एमजे ने इस अवगुण को भी अंगीकार किया? इसके दो पक्ष हैं. कुल 11 ख़बातीनों ने एमजे के ऊपर यौन शोषण के बेहद संगीन आरोप लगाए हैं. दूसरी तरफ एमजे हैं जिन्होंने अपने ऊपर लगे तमाम आरोपों को खारिज कर इसे साजिश करार दिया है. एमजे का अतीत बहुत अवसरवादी रहा है. उनके इसी गुण के कारण कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर ने एमजे का एक उपनाम ईजाद किया था- मोस्ट नोटोरियस डिफेक्टर- बदनाम धोखेबाज.
कांग्रेस से राजनीतिक करियर शुरू करके पत्रकारिता और राजनीति के बीच झूलते हुए 2014 में अकबर मोदी की भाजपा में जा गिरे. शायद अय्यर के नामकरण की वजह यही रही होगी.
साथी महिला पत्रकारों के आरोप, उस पर अकबर के जवाब अब सियासत का मुद्दा हैं, उसके तथ्यों पर दोनों पक्षों के अपने तर्क-वितर्क हो सकते हैं. लेकिन इस पूरे मुद्दे के नैतिक पक्ष पर बात तो फिर भी हो ही सकती है. हालांकि नैतिकता के पैमाने व्यक्ति दर व्यक्ति अलग-अलग हो सकते हैं. लेकिन नैतिकता का टकराव जब राजनीति से होता है तब पैमाने थोड़ा बदल जाते हैं. राजनीति में व्यक्ति का जीवन व्यक्तिगत से सार्वजनिक हो जाता है. आपके आचरण को आदर्श के चश्मे से देखा जाने लगता है. आपके पद की अपनी मर्यादा होती है, उसके कुछ तकाजे होते हैं जिन्हें चाहे न चाहे, आपको मानना पड़ता है. तमाम नेता ऐसे होंगे जो व्यक्तिगत जीवन में शराब का सेवन करते होंगे पर सार्वजनिक जीवन में वो ऐसा करते हुए नहीं दिख सकते. यह नैतिकता का तकाजा है. तमाम नेता ऐसे होंगे जो नवरात्र या बाकी दिनों में मांसाहार करते होंगे पर सार्वजनिक रूप से ऐसा करते हुए नहीं दिखना चाहेंगे. तो क्या नेताओं को ऐसे किस व्यक्ति के साथ दिखने में दिक्कत नहीं होती जिसके ऊपर 11 महिलाओं ने यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए हैं?
भारतीय राजनीति ने आज़ादी के बाद लंबा सफर तय कर लिया है, उसके साथ ही इसकी नैतिकता ने भी. लाल बहादुर शास्त्री ने 60 के दशक में रेल की दुर्घटना पर अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. बाद में हमने लालू यादव, नितीश कुमार और सुरेश प्रभु सरीखे रेलमंत्री देखे जिनके कार्यकाल में दुर्घटनाएं होती रही, मंत्री डटे रहे.
नैतिकता का एक पहलु व्यक्ति का आचरण भी होता है. इस देश के प्रधानमंत्रियों के आचरण का एक पैमाना जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री हैं. मौजूदा सरकार भाजपा की है इसलिए इन दोनों कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों को छोड़ भी दें तो हम अटल बिहारी वाजपेयी को पैमाना मानकर उनके मंत्रिमंडल की कल्पना करें. क्या इन प्रधानमंत्रियों के मंत्रिमंडल में ऐसे किसी व्यक्ति की बतौर मंत्री मौजूदगी की कल्पना की जा सकती है जिसके ऊपर 11 महिलाओं ने शारीरिक छेड़छाड़ या यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए हों.
इस सवाल का जवाब आसान है. ऐसे किसी व्यक्ति के पीछे खड़ा होना शायद ही देश के किसी प्रधानमंत्री को स्वीकार होता. लेकिन जैसा कि हमने पहले ही कहा है, नैतिकता भी एक लंबी यात्रा तय करके यहां तक पहुंची है. प्रधानमंत्री मोदी ने अपने लिए तय किया है कि वो अकबर के साथ रहेंगे. इस तरह के आरोप इस सरकार के मंत्रियों पर पहले भी लगते रहे हैं. राजस्थान से भाजपा सांसद निहाल चंद्र मेघवाल के ऊपर भी एक महिला ने आरोप लगाए थे पर सरकार ने मेघवाल का साथ देने का तय किया था.
एमजे आज जहां मौजूद हैं उसमें अवसर और समझौते का अद्भुत तालमेल है. इन दोनों से निर्मित एमजे का सफर सियासत और पत्रकारिता के उनके साथियों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है. कुछ इसे गलत मानते हैं, कुछ की अपनी पुरानी पीड़ाएं हैं, पर संकट के इस समय में कोई भी सामने आकर, अपना नाम जाहिर कर एमजे पर बोलना या हमला करना नहीं चाहता. 80 के उत्तरार्ध में एमजे को कांग्रेसी रूप में करीब से देख चुके एक कांग्रेसी नेता के मुताबिक वो हमेशा से महत्वाकांक्षी थे, उनकी महत्वाकांक्षा किस भी विचारधारा पर भारी थी.
नेहरू पर किताब लिख चुके अकबर ने लगभग 180 डिग्री का घुमाव लेते हुए 2014 में भाजपा का दामन थाम लिया. पत्रकारिता के उनके पुराने सहयोगियों में से एक का कहना है कि, एमजे के इस क़दम से उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ. उनके अवसरवादी और समझौतावादी व्यवहार को देखते हुए भाजपा के साथ उनका जाना संभावित था. भाजपा में एमजे भले ही आज गए हैं लेकिन आडवाणी के साथ उनके रिश्ते लंबे समय से थे. मंदिर आंदोलन के दौरान ही वे आडवाणी के करीब आ चुके थे.
दिल्ली दरबार में पहुंचना एमजे का लक्ष्य था, पर अकबर महान के क़द को छूना सिर्फ नाम, महत्वाकांक्षा और अवसरवाद के सहारे नहीं हो सकता.
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