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#MeToo: रेत में सिर गाड़कर आंधी के गुजरने के इंतजार में हिंदी मीडिया
ऐसा लगता है अंग्रेजी मीडिया में यौन उत्पीड़न और जेंडर भेदभाव का कलिकाल और हिंदी में सतयुग चल रहा है. हिंदी या तमाम भाषाई मीडिया के संपादक और मैनेजर चरित्र की बजरंगी ऊंचाईयां छू चुके हैं और वहां तीन पीढ़ी से काम करने वाली महिलाओं को कभी कोई समस्या ही नहीं हुई.
हकीकत इसके उलट है. हिंदी का परिदृश्य कहीं ज्यादा गलीज और आपराधिक है लेकिन अभी वहां शुतुरमुर्गी चुप्पी है जो रेत में सिर गाड़कर ‘मी टू’ की आंधी के गुजर जाने का इंतजार कर रही है.
हिंदी में काम करने वाली महिलाओं की यौन उत्पीड़न की स्वीकारोक्तियां सामने आना तो दूर की बात है, वहां मीडिया में अब तक सामने आए सबसे बड़े अकबरी स्कैंडल में उत्पीड़न की शिकार महिला पत्रकारों की खबरें तक नहीं छापी जा रही हैं. यहां यह नतीजा निकालना कतई गलत होगा कि हिंदी मीडिया मोदी सरकार के हाथों बिक चुका है इसलिए एक विदेश मंत्री के मामले में मुंह सिले हुए हैं. खासतौर से तब जब खुद सरकार ने ही बचाव का कोई रास्ता न देखकर विदेश मंत्री, एमजे अकबर को अपना बोया काटने के लिए अकेला छोड़ दिया है.
हिंदी मीडिया के मालिक और संपादक दोनों अच्छी तरह जानते हैं कि एमजे अकबर वैसा ही एक सजावटी पौधा है जैसा कभी सिकंदर बख्त हुआ करते थे या इन दिनों मुख्तार अब्बास नकवी और शाहनवाज हुसैन हैं. इन्हें भाजपा ने अपने गमले में मुसलमानों के बीच अपने कट्टर हिंदुत्व की स्वीकार्यता का दिखावा करने के लिए रोपा था. अब इन सबकी जरूरत खत्म हो चुकी है क्योंकि भाजपा अब मुसलमानों को चुनाव नहीं लड़ाती. अब वह दिखावे के तौर पर ही सही मुसलमानों के प्रति घृणा को छिपाने के दौर से आगे निकल कर उसी को चुनावी ध्रुवीकरण का मुख्य मुद्दा बनाने का सफर तय कर चुकी है. भाजपा रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण के जरिए महिला सशक्तिकरण का जितना दावा करती है वह अकबर के जरिए उसकी एक चौथाई भी मुस्लिमपरस्ती दिखाने के मूड में नहीं है.
हिंदी मीडिया की चुप्पी का कारण यह है कि वह आग से खेलना नहीं चाहता. वह भाग रहा है. अगर अंग्रेजी की महिला पत्रकारों के साहसिक खुलासे और स्वीकारोक्तियां छापने-दिखाने लगे तो हिंदी में काम करने वाली या कर चुकी पत्रकारों को प्रोत्साहन मिलेगा. उन्हें भ्रम हो सकता है कि मालिक चाहता है कि वे बोलें. अगर वे बोलने लगीं तो इतनी नौकरियां जाएंगी कि संपादकों और मैनेजरों का अकाल पड़ जाएगा. कुछ दैनिक भास्कर के कल्पेश याज्ञनिक शैली की आत्महत्याएं और हत्याएं भी हो सकती हैं.
टेलीग्राफ और एशियन एज के दिनों में एमजे अकबर के एक दोस्त लखनऊ में सबसे बड़े हिंदी अखबार के संपादक या कहिए सर्वेसर्वा हुआ करते थे. उन्होंने महिला पत्रकारों के प्रति अपने नजरिए को कभी छिपाया नहीं. जो समर्पण न करे उसे खुलेआम रंडी और छिनाल की गालियां देते थे, जो समर्पण कर दे उसे बेटी, बहन या भांजी बना लेते थे. लेकिन तब भी उनके यौन उत्पीड़न की कहानियां किसी से छिपती नहीं थीं. जिन दिनों प्रकोप ज्यादा बढ़ जाया करता था उन दिनों संपादक की पत्नी खुद दफ्तर में आकर निगरानी करने लगती थीं. उन्होंने एक फोटोग्राफर के घर में अपना सुहाग कक्ष बना रखा था.
फोटोग्राफर का गोपनीय नाम ‘विटामिन-बी’ रखा गया था जो हर मर्ज की दवा था. इन महिला पत्रकारों के चक्कर में वे कई बार रातों को पिटे भी लेकिन रसूखदार थे सो हर बार मामला रफा-दफा हो जाता था. एक बार, वे एक लड़की रिपोर्टर को वे अयोध्या ले जाने पर अड़ गए. छह दिसंबर, 1992 से दो दिन पहले की बात है. लड़की उनकी मंशा भांप गई थी, लेकिन वह उसके घर पहुंच गए और सड़क पर खड़े होकर गालियां देने लगे. लड़की को वहीं के वहीं इस्तीफा देकर जान बचानी पड़ी.
एक बिड़लाजी के अखबार के संपादक थे जिनकी कई लड़कियों ने लिखित शिकायत की लेकिन प्रबंधन ने कार्रवाई करना जरूरी नहीं समझा. वह डेस्क पर से लड़कियों को जबरन उठाकर रात में घूमने निकल जाया करते थे. एक बार रात में वह एक लड़की के साथ बनारस के एक बार में थे. वहां झगड़ा हुआ, कुछ लड़कों ने सिगरेट से उनका चेहरा जला दिया. अगले दिन सबकुछ सार्वजनिक हो गया.
हिंदी में ज्यादातर मामले ऐसे संपादकों, मैनेजरों, ब्यूरोचीफों के हैं जिन्होंने लंबी योजना के तहत मजबूर लड़कियों को पत्रकार, रिसेप्सनिस्ट या कंपोजिटर की नौकरी दी, उन्हें सतत असुरक्षा में रखा, धमकाना और फुसलाना दोनों एक साथ करते रहे फिर उन्हें सुविधाएं देकर अपनी रखैल ही बना लिया. ये लड़कियां तब ऐसी स्थिति में नहीं थी कि उनका विरोध कर सकें. अगर वे ऐसा करतीं तो घर और बाहर दोनों जगह अकेली पड़ जाती और उनके लिए बेरोजगार रहते हुए जी पाना संभव नहीं था. शायद ही हिंदी का कोई अखबार या चैनल हो जहां इस तरह की घटनाएं नहीं घटित हो रही हैं. अहम बात यह है इन लड़कियों का मीडिया के भीतर या बाहर कोई समर्थन करने वाला नहीं है.
अंग्रेजी में जो प्रोफेशनलिज्म, वैचारिक खुलेपन और आधुनिक टेम्परामेंट की आड़ में हो रहा है वही काम हिंदी में रिश्तेदारी, जाति, धार्मिक रिवाजों और कैरियर में आगे बढ़ाने की अनुकंपा के नाम पर होता आया है. हिंसा और असुरक्षा ज्यादा है क्योंकि काम करने की परिस्थियां और सेवा शर्ते बदतर हैं.
पहले कोई मंच नहीं था जहां लड़कियां अपनी तकलीफ और अपमान को सबसे साझा कर पातीं इसलिए सबसे भयानक कहानियां उनके मन के भीतर गड़ी हुई हैं. अब पितृसत्ता से भी अधिक शक्तिशाली चीज टेक्नोलॉजी उनके हाथ लग गई है. नेटवर्किंग की ताकत के आगे मर्दानगी और गिरोहबंदी का जोर नहीं चल रहा है. हालात अंग्रेजी से कहीं ज्यादा संगीन हैं लेकिन दोनों जगह नेटवर्किंग की ताकत एक जैसी ही है. हो सकता है आने वाले दिनों में हिंदी में भी मीटू-मीटू सुनाई पड़े और यौन उत्पीड़न के ज्यादा देसी कुकर्म सामने आएं.
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