Newslaundry Hindi
दस-बीस निदा फ़ाज़ली होते तो…
निदा फ़ाज़ली का शेर है- ‘हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी, जिसको भी देखना बार-बार देखना’. पहली बार जब ये शेर पढ़ा तो अजीब सी चिढ़न महसूस हुई. लगा मानो किसी ने सीने में छुपे हुए मुझ जैसे ही 10-20 आदमी बाहर निकाल सड़क पर फ़ेंक दिए हों. ख़ुद को समेटते हुए सोचने लगा, “ऐसे कोई किसी को बेलिबास करता है क्या? आख़िर इतना सच भी तो ठीक नहीं?” फिर ख़्याल आया, “ये बात कहने वाला भी क्या ऐसा ही रहा होगा?”
निदा फ़ाज़ली में 10-20 निदा फ़ाज़ली थे या नहीं, मालूम नहीं. पर हां, कभी ‘#मीटू’ जैसा कोई क़िस्सा नहीं सुना (कैंपेन तो अब चला है, मसला तो पुराना ही है). कहीं हल्की शायरी की हो, कहीं भद्दा मज़ाक किया हो, ऐसा भी ज़िक्र नहीं पढ़ा या सुना. इसलिए कह रहा हूं कि अक्सर शायरों पर ऐसी तोहमतें लगाई जाती हैं. हालांकि उनका ही शेर, “औरों जैसे होकर भी हम बाइज़्ज़त हैं बस्ती में, कुछ उनका सीधापन है कुछ अपनी अय्यारी है.” पढ़कर डर लगता है कि निदा शेर के ज़रिये हाल-ए-दिल तो बयां नहीं कर रहे?
पर चाहे जितनी बार देख लो, अन्दर भी एक ही निदा फ़ाज़ली था. तिस पर अफ़सोस की बात ये है कि 10-20 निदा फ़ाज़ली पैदा नहीं हुए. ग़ालिब का खुद पर शेर है- ‘वहशते शेफ़्ता मर्सिया कहवें शायद, मर गया ग़ालिब अशुफ्ते नवा कहते हैं.’ आप इसमें ग़ालिब की जगह निदा को रख छोड़िये. शेर हल्का नहीं होगा, बात हल्की नहीं होगी. निदा हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब के आख़िरी नुमाइंदा थे. जब से वो गए हैं, इस तहज़ीब पर कोई नहीं लिखता. अब ग़ज़ल भी नहीं पढ़ी जाती, लोग अब सिर्फ़ उसका मर्सिया पढ़ते हैं.
हर दौर का अपना स्टाइल रहा है. शैलेन्द्र ने कहा था, “हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं”. प्रोग्रेसिव लेखकों की अपनी ज़ुबान रही और उन्होंने दर्द को ख़ूब उकेरा. आत्म संयम या रेस्ट्रेन जदीद (आधुनिक) शायरी का ख़ास पहलु है. निदा की शायरी उस कस्प पर है जहां पोएट्री के दो अंदाज़ मिलते हैं. वो प्रोग्रेसिव और जदीद शायरी के मिलने वाले मोड़ पर खड़े हुए नज़र आते हैं. वो बात जो कहनी हो, वो न कहकर कही जाए निदा फ़ाज़ली की शायरी में जदीदीयत का ऐलान है. मिसाल के तौर पर ये शेर कहा जा सकता है- ‘मेरी आवाज़ ही पर्दा है मेरे चहरे का, मैं हूं खामोश जहां मुझ को वहां से सुनिए.’
निदा फ़ाज़ली की असल शायरी का अहसास भी उन के कहे शब्दों में नहीं उस दर्द में है जिसे वे अपने शब्दों से, अपने अंदाज़ से छुपा लेते हैं. एक तरफ़ निदा गहरी से गहरी बात या दर्द को अनकहे ही हम तक पंहुचा देते हैं, और दूसरी तरफ़ राहत इन्दौरी जैसे भी शायर हैं जो अपने लफ़्ज़ों या अहसासों की बनिस्बत अपनी भाव भंगिमा से मंच को तो हिला देते हैं पर सुनने वालों के ज़हनों को नहीं झकझोर पाते.
निदा फ़ाज़ली के जानने वाले बताते हैं कि वो संप्रेषणीयता को ग़ज़ल का आधार मानते थे. साथ में इस बात से भी बचते कि किसी जटिल विचार के लिए लफ़्ज़ों का जाल न बुना जाए. बात कैसी भी हो, सादा ज़ुबान में कही जाए तो बेहतर है. ग़ालिब किसी जटिल बात को कहने के लिए भारी भरकम लफ़्ज़ों का इस्तेमाल करते थे, वहीं मीर तकी मीर कुछ सीधी बात करते थे. पर निदा न तो ग़ालिब हैं और न ही मीर. वो आज के ज़माने के हमदर्द थे. उनकी शायरी उर्दू ज़ुबान की खड़ी बोली थी और नई हिंदी भी इसी नींव पर टिकी है.
इसको समझने के लिए फिर से ग़ालिब का ही सहारा लिया जा सकता है. मसलन, ग़ालिब ने कहा था- ‘बाज़ी-चा-ए- अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे, होता है शबो रोज़ तमाशा मेरे आगे.’ ‘बाज़ी-चा-अत्फ़ाल’ का मतलब बच्चों के खेलने का मैदान. निदा फ़ाज़ली इसी बात को कुछ यूं कहते हैं, ‘दुनिया जिसे कहते हैं बच्चे का खिलौना है, मिल जाए तो मिटटी है, खो जाए तो सोना है.’
12 अक्टूबर, 1938 को दिल्ली में पैदा हुए निदा फ़ाज़ली का बचपन ग्वालियर में गुज़रा. उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि उन्हें घर में जो शायरी का माहौल मिला, वो ग्वालियर की गलियों से अलग था. गलियों में कबीर मिले, नंदी बैल मिला, रोज़ मर्रा के मस्ले मिले और यही शायरी में ढाल दिया.
निदा ने धार्मिक समभाव पर ख़ूब लिखा और ये उनका पसंदीदा सब्जेक्ट है. बकौल निदा फ़ाज़ली, ‘ज़ुबान जब चहरे पे ढाढ़ी बढ़ा लेती है और सर पे टोपी पहन लेती है तो आम इंसान से कट जाती है, आम इंसान तो हिन्दू भी है और मुस्लिम भी. उनका दोहा, ‘चाहे गीता बांचिये या पढ़िए कुरआन तेरा मेरा प्यार की हर पुस्तक का ज्ञान’ ग्वालियर ही नहीं हिंदुस्तान की हर गली का क़िस्सा है.
मशहूर शायर जां निसार अख्त़र भी ग्वालियर के थे. उनसे मिलने की तमन्ना निदा को मुंबई ले आई. दोनों की तबियत और मिज़ाज कहीं-कहीं एक जैसा था. इसलिए निदा को साहिर लुधयानवी से ज़्यादा जां निसार पसंद आये और इस बात का ऐलान उन्होंने जां निसार पर लिखी ‘एक जवान मौत’ लिखकर कर दिया. हैरत की बात है कि जावेद अख्तर ने अपने वालिद पर क़िताब नहीं लिखी है.
जब निदा फ़ाज़ली मुंबई आए तो अपने साथ साहिर के जैसी शोहरत नहीं लाये थे. 1981 में उन्हें एक फ़िल्म मिल गयी जिसका नाम था ‘हरजाई’. पंचम ने इस फ़िल्म के लिए गुलज़ार या आनंद बक्शी के बजाय निदा से गाने लिखवा लिए. लता मंगेशकर जब भी ‘तेरे लिए पलकों की झालर बुनूं’ सुनती होंगी, तो उन्हें ख़्याल आता होगा अगर निदा न होते, तो फिर ये गीत कौन लिखता? और इस प्रकार उन्हें ब्रेक मिला. इसी फ़िल्म का ‘कभी पलकों पे आंसू हैं, कभी लब पे शिकायत है’ किशोर की आवाज़ में बेहद संजीदा गीत है. कहा जाता है ये उनकी पहली फ़िल्म थी.
हालांकि, ‘आप तो ऐसे न थे’ पहले रिलीज़ हुई थी. इसका गीत- ‘तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है’ फिल्म की थीम के साथ-साथ चलता है. उषा खन्ना ने इस गीत को मोहम्मद रफ़ी, हेमलता और मनहर उधास से सोलो गवाया हैं. पर लगता है मनहर इस गीत की आत्मा के नज़दीक तक जा पाए थे.
उनकी ही ग़ज़ल ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता’ इंसान की कशमकश, जद्दोजहद और अधूरे रह जाने की ख़लिश का मज़बूत हस्ताक्षर है.
क़माल अमरोही ने ‘रज़िया सुल्तान’ के गीतों के लिए जां निसार अख्तर को साइन किया था. अख्तर की मौत के बाद अमरोही ने निदा फ़ाज़ली से गीत लिखवाये. क्या इसलिए की निदा को अख्तर पसंद थे? या उन पर किताब लिखी थी? किसी ने सही कहा है- ‘मेरे जैसे बन जाओगे जब इश्क़ तुम्हें हो जाएगा.’
कुछ साल पहले उन्होंने एक बयान देकर सबको चौंका दिया था. उन्होंने कहा कि अमिताभ बच्चन तो 26/11 के कसाब की तरह हैं. कसाब को पाकिस्तान में बैठे हाफ़िज़ सईद ने बनाया है और अमिताभ को एक सलीम-जावेद ने. बड़ा बवाल मचा था. दरअसल, वो ये कहना चाह रहे थे कि अमिताभ या कसाब शिल्प हैं. शिल्प याद रखे जाते हैं और शिल्पकार भुला दिए जाते हैं.
निदा फ़ाज़ली को भी अब लोग भूलने लग गए हैं, पर जब भी बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी मां याद आएगी तो निदा फ़ाज़ली की ये नज़्म ज़रूर याद आयेगी. इस नज़्म की पंक्तियां थीं- ‘बांट के अपना चेहरा माथा, आखें जाने कहां गयी, फटे पुराने एक अलबम में चंचल लड़की जैसी मां.’
कुछ किताबें जैसे ‘लफ़्ज़ों का पुल’, ‘मोर नाच’, आंख और ख्व़ाब के दर्मियां’ पर उनका नाम लिखा है. 1998 में ‘खोया हुआ सा कुछ’ के लिए उन्हें साहित्य अकादमी सम्मान मिला. मशहूर लेखक शानी ने कहा है, “यह संयोग की बात नहीं कि उर्दू के कुछ जदीद शायरों ने तो हिंदी और उर्दू की दीवार ही ढहाकर रख दी और ऐसे जदीदियों में निदा फ़ाज़ली का नाम सबसे पहले लिया जाएगा.”
Also Read
-
How Muslims struggle to buy property in Gujarat
-
A flurry of new voters? The curious case of Kamthi, where the Maha BJP chief won
-
क्लाउड सीडिंग से बारिश या भ्रम? जानिए पूरी प्रक्रिया
-
टीवी रेटिंग प्रणाली में बदलाव की तैयारी, सरकार लाई नया प्रस्ताव
-
I&B proposes to amend TV rating rules, invite more players besides BARC